Maharishi Aurobindo: जहां है एक ज्वलंत शुभ्र शांति
Maharishi Aurobindo: महर्षि अरविंद और यहां साहित्य रचना में...आप सोच रहे होंगे कि है क्या यह? महर्षि अरविंद तो कभी भी साहित्यकार नहीं थे, वे तो क्रांतिकारी थे, एक कवि थे, दार्शनिक थे और विकास के दिव्य दृष्टा थे।
Maharishi Aurobindo: महर्षि अरविंद और यहां साहित्य रचना में...आप सोच रहे होंगे कि है क्या यह? महर्षि अरविंद तो कभी भी साहित्यकार नहीं थे, वे तो क्रांतिकारी थे, एक कवि थे, दार्शनिक थे और विकास के दिव्य दृष्टा थे। "किंतु सब लोग न तो दार्शनिक होते हैं और न ही कवि और भविष्य दृष्टा तो और भी नहीं। ऐसे में हमें कोई हमारी निजी संभावनाओं में भी विश्वास करने का साधन प्रदान करें, हमें स्वयं को खोज लेने का विश्वास जगा दे और विशाल बन जाने का साधन दे दे तो हम शायद संतुष्ट हो जाएं। महर्षि कहते हैं- 'आत्मा की सचेतन उपलब्धि की कला का नाम योग है।’यदि हम साहसपूर्वक रास्ते की कठिनाइयों का सामना करते हुए शांति, धैर्य और सच्चाई के साथ आगे बढ़ें तो कोई कारण नहीं कि एक दिन वह खिड़की खुल न जाए जो हमें सदा के लिए प्रकाश से भर दे। सच तो यह है कि एक नहीं बल्कि अनेक खिड़कियां बारी-बारी से हर बार पहले से अधिक विस्तृत आकाश की ओर, हमारे साम्राज्य के एक नए आयाम की ओर खुलती हैं और प्रति बार ही चेतना का रूपांतर होता है, उतना ही आमूल रूपांतर जितना की उदाहरणतः निद्रा से जागृत अवस्था में संक्रमण।"
महर्षि अरविंदों
यह उद्धृत अंश सत्प्रेम द्वारा लिखित किताब 'श्री अरविंद अथवा चेतना का साहसिक अभियान' की पृष्ठ संख्या 23- 24 से लिया गया है। महर्षि अरविंदो या श्री अरविंद या योग ऋषि अरविंद के बारे में मैंने बहुत ही संक्षिप्त में अपने विद्यालयी शिक्षा में पढ़ा था, फिर कभी भी उन पर कुछ भी पढ़ने का मौका ही नहीं लगा। महर्षि अरविंद घोष का जन्म 15 अगस्त, 1872 को वर्तमान कोलकाता में हुआ था, जिन्हें मात्र 7 वर्ष की आयु में तीनों भाइयों के साथ पढ़ाई के लिए इंग्लैंड भेज दिया गया। वे 20 वर्ष की आयु में अपनी मातृभूमि भारत वापस आए। उन्होंने आध्यात्मिक विकास के माध्यम से दिव्य जीवन में दर्शन को प्रतिपादित किया। 5 दिसंबर, 1950 को पुड्डूचेरी में ही उनका निधन हो गया। महर्षि अरविंद ने अन्तर्ज्ञान को विशेष महत्व देते हुए कहा कि 'मस्तिष्क के चार स्तर चित्त, मानस, बुद्धि तथा अंतर्ज्ञान होते हैं, जिनका क्रमशः विकास होता है। अंतर्ज्ञान में व्यक्ति को अज्ञान से संदेश प्राप्त होते हैं जो बाह्य ज्ञान के आरंभ के परिचायक हैं'।
पुडुचेरी और उनकी किताब
बड़ा बेटा श्रेयांस अभी कुछ समय पहले पुडुचेरी घूमने गया था, वहां वह महर्षि अरविंद के आश्रम 'ओरोविल' भी गया था, वहां से वह मेरे लिए, मेरी रुचि की यह किताब लेकर आया, इससे अच्छा उपहार क्या हो सकता था मेरे लिए। किताब को सच कहूं तो पूरी नहीं पढ़ पाई हूं । लेकिन जितनी भी पढ़ी, वह कहीं न कहीं दोबारा अध्ययन मांगती है । क्योंकि हम सहज, सरल भाषा में भी ज्ञान की बातें हों, अध्यात्म की बातें हों तो भी उसे स्वीकार नहीं कर पाते। पढ़ लेते हैं पर समझ नहीं पाते हैं। लेकिन मनोरंजन, फुहड़ हास्य को, चटकारेदार कहानियों को जल्दी समझ लेते हैं। धर्म और अध्यात्म में फर्क समझाती यह किताब मानव के विचलन को शांत कर सकती है, बशर्ते बहुत ध्यान से पढ़ा जाए, मनन किया जाए और समझा जाए।
आगे बढ़ाती नीरवता
नवंबर का महीना, सुबह-शाम की गुलाबी ठंड का महीना होता है। सुबह-सुबह चिड़ियों की तेज आवाज बालकनी में शोर मचाती हुई बहुत अच्छी लगती है। यूं तो मेरे मित्र ने मुझे कहा है कि मैं पुरानी बातों को भूलकर भविष्य के बारे में सोचूं, भविष्य की बात करूं। वैसा ही महर्षि अरविंद भी कहते हैं कि यदि हम अपने अंदर एक नए देश की खोज करना चाहते हैं तो पुराने को पीछे छोड़ना जरूरी है। फिर भी मन स्थितप्रज्ञ तो नहीं, अतीत को कुरेदता ही है। 6 साल पहले नवंबर में मेरी पहली कविता प्रकाशित हुई थी, तब से अब तक मैं इस लेखनी के साथ संलग्न हो आगे बढ़ने का ही ध्येय लेकर चल रही हूं। पर इस पहले कदम को उठाने से पहले की मानसिक उथल-पुथल किसी यंत्रणा के समान थी।
ऐसा लगता था कि अंदर से एक पुकार उठ रही है, ' बस करो, अब बहुत हो चुका। ‘अब उस समय दोराहे की स्थिति में सब कुछ स्वयं पर निर्भर होता है कि कितने दृढ़ संकल्प के साथ यह पहला कदम उठाए जा सकेगा। जानते हैं हिम्मत का यह पहला कदम उठाने के लिए न तो कोई मुहूर्त निकालना होता है और न ही किसी के साथ की आवश्यकता होती है, किसी की आज्ञा की भी जरूरत नहीं होती है और न ही किसी मार्गदर्शक की। उसके लिए तो बस आवश्यकता होती है अपने मानस की नीरवता की, तभी यह अंकुरण होता है, तभी यह स्फूरण होता है। गीली मिट्टी में कभी भी फूल नहीं आते हैं और न ही पौधा पनपता है । उसके लिए भी मिट्टी के सूखने की आवश्यकता होती है। बस वही नीरवता आपको आगे बढ़ाती है। जब हमारे दिमाग में बहुत हलचल हो तब अपने दिमाग की चक्की को चलाना बंद कर देना चाहिए, खुद को शांत स्थिति में लाना चाहिए यानि विचारविहीन कर लेना चाहिए। अपने किसी भी आलेख को लिखने बैठते समय मेरे अंदर विचारों का झंझावात चल रहा होता है , अनेक विषय अपनी ओर खींचते हैं।
पर........ पर , मैं क्या करती हूं ? सब कुछ सोचना छोड़ देती हूं । अपने दिमागी विचारों के प्रवाह को बंद कर देती हूं , खुद को समय देती हूं , ज्यादा लंबे समय के लिए नहीं, 30 से 40 मिनट तक । तब पता चलता है कि ईश्वर ने मनुष्य को सोचने- विचारने की अद्भुत शक्ति दी है पर यह जो सोचने विचारने की शक्ति को बंद कर देना होता है यह और भी अधिक शक्तिशाली रूप से काम करता है। क्योंकि विचारों का तूफान मन में उठा होता है वह हमारे दिमाग को इतनी बुरी तरह चोट पहुंचाता है , उसे थका देता है और वह अपने आगे किसी को भी ठहरने नहीं देता , किसी की सुनता भी नहीं क्योंकि वह स्वयं तो थकता भी नहीं है इसलिए इस विचार न करने की शक्ति को जागृत करके देखिए पता चल जाएगा कि क्या होता है यह नियंत्रण। फिर खुलकर आप सांस ले पाएंगे, स्वयं को वास्तविक रूप में जान पाएंगे जो कि इन विचारों के बवंडर में हम नहीं ही जान पाते हैं। क्योंकि हमारी अनेक, अनंत इच्छाएं हमारे स्व को दबा देती है। स्व को बाहर लाने के लिए इन इच्छाओं को दबाना जरूरी है। यहां हम हमारे आनंद, शक्ति और ज्ञान को वैभव के नाम पर, दिखावे के नाम पर बलि चढ़ा देते हैं।
प्रशंसा या ईर्ष्या
बहुत मुश्किल था वह समय जब मेरा सामना चारों ओर ऐसे लोगों से होता था जो अपने-अपने क्षेत्र में स्थापित हो चुके थे और सफल थे। मेरे पास दो रास्ते थे कि मैं उनकी प्रशंसा करूं या उनसे ईर्ष्या करूं। मैंने प्रशंसा का रास्ता चुना पर यह भी उसे मुश्किल का अंत नहीं था क्योंकि प्रशंसा का प्रभाव भी एक समय बाद सुखद नहीं रह पाता है क्योंकि वह आसानी से खाने योग्य तो होता है लेकिन पचाया नहीं जा पाता अधिकता के कारण। अब ईर्ष्या अपने आप आ जाती है और ईर्ष्या साधारण नहीं होती है। ईर्ष्या अगर निष्क्रिय व्यक्ति में आती है तो उसे सक्रिय करती कर देती है पर यह अगर सामने प्रशंसित व्यक्ति में आती है तो परेशान करने वाला प्रभाव पैदा करती है। और इसी मानसिक उत्तेजना में रहने के बाद जब हम खड़े होते हैं, तो लड़खड़ाते हैं उस आदमी की भांति जो कि अपनी बीमारी से उठकर खड़े होने की कोशिश कर रहा होता है।
ऐसे समय में बेहद शोरगुल वाली इस दुनिया में खुद को ही उद्योग करना पड़ता है, एक नई चेतना का उदय करना पड़ता है। क्योंकि उस समय दिल, दिमाग और शरीर उस सूखे हुए सेव की भांति होता है जिसमें कोई रस भी नहीं और न ही उसमें सूरज की किरण हो। पर जब नवीन चेतना और आत्मविश्वास आता है तब वह शून्य भरता जाता है, एक नूतन शक्ति हमें मिलने लगती है। ऐसे में इधर-उधर से हाथ खड़े होने लग जाते हैं हमें बैठाने के लिए क्योंकि उनकी दिलचस्पी इसमें होती है कि हम भी औरों की तरह ही बने रहे। यानि शारीरिक बंदी नहीं तो मानसिक तौर पर बंदी बनाए रखने की तैयारी, यानि मुश्किलों पर मुश्किलें आती हैं। ऐसे में महर्षि अरविंद का यह कथन अपने आप याद आता रहा-' भगवान के निषेध भी हमारे लिए उतने ही उपयोगी हैं, जितने उनके अनुमोदन। ‘। क्योंकि तभी हमारे दृढ़ निश्चय की परीक्षा हो पाती है, हमारे आत्मविश्वास की परीक्षा हो पाती है।
आदमी गिरता है, फिर उठता है और हर बार पहले से अधिक शक्तिशाली बनकर उठना ही पड़ता है, क्योंकि जिसने हार को स्वीकार कर लिया, उसने तो खुद को ही मार लिया। इसलिए अपने लिए खुद मार्ग को खोलना भी है और उसे जीतना भी है, सभी स्तरों पर । जरूरत है सिर्फ अपनी अज्ञानता और क्षुद्रता को छोड़ने की, चेतना की सुई को थोड़ा सा आगे बढ़ा देने की। संकल्प से दरवाजे अपने आप खुलने लगेंगे, जीवन की विशालता के, उसके आनंद के। इस किताब को पढ़ते हुए मैंने कई बार खुद को उन परिस्थितियों से भी निकलते पाया है जो इसमें लिखी हैं । किताब विचारों की आवश्यकता से बढ़कर विचारों से वृहद मुक्त आकाश बनाना बताती है, जहां एक ज्वलंत शुभ्र शांति है। बीतते नवंबर माह की शुभकामनाओं के साथ।
(लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं।)