Lok Sabha Election 2024: क्या नाम दूं इस चुनाव को !
Lok Sabha Election 2024: भाजपा का पूरा अभियान मोदी और दो-तीन अन्य नेताओं पर ही टिका रहा। लगता था मानो चुनाव भाजपा नहीं, बल्कि अकेले मोदी लड़ रहे हैं। उनके भाषण, इंटरव्यू और बयान भी ‘हम’ की बजाये ‘मैं’ और ‘मुझे’ पर ही टिके रहे।
Lok Sabha Election 2024: हर चुनाव का कोई न कोई अपना संदेश होता है। नया संदेश होता है। 2024 के लोकसभा चुनाव अनोखा है। ऐसा चुनाव शायद आज तक देश ने नहीं देखा, लगातार करवटें बदलता, चुप्पी और उदासीनता वाला, हैरतंगेज़ भाषणों-बयानों, अजीबोगरीब रंग की चुनावी मशीनरी वाला। यह चुनाव भी सन्देश देगा। वह क्या होगा? यह जानने के लिए नतीजों तक इंतज़ार करना पड़ेगा। लेकिन तब तक यह नजर दौड़ाना जरूरी है कि इस बीच आखिर हुआ क्या क्या? हमने क्या क्या देखा? अपने अपने हित में नतीजे पाने व लाने के लिए किस किस दल या नेता ने क्या क्या किया? कौन कौन सी जुगत लगाई? इसका नीर क्षीर तो हो ही जाना चाहिए, क्योंकि उससे भी काफी सन्देश मिलते-निकलते हैं, जो बहुत कुछ सिखाते हैं।
सबसे पहले हैट-ट्रिक लगाने का दावा करने वाली ‘टॉपर’ पार्टी की बात करना ज़रूरी है। पिछले दो चुनावों की परीक्षा में इस पार्टी ने टॉप किया था। सो इस बार स्वाभाविक कौतूहल उसी के बारे में ज्यादा है। माना जा रहा है और दावे भी हैं कि इसके नेता नरेंद्र मोदी और पार्टी कई तरह के कीर्तिमान रचने जा रहे हैं। इस नई रचना के लिए इन्होंने क्या क्या किया? चुनाव से बहुत पहले ही चार सौ पार का नारा बुलंद कर दिया। इस नायाब नारे के जरिये सबको पीछे छोड़ने और बढ़त लेने की रणनीति उतार दी। कुछ सोच समझ कर ही यह रणनीति, यह नारा गढ़ा गया होगा । लेकिन चूक हो गयी। यह रणनीति पार्टी पर भारी पड़ गयी। बूमरैंग कर गयी। जिस शाइनिंग की बात थी वह धूमिल पड़ गयी।
भाजपा का ‘400 पार’
हुआ यह कि विपक्ष ने चार सौ पार का नारा पकड़ लिया। इस नारे की मंशा को लेकर शंकाओं-सवालों का बवंडर खड़ा कर दिया। मतदाताओं के ज़ेहन में इस संदेह का बीज बोने में विपक्ष कामयाब रहा कि मोदी सरकार व उनकी पार्टी ‘400 पार’ इसलिए मांग रही है ताकि वह बाबा साहेब का संविधान बदल दे, आरक्षण को सिरे से खत्म कर दे। बस, 2024 के चुनाव की सियासी पिच इसी के इर्द-गिर्द तैयार कर दी गयी। पहली बार ऐसा हुआ कि विपक्ष की पिच पर भाजपा को उतरना पड़ा। अपने नायाब नारे को पीछे छोड़ना पड़ा। सफाई की मुद्रा में आना पड़ा। इस सफाई के चक्कर में सरकारी स्कीमों के लाभार्थी क्लास, तीन तलाक़, राम मंदिर, तीन सौ सत्तर, महिला आरक्षण, आयुष्मान और राष्ट्रवाद सरीखे मुद्दे भाजपा के अभियान से ग़ायब हो गए। दस साल की मोदी सरकार अपनी उपलब्धियों पर चुनाव को केंद्रित ही नहीं कर पाई। अपने काम, अपने प्लान सब बहुत पीछे छूट गए। गंभीर नैरेटिव लापता हो गया। उसकी जगह मंगल सूत्र, टोंटी खोल ले जाना, बिजली काट जाना, भैंस ले जाना जैसे हैरानी वाले बयानात हावी हो गये। खेल ऐसा हो गया जैसे एक ही ओवर में वाइड, बाई, नो बॉल की भरमार हो गयी हो। कौन से गेंद कहाँ जायेगी खुद गेंदबाज को नहीं पता।
पिच नई, नैरेटिव लापता
पिच नई और नैरेटिव लापता होने का असर यह हुआ कि भाजपा के नेताओं की भाषा व बॉडी लैंग्वेज - दोनों में बीते दो चुनावों सरीखा आत्म विश्वास नदारद दिखा। सोशल मीडिया प्लेटफ़ार्मों पर अपनी जबरदस्त पकड़ और अविजित छवि क़ायम करने वाली पार्टी लगातार पिछड़ती ही नहीं बल्कि बिखरती नज़र आई। आईटी सेल भी दिशाहीन सा रहा। भाजपा का पूरा अभियान मोदी और दो-तीन अन्य नेताओं पर ही टिका रहा। लगता था मानो चुनाव भाजपा नहीं, बल्कि अकेले मोदी लड़ रहे हैं। उनके भाषण, इंटरव्यू और बयान भी ‘हम’ की बजाये ‘मैं’ और ‘मुझे’ पर ही टिके रहे।
वैसे, चीजें काफी पहले से ही ‘डीरेल’ दिखने लगीं थीं। टिकट वितरण में तो आत्म विश्वास तो अलग ही लेवल पर पहुंचा हुआ था। सबसे बड़े चुनावी मैच में ऐसे अपरिचित, अनजान, ग़ैर राजनीतिक और दलबदलू चेहरों को मैदान में उतारा गया कि देखते ही बनता था। कई ऐसे चेहरे उतार दिए गए जिनसे जनता पहले से ऊबी और भरी हुई बैठी थी। इनका असर तुरंत देखने को भी मिलने लगा। अकेले उत्तर प्रदेश में भाजपा के दस उम्मीदवारों के लिए जनता ने ‘गो बैक’ का नारा लगा दिया।
अखिलेश यादव का ‘पीडीए’
मीडिया से रू-ब-रू होने की तो इस बार हद ही पार कर दी गयी। यह निचले लेवल के नेताओं से लेकर प्रधानमंत्री में भी दिखा। जिसको जो मन हो रहा था बोले चला जा रहा था। जिसे देखिये वहीं इंटरव्यू पा रहा था।गुजरात में केंद्रीय मंत्री रूपाला के जाति विशेष को ले कर दिये गये बयान की आँच उत्तर प्रदेश तक इस कदर आई कि भाजपा के ठाकुर नेता भी भाजपा विरोध की लहर में शरीक होने को मजबूर हो गए। मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ ने भी अपनी बिरादरी के इस आंदोलन को रोकने के लिए कदम आगे बढ़ाना उचित नहीं समझा। शायद यही वजह रही कि गृह मंत्री अमित शाह की रघुराज प्रताप सिंह राजा भैया को भाजपा के पाले में लाने की कोशिश परवान नहीं चढ़ पाई। इसका सीधा नुक़सान यह भी हुआ कि उत्तर प्रदेश में जातियों के खाँचे इतने कठोर हुए कि अपनी अपनी जातियों को ही वोट देने का चलन इस बार बहुत ज्यादा और बहुत साफ़ दिखा। पार्टी के प्रति निष्ठा किनारे हो गयी। जाति सर्वोपरि हो गयी। सोच यह हो गयी कि उम्मीदवार अपनी जाति का होना चाहिए। पार्टी बाद में देखी जायेगी। इस खतरनाक सियासी आग में घी का काम अखिलेश यादव के ‘पीडीए’ ने किया।
मायावती और भाजपा
उत्तर प्रदेश में मायावती की मदद का भी इतना खुलासा हो गया कि मायावती और भाजपा दोनों को फ़ायदा होने की जगह नुक़सान ही हो गया। मायावती सिकुड़ते सिमटते हाशिये से भी बाहर चली गईं। हालत यह हो गया कि अल्पसंख्यक तो दूर, दलित समाज भी कह उठा कि बहन जी अब बस! बहन जी आप बी टीम हो गयी हैं। अप्रासंगिक भी। वह फिर इस बार सिफ़र के आसपास चक्कर लगाती दिखेंगी।
ऐसा नहीं कि इस चुनाव में विपक्ष बहुत एकजुट और मजबूत स्थिति में था। वहां भी ढेरों मतभेद और मनभेद थे । लेकिन उसकी कमजोरियों का फायदा उठाने की कोई रणनीति तैयार नहीं की जा सकी। कहीं का ईंट, कहीं का रोड़ा जोड़कर तैयार विपक्ष के भानुमति के कुनबे की धज्जियाँ उड़ा कर मतदाताओं को दिखाई नहीं जा सकीं। डबल इंजन की सरकार का नारा तो नेपथ्य में चला गया। मोदी की गारंटी भी चौथे चरण के आते आते जाने कहाँ बिसर गई। चार सौ पार तो शुरू ही में हवा हो गया।
दस साल से केंद्र की सत्ता से बाहर और आम जनता के चित से उतर चुकी कांग्रेस को चुनाव के दौरान लाइम लाइट में बनाये रखने का श्रेय भी भाजपा की ग़लत प्रचार नीति को जाता है। लंबे समय से रनवे पर दौड़ रहे अखिलेश व राहुल के जहाज़ को टेक ऑफ का अवसर भी भाजपाई नीति रीति के चलते मिला।
भाजपा की वापसी
आम जनता व देशी विदेशी निष्पक्ष चुनाव विश्लेषक जब बार बार भाजपा की वापसी की बात कह रहे थे। तब भाजपा के नेताओं को यह बात क्यों समझ में नहीं आई? यह इस चुनाव का यक्ष प्रश्न है? यही नहीं, आज भी जिन आलोचकों की आँखों पर किसी और विचार का चश्मा चढ़ा है वो भी भाजपा को दो सौ से पार देखने से गुरेज़ नहीं कर रहे हैं। यानी सबसे बड़ी पार्टी भाजपा को होना है। राष्ट्रपति उसे सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करेंगी ही। यही नहीं, पश्चिम बंगाल, उड़ीसा, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश जैसे राज्य में भाजपा अपने स्कोर बढ़ायेगी। तमिलनाडु व केरल में खाता खोलने में कामयाब होगी।
बिहार, हरियाणा, महाराष्ट्र, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, उत्तर प्रदेश में भाजपा के घटने का कोई भी अनुमान डबल डिजिट में नहीं जाता है। भाजपा अपने पुराने स्कोर को हर राज्य में तो नहीं देश में दोहरा देगी। यह तय है। पिछले स्कोर से दस सीटें कम या ज़्यादा का ही स्कोर दिखता है।
सब लोग जब यह समझ रहे थे तब भाजपा अकेले बूते खुद को स्पष्ट बहुमत में मानने को क्यों तैयार नहीं दिखी? उसने इतने समझौते क्यों किये? उसके नेताओं की अंग भाषा इतनी लचर क्यों रही? विपक्ष के पिच पर वह खेलने क्यों गई? अपनी पिच क्यों नहीं तैयार कर सकी? वाहियात के नैरेटिव में क्यों पड़ी?
इन सवालों के जवाब जनादेश से नहीं आयेंगे। इसलिए भाजपा नेतृत्व को ही इन सवालों का जवाब देने के लिए आगे आना होगा। इन सब का जवाब पार्टी, पार्टी की राजनीति और पार्टी के वर्कर तथा नेता के लिए जितने जरूरी हैं, उतने ही जरूरी हैं पार्टी की समर्थक जनता के लिए भी।
‘इवाल्व’ नहीं करेंगे तो खत्म हो जायेंगे
दुनिया में हर चीज ‘इवाल्व’ यानी विकसित होती जाती है और यह क्रम सतत चलता रहता है। कुछ भी पूर्ण रूप से विकसित नहीं होता, यह विज्ञान ही नहीं हमारे प्राचीन ग्रन्थ भी कहते हैं। राजनीति भी सदा ‘इवाल्व’ होती रहती है, अगर ठहर गयी तो खराब हो जायेगी। ऐसे में इन चुनावों से भी सीख कर आगे बढ़ना होगा। जो हुआ, जो किया वह तो सफ़र का हिस्सा है। विकास क्रम की गाथा के रूप में लेकर आगे की राह बनानी होगी, इसके बगैर नई पारी की शुरुआत करना अपना ही और भी नुकसान करना और कमाई गयी पूंजी को लुटाने के बराबर होगा। ‘इवाल्व’ नहीं करेंगे तो खत्म हो जायेंगे। सबसे पहले तो यह पता करना होगा कि सफ़र में गुमराह हुए तो कैसे? कुएं में भांग का पहला पत्ता गिरा तो गिरा कैसे? किसने और क्यों डाला?
(लेखक पत्रकार हैं।)