कश्यप का कश्मीर: जानें पूरे कश्मीर का इतिहास

शैव मत की आराधक कश्मीर भूमि की पूरी प्रेरणादायक कहानी और कश्मीर की धरती का इतिहास नीलमत पुराण में है। कल्हण ने राजतरंगिणी में गोनंद नामक अत्यंत प्राचीन राजा से लेकर 12वीं शताब्दी तक के हिन्दू कश्मीरी राजाओं का कालक्रम के अनुसार काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।

Update:2019-08-29 19:34 IST
कश्यप का कश्मीर: जानें पूरे कश्मीर का इतिहास

ओम प्रकाश मिश्र

शैव मत की आराधक कश्मीर भूमि की पूरी प्रेरणादायक कहानी और कश्मीर की धरती का इतिहास नीलमत पुराण में है। कल्हण ने राजतरंगिणी में गोनंद नामक अत्यंत प्राचीन राजा से लेकर 12वीं शताब्दी तक के हिन्दू कश्मीरी राजाओं का कालक्रम के अनुसार काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।

नीलमुनिकृत नीलमत पुराण, राजतरंगिणी के रचायिता कल्हण, आचार्य अभिनव गुप्त एवं महाराजाधिराज ललितादित्य (अविमुक्तापीड) के नाम आज की पीढ़ी एवं सामान्यजन के लिए अपरिचित हो सकते हैं, किंतु इन तीनों के साथ ही, हमारे नामों के पूर्व ‘श्री’ लगने की श्रेष्ठ परंपरा वस्तुत: कश्मीर एवं श्रीनगर की ही देन है।

वस्तुत: कश्मीर और उसके इतिहास एवं वर्तमान तक विषय में कुछ अज्ञानता, कुछ अपने चश्मे से देखने की संकुचित दृष्टि, कुछ झूठे प्रचार तंत्र के कारण और कुछ हद तक सामान्यजन की बौद्घिक उदासीनता ही है जिन्होंने कश्मीर पर सही दृष्टि को विकसित होने का बहुत कम अवसर दिया।

कश्मीर पर आधिकारिक उल्लेख एवं संदर्भ नीलमुनिकृत नीलमत पुराण से उत्तम रूप से उपलब्ध होना प्रारंभ होता है। प्राचीन कश्मीर के भूगोल यानी पर्वत, वनों, नदियों तथा कृषि विषयक ज्ञान हेतु यह अत्यंत उपयोगी ग्रंथ है। नीलमुनि नाग कुल के थे। नीलमत पुराण के अनुसार, ऋषि कश्यप ने जब कश्मीर को जल से बाहर निकाला तब वह रमणीय प्रदेश बन गया। अस्तु इस पवित्र भूमि का नाम काश्यापी हुआ था। कालांतर में यह काश्यीपी ही ‘कश्मीर’ के रूप में जाना जाने लगा। नीलमत पुराण अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है। चीनी यात्री ह्वेनसांग, जो सम्राट हर्ष के कार्यकाल में भारत आया था, उसके काल में नीलमत पुराण को पढ़ा और सुना जाता था।

कल्हण ने अपने प्रसिद्घ ग्रंथ ‘राजतरंगिणी’ में अनेक स्थलों पर कश्मीर के लिए ‘काश्यापी’ शब्द का प्रयोग किया है। ‘राजतरंगिणी’ वस्तुत: कश्मीर का प्रमाणिक इतिहास प्रस्तुत करती है। ‘तरंगिणी’ का तात्पर्य है नदी, अस्तु ‘राजतरंगिणी’ अर्थात राजाओं का प्रवाह। ‘राजतरंगिणी’ कश्मीर के राजाओं का इतिहास है। कल्हण की प्रतिभा ‘राजतरंगिणी’ में उत्कृष्टम काव्य के साथ प्रकट हुई है। कल्हण उत्कृष्ट कवि एवं श्रेष्ठ साहित्यकार हैं। ‘राजतरंगिणी’ की प्रबंध रचना में इतिहास का सच-सच बताया गया है। ‘राजतरंगिणी’ की समाप्ति पर कल्हण ने उपसंहार के रूप में केवल एक छंद लिखा है, उस छंद को अष्टतम खंड में लिखा है:-

गोदावरी’ सरिदेवोत्तुमुलैस्तरंगै,

र्वक्त्र: स्फुटं सपदि सप्तभिरापतन्ती।

श्रीकान्तिराज विपुलाभि जनाब्धिमध्यं,

विश्रान्तये विशति राजतरंगिणीय।

राजतरंगिणी (8/3452)

अर्थात जैसे गोदावरी नदी अपनी तुमुल तरंगों वाली सात धाराओं के साथ बहती हुई विश्राम के लिए समुद्र में प्रवेश करती है, वैसे ही यह राजाओं को नदी रूपी कथा राजतरंगिणी अपने पूर्व की सात तरंगों के साथ श्री और कांति से युक्त राजाओं के विस्तृत कुल रूपी समुद्र में अथवा कांतिराज के कुल में विश्रांति हेतु प्रवेश कर रही है। कवि का भाव यह है कि उसकी राजतरंगिणी कश्मीर के राजाकुल को समर्पित हो रही है। कल्हण ने राजतरंगिणी में गोनंद नामक अत्यंत प्राचीन राजा से लेकर 12वीं शताब्दी तक के कश्मीरी राजाओं का कालक्रम के अनुसार काव्यात्मक रूप में वर्णन किया है।

ललितादित्य

कल्हण ने अनेक कश्मीर नरेशों का इतिहास लिखा है उसमें एक पराक्रमी शक्ति संपन्न राजा के रूप में ललितादित्य (अविमुक्तापीड) अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने 37 वर्ष (724 ई. से 761 ई.) तक राज्य किया।

जम्मू-कश्मीर के पूर्व राज्यपाल श्री जगमोहन के प्रसिद्घ ग्रंथ ‘माई फ्रोजन टरबुलेंस इन कश्मीर’ में ललितादित्य के लिए लिखा है कि वह सिकंदर के महान ग्रंथ महत्वाकांक्षा से प्रेरित था। ...उसके पास एक चीनी जनरल का काकुन्या उसकी सेवा में था। ललितादित्य का कुछ संपर्क चीन के सम्राट से भी था। ...वह एक महान प्रशासक व महान निर्माता भी था। ...ललितादित्य का सबसे महत्वपूर्ण कार्य सूर्य देव के सम्मान में मार्तंड का शानदार मंदिर निर्माण था। ...ललितादित्य हिंदू धर्म का अनुयायी था। ललितादित्य का साम्राज्य अत्यंत विशाल था।

उसके साम्राज्य में भूटान, असम, काम्बोज, कोंकण, सौराष्ट्र सिंधु नदी की तलहटी, गौड, बंग, ब्रह्मावर्त (कान्यकुब्ज) आदि थे। उसने ईरान तक अपनी विजय पताका फहराई। वस्तुत: उसका साम्राज्य विस्तार, मुगलों व अग्रेजों की तुलना में कतई कम नहीं था। मुगलकालीन, ब्रिटिश काल के तथा स्वतंत्र भारत के इतिहासकारों ने दिल्ली केंद्रित इतिहास ही रचा, इसीलिए कश्मीर के अत्यंत प्रतापी राजा ललितादित्य का उल्लेख उसने या तो किया नहीं या बहुत कम किया।

कश्मीर का दूसरा महत्वपूर्ण राजा:

कश्मीर का दूसरा महत्वपूर्ण राजा अवंति वर्मा अत्यंत प्रसिद्घ हुआ। उसके शासन का कालखंड 28 वर्ष रहा (855 ई. से 883 ई. तक)। उसके काल को शांति व समृद्घि का कालखंड माना जाता है। उसकी राज्यसभा में विद्वान व कवियों का बहुत सम्मान था। अवंति वर्मा ने वितस्ता नदी से नहरें निकालकर सिंचाई की उत्तम व्यवस्था की थी। वह पर्यावरण के प्रति सजग थे तथा किसी भी जीवित प्राणी को मारने पर रोक थी। मुगलकालीन, ब्रिटिशकालीन व वामपंथी इतिहासकारों ने ललितादित्य एवं अवंती वर्मा जैसे प्रतापी व जनपालक नरेशों के साथ ही नहीं, वरन् पूरी भारतीय इतिहास परंपरा के साथ घोर अन्याय किया है।

यह सत्य है कि आचार्य अभिनवगुप्त सरीखे व्यक्तित्व, जिन्होंने भारतीय ज्ञान परंपरा में शैव दर्शन को महत्वपूर्ण रूप में प्रतिपादित किया व अन्य विद्वानों का योगदान संस्कृत साहित्य में अत्यंत महत्वपूर्ण है। आचार्य अभिनवगुप्त के योगदान एवं महत्व पर श्री नंदकुमार (राष्ट्रीय संयोजक, प्रज्ञा प्रवाह) का कथन उल्लेखनीय है। भारतीय संस्कृति, वेद, तंत्र एवं योग की त्रिवेणी है और अभिनवगुप्त संगम के अंग। उन्होंने भारतीय संस्कृति के नवोत्थान के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया।

यह दुर्भाग्य है कि शंकराचार्य और स्वामी विवेकानंद के बीच अनेक विचारक आए, लेकिन इतिहास में उनका कहीं उल्लेख नहीं है और आचार्य अभिनवगुप्त के विचार को जो चर्चा होनी चाहिए थी, वह हुई नहीं है।

जैनुलब्दीन:

अतएव नीलमत पुराण, राजतरंगिणी जैसे महत्वपूर्ण ग्रंथों, महाराजा ललितादित्य, महाराजा अवंति वर्मा सदृश प्रतापी सम्राटों, नीलमुनि, कल्हण एवं आचार्य अभिनव गुप्त सरीखे भारतीय हिंदू, संस्कृति आधार-स्तंभों को जानबूझकर छुपाया गया, उसके पीछे की कुत्सित भावना, कश्मीर को अलग-थलग सोच के रूप में दिखाने की प्रवृत्ति का एक रूप थी। कभी जम्मू-कश्मीर राष्ट्रीय एकता-एकतात्मतकता का प्रतीक था। यह वह समय था जब श्रीगर में श्रीविद्या का आविष्कार हुआ था, जब कश्मीर में श्री की संकल्पना का जन्म हुआ था, जब कश्मीर में कश्मीर के शिव और दक्षिण में त्रिपुरा सुंदरी श्रीविद्या की भूमि पर एकात्म हो गए। हम देखते हैं कि ब्रिटिश राज से पहले, इस्लामी आक्रमण के समय से ही भारतीय संस्कृति व कश्मीर के संबंधों को काटने का प्रयास होता रहा है, हां, दो एक अपवाद भी हुए हैं। जैनुलब्दीन (1420 ई. से 1470 ई.) एक ऐसा मुस्लिम शासक हुआ है।

श्री माधव गोविंद वैद्य ने लिखा है- जैनुलब्दीन 1420 में गद्दी पर बैठा। आग में जलने के बाद उस पर चंदन के शीतल लेप जैसा सुखद शासनकाल का अनुभव हुआ। अनेक भग्न मंदिरों का पुनर्निर्माण हुआ। जो लोग कश्मीर छोडक़र अन्यत्र चले गए थे, उन्हें उसने वापस बुलाया, उनकी जमीनें सुपुर्द की। उसकी प्रशासन दृष्टि विधायक थी। बंजर जमीनों को कृषि योग्य बनाया गया। संस्कृत के अनेक ग्रंथों का फारसी में अनुवाद कराया गया।

भारत पर मुसलमानों के आक्रामक और अत्याचारों की विभीषिकाएं संपूर्ण भारतवर्ष ने झेलीं, कश्मीर पर हिन्दू राजाओं का शासन समय-समय पर रहा। 16वीं शताब्दी के अंतिम खंड के बाद, महाराजा रणजीत सिंह की कश्मीर विजय (जिसमें राजा गुलाब सिंह का नेतृत्व रहा एवं सुप्रसिद्घ योद्घा श्री हरी सिंह नलवा का अप्रतिम योगदान) से दशकों के अफागानी शासन व मुगल शासन की क्रूरता के बाद धर्म जाति दिखी। इस विजयोल्लास में लाहौर तथा अमृतसर में लगातार दो दिनों तक दीपोत्सव मनाया गया।

सिखों का शासन सन 1811 से 1846:

कश्मीर पर सिखों का शासन सन 1811 से 1846 यानी केवल 27 वर्षों तक रहा। राजा गुलाब सिंह डोगरा वंश के थे। कश्मीर पर इस वंश का शासन सौ वर्षों तक चला (१८४६-१९४७)। इनमें 4 राजा हुए। गुलाब सिंह (१८४६ से १८५७), रणवीर सिंह (१८५७ से १८८५) प्रताप सिंह (१८८५ से १९२५) और हरी सिंह (१९२५ से १९४७)। इनमें गुलाब सिंह ही सबसे कुशल प्रशासक रहे। उनके पराक्रम और सूझबूझ से वर्तमान जम्मू-कश्मीर राज्य बना। अंग्रेजों की सत्ता के परिणामस्वरूप एवं महाराजा रणजीत सिंह की मृत्योपरांत सिख सरदारों की आपसी फूट के कारण अंग्रेजों ने पंजाब को अपने अधीन कर लिया था। तत्पश्चात 1 मार्च, 1846 तथा 16 मार्च, 1846 को दो संधि पत्र राजा गुलाब सिंह व ब्रिटिश सरकार के मध्य हस्ताक्षरित हुए। अंग्रेजों को पचहत्तर लाख रूपये देने से लद्दाख, जम्मू कश्मीर का भाग डोगरा नरेश राजा गुलाब सिंह के पास रहा।

गोलमेज सम्मेलन में भारत की स्वतंत्रता को आवश्यक बताया:

शंकराचार्य के साथ अद्वैतवादी दर्शन भी कश्मीर पहुंचा था। श्रीनगर में स्थित शंकराचार्य का मंदिर आदि शंकराचार्य की यात्रा का स्पष्ट प्रमाण है। कश्मीर में जब हिन्दू राजाओं का शासन था, तब भी वहां बौद्घ मतावलंबी पूर्ण स्वतंत्रता के साथ अपनी दार्शनिक पृष्ठभूमि पुष्ट करते रहते थे। मुसलमानों के शासन के दौरान अत्याचारों से पीडि़त होकर कश्मीर के हिंदू तपस्वी व बौद्घ तपस्वी अपनी तपस्थली छोडक़र, भारत के अन्य मैदानी भागों में चले गये।

कश्मीर से पलायन, कश्मीर में धर्म परिवर्तन हेतु, क्रूरता व अत्याचार की कहानी, मुस्लिम शासकों व कालांतर में तथाकथित सेकुलर सरकारों की अनवरत तुष्टिकरण की नीति रही है। यदि कश्मीर में हिन्दू द्वेष की सांप्रदायिकता ना होती तो कश्मीर घाटी आज भी हिन्दू बहुल्य होती। राजनैतिक इतिहास की दृष्टि से, यह समझना महत्वपूर्र्ण होगा कि भारत की स्वतंत्रता के पहले से ही ब्रिटिश सत्ता व मुस्लिम नेताओं की दुरभिसंधि चल रही थी। वस्तुत: 1930 में कश्मीर के महाराजा हरि सिंह ने गोलमेज सम्मेलन में भारत की स्वतंत्रता को आवश्यक बताया था।

इसी से अंग्रेज चिढ़ गये थे। भारत की अन्य शेष रियासतें, जबकि अपने स्वार्थवश अंग्रेजी शासन बनाए रखना चाहती थीं। अंग्रेज तो भारत को खंड-खंड करना चाहते थे और उनके इस प्रयास में कश्मीर को स्वतंत्र राष्ट्र बनाना उन्हें अधिक अनुकूल लगता था। अलीगढ़ व लाहौर से शिक्षित मुस्लिमों ने महाराजा के विरूद्घ और मुस्लिम कॉन्फ्रेंस की, स्थापना इसी कड़ी की महत्वपूर्ण घटना समझी जा सकती है।

1938-39 में जम्मू-कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस का नाम बदला गया और इसका नाम जम्मू कश्मीर नेशनल कॉन्फ्रेंस रखा गया।

कश्मीरः जुबान प्यारी या जान?

अलगाववादी राजनीति की आग में मोहम्मद अली जिन्ना ने घी डाला। जिन्ना ने 1944 में स्पष्ट कहा- मुसलमानों के पास एक प्लेटफार्म है, एक कलमा और एक अल्लाह। मैं मुलसमानों से प्रार्थना करूंगा कि उन्हें मुस्लिम कांफ्रेंस के झंडे के नीचे आकर अपने अधिकारों के लिए आंदोलित करना चाहिए। इससे यह स्पष्ट होता है कि अखंड भारत के विभाजन के अपराधी जिन्ना व कश्मीर को अलागववाद की राह ले जाने वालों के बीच स्पष्ट दुरभिसंधि थी।

वस्तुत: कश्मीर का भारत में विलय, उन्हीं शर्तों के साथ हुआ था। राजनीति शास्त्री श्री मोहन कृष्ण तेंगू ने अपनी पुस्तक कश्मीर: मिथ ऑफ आटोनामी में लिखा है। जम्मू और कश्मीर ने जो विलय किया, जिस पर महाराजा हरि सिंह ने हस्ताक्षर किये, वह वही मानक विलय पत्र था, जिस पर अधिकांश रियासतों/ राज्यों ने विलय किया था।

राज्य (कश्मीर) का भारत में विलय किसी भी अन्य शर्त या अपवाद के साथ नहीं था, जिसमें राज्य (कश्मीर) को कोई अलग और विशेष संवैधानिक प्रावधान हो। किन्तु आगे भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री की ऐतिहासिक भयंकर भूल ने कश्मीर समस्या को नासूर बनाने का कार्य किया। यह तो सरदार पटेल की दृढ़ता थी कि सेना को कश्मीर भेजकर भारत की प्रतिष्ठा बचा ली। मेजर जनरल थिमैया ने 16,000 फीट ऊंचे जोजिला दरें पर टैंक उतार कर ऐसा चमत्कार किया कि पाकिस्तान स्तब्ध रह गया।

नेहरू ने युद्घ विराम की घोषणा करके तथा संयुक्त राष्ट्र की मध्यस्थता मांगकर अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार ली। अन्यथा भारतीय सेना का अभियान जैसा चल रहा था, उससे आज पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर की समस्या का अता-पता ही न रहता।

उसके बाद का इतिहास तो ऐतिहासिक भूलों की श्रृंखलाएं लिए हुए हैं। कश्मीर के लिए धारा 370 एवं उसका अलग संविधान ऐसे आत्मघाती फैसले थे, जिसका खामियाजा आज तक राष्ट्र को भुगतना पड़ रहा है। कश्मीर के लिए यह एक विघटनकारी कदम था, जिसके निराकरण के जो मौके आएं, उन्हें गंवा दिया गया। 1965 एवं 1979 में पाकिस्तान की अपमानजनक पराजय पर हम पाकिस्तानी कब्जे वाला कश्मीर मांग सकते थे। पर हमने वे मौके गंवा दिए।

जम्मू-कश्मीर के मामले में हम देखते हैं कि भारतीय सेना के अभियान को युद्घ विराम करके रोकना, कश्मीर के विषय को संयुक्त राष्ट्र संघ की विषय वस्तु बनाना, जनमत संग्रह की बात करना आदि ऐसे आत्मघाती निर्णय रहे, जिनसे कश्मीर की समस्या जटिल होती गई।

इन प्रमुख घटकों के कारण आतंकवाद का घृणित रूप पिछले लगभग 3 दशकों से कश्मीर में परिलक्षित हुआ है। कश्मीरी पंडितों की हत्या, महिलाओं के साथ बलात्कार, अपहरण जैसे जघन्य अपराध आतंकवादियों ने किये हैं।

एक कश्मीर भगिनी डॉ. बीना बुदकी ने अपनी पुस्तक ‘कश्मीरी विरसा संरक्षण का अधिकारी कौन?’ की भूमिका में लिखा है- एकाएक आतंक का जामा पहने रातोरात जो आंधी चली उसमें अनेक परिवार अपनी मातृभूमि से बेघर हो गये। रात के अंधेरे में मातृभूमि छोडऩे पर कई समस्याओं से जूझना पड़ा। सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक तथा धार्मिक क्षति झेलनी पड़ी। कई जवान बहू-बेटियों की इज्जत मां-बाप के सामने ही तार-तार कर दी गई। जिसने विद्रोह किया वह गोलियों से भून दिया गया। ... मानवाधिकारों के व्यावहारिक विघटन की दास्तां हर कहीं चीखती-पुकारती नजर आ रही है।.... मैंने भी स्वदेशी शरणार्थी बनकर 22 साल बिताए हैं। अपनी मातृभूमि को खोया है।अपनों को खोया है। वे भयानक रातें आज भी झकझोर देती है। अनगिनत लाशों के ढेर और बम विस्फोट से उजड़़े मकान आज भी आंखों में बसे हैं।

इस प्रकार हम देखते हैं कि राष्ट्रद्रोही तत्वों ने पाकिस्तानी सरकार द्वारा पोषित आतंकवादियों की दुर्गंध से 1989 से वहां लगातार मानवाधिकार का उल्लंघन किया। हिन्दुओं एवं सिखों के साथ अत्याचारों की श्रृंखला चलती रही है। इसके परिणामस्वरूप बहुत बड़ा संख्या में कश्मीरी पंडितों को जड़ से काट दिया गया।

वे अपने ही राष्ट्र में शरणार्थी बन गये, जबकि अंतर्राष्ट्रीय नियमों व संयुक्त राष्ट्र संघ की मान्यताओं के अनुसार वे तकनीकी तौर पर शरणार्थी नहीं माने जाते। कश्मीरी पंडित संघर्ष समिति के मुताबिक1989 में घाटी में कश्मीरी पंडितों की संख्या चार लाख से अधिक थी। लेकिन अब घाटी बारमूला, श्रीनगर, नुतनुशा, अनंतनाग, पुलवामा और मत्तन में कुल मिलाकर 2500-3000 के बीच कश्मीर पंडित रह गये हैं। इनमें से कुछ अपने पैतृक घरों में और अधिकतर कई जिलों में बनाए गये शरणार्थी शिविरों में रहते हैं।

हिन्दुओं के इस उत्पीडऩ में पाकिस्तान पोषित वहावी विचारों के मुसलमान ही प्रमुख हैं। यद्यपि वे संख्या में कम हैं, परन्तु बहुसंख्यक सूफी मुसलमानों पर भारी पड़ रहे हैं। अब कटटरपंथी सारे मुसलमानों पर एकाधिकार करने की प्रक्रिया तेज कर चुके सारे मुसलमानों पर एकाधिकार करने की प्रक्रिया तेज कर चुके हैं। राष्ट्रवादी शक्तियों को बल, भय व आतंक से सताया जा रहा है। यह एक अत्यंत शोचनीय स्थिति है। इससे निकलने के लिए अल्पकालीन एवं दीर्घकालीन नीतियों तथा उनके कार्यान्वयन की महती आवश्यकता है।

ऐसा नहीं कि कश्मीर के विषय में समस्या के समाधान के लिए उचित सुझाव न आए हों। बहुत हद तक कश्मीर के पूर्व राज्यपाल जगमोहन ने अपने कार्यकाल में महत्वपूर्ण प्रयास किये थे। किन्तु उन्हें उसी तुष्टीकरण की नीति के तहत हटाया गया, जो कश्मीर पर सेकुलर दलों की रही थी। ऐसा माना जाता है कि यदि वे वहां कुछ वर्ष और राज्यपाल रहते तो आतंकवाद की कुचलने में सफल हो जाते। श्री माधव गोंविद वैद्य ने उल्लेख किया है- कट्टर, जातिवादी पाकिस्तानी आतंकवादियों के शिकंजे से कश्मीर घाटी को मुक्त करने के लिए अपनी सारी शक्ति, प्रतिभा झोंक देने वाले एक परम राष्ट्रभक्त, कर्तव्य परायण अधिकारी को अंतत: जाना पड़ा। ... कश्मीर घाटी में खुशी की लहर दौड़ गई, आतंकवादी तो खुशी से नाच उठे।

वस्तुत: कश्मीर की समस्या के समाधान के लिए किसी शोध कार्य की ना तो जरूरत थी, ना ही है। जिस प्रकार से कश्मीर के दोनों प्रमुख क्षेत्रीय दल (पी.डी.पी. एवं नेशनल कॉन्फ्रेंस) अलगाववादियों का प्रत्यक्ष एवं परोक्ष समर्थन करते रहते हैं, ऐसी परिस्थिति में व्याधि का इलाज यही है। दूसरे जिस प्रकार से स्थानीय चुनावों में पी.डी.पी. एवं नेशनल कांफ्रेंस के भाग ना लेने के बावजूद जनता मताधिकार का प्रयोग कर रही है, वह आशा की किरण है। यहां पर आशा की किरणों को सहेजना है।

 

(लेखक पूर्व रेल अधिकारी हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्रवक्ता रहे हैं)

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