जेनरिक दवाओं के मामले में भारत की गिनती दुनिया के बेहतरीन देशों में होती है। वर्तमान में हमारा देश दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्पादक देश बना हुआ है। हमारा देश हर साल लगभग 42 हजार करोड़ रुपए की जेनरिक दवाएं एक्सपोर्ट करता है। यूनिसेफ अपनी जरुरत की 50 फीसदी जेनरिक दवाइयां भारत से खरीदता है। भारत कई अफ्रीकी देशों में सस्ती जेनरिक दवाइयां भेजता आ रहा है। इससे स्पष्ट है कि भारत में आम जनता के लिए सस्ती जेनरिक दवाइयां आसानी से बनाई व बेची जा सकती हैं।
लोगों को जेनरिक दवाएं दिलाने का एक उपाय यह है कि सरकारी अस्पताल ये दवाएं अपने मरीजों को मुफ्त में दें। जैसे कि राजस्थान के हर सरकारी अस्पताल से मुफ्त दवाइयां दी जाती हैं। करीब 400-500 करोड़ रुपए की योजना के तहत मरीजों को दी जाने वाली ये सारी दवाएं जेनरिक होती हैं। यही फार्मूला अगर देश के हर राज्य में लागू कर दिया जाए तो ब्रांडेड बनाम जेनरिक का आधे से ज्यादा मर्ज यों ही खत्म हो जाएगा। सरकार ने देश में मरीजों को सस्ती व गुणवत्ता युक्त जेनरिक दवाएं उपलब्ध कराने के लिए जन औषधि केंद्र खोले हैं, लेकिन इन केंद्रों में सारी जेनरिक दवाएं नहीं मिलती हैं।
वर्ष 2013 में मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया ने भी डॉक्टरों से जेनरिक दवाएं लिखने को कहा था और यह ताकीद की थी कि ब्रांडेड दवा सिर्फ उसी केस में लिखी जानी चाहिए जब उस का जेनरिक विकल्प मौजूद न हो। इस बारे में संसद की एक स्थायी स्टैंडिंग कमेटी शांता कुमार की अध्यक्षता में बनाई गई थी, जिसने सरकार से कहा था कि वह डॉक्टरों के लिए केवल जेनरिक दवाएं लिखना अनिवार्य करे और इसके लिए जल्द से जल्द कानून बनाए। उसका यह भी कहना था कि देश में पहले से स्थापित दवा कंपनियों में एफडीआई (प्रत्यक्ष विदेशी निवेश) पर पूरी तरह पाबंदी लगाई जानी चाहिए। वर्तमान में हमारे देश में फार्मा सेक्टर में एफडीआई 74 फीसदी है जो कि बहुत अधिक है। देश के मरीजों को मिल रही सस्ती दवाओं के खिलाफ यह एक बहुत बड़ी साजिश है। इसी वजह से देश की जनता को दवाओं की भारी कीमत चुकाने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है। जेनरिक दवाएं मंत्रालय अधीनस्थ प्लांट में बनाई जाती हैं। इसलिए ये बाजार में मौजूद ब्रांडेड दवाओं से 13 गुना तक सस्ती हैं। अन्य क्षेत्रों में एफडीआई में इस वर्ष जो कमी आई है। सरकार को उनका पता लगाकर उन क्षेत्रों में प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को बढ़ाना होगा। इससे भुगतान संतुलन में कठिनाइयों का सामना नहीं करना पड़ेगा और रुपये का अवमूल्यन भी नहीं होगा।
महंगी ब्रांडेड दवाओं की जगह सस्ती जेनरिक दवाओं का चलन बढ़ाने के लिए महाराष्टï्र फूड एंड ड्रग एडमिनिस्ट्रेशन यानी एफडीए ने प्रिस्क्रिप्शन का एक मॉडल फॉर्मेट बनाया है जिसमें डॉक्टरों को दवाओं के ब्रांडेड नाम की बजाय कंटेंट यानी दवाई का नाम लिखने की सलाह दी गई है। मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) द्वारा डॉक्टरों को जेनरिक दवा लिखने के आदेश के बाद से खलबली मची हुई है। एमसीआई ने चेतावनी दी है कि डॉक्टरों ने जेनरिक दवा नहीं लिखी तो उनका लाइसेंस रद्द हो सकता है। आईएमए के राष्टï्रीय अध्यक्ष ने कहा है कि दवा निर्माता पर सख्ती होनी चाहिए। हालांकि जब तक ऐसा नहीं होता, डाक्टरों को इसके लिए बाध्य करना जरूरी है कि वे मरीजों के परचे पर दवाओं के ब्रांड के बजाय उनके जेनरिक नाम ही लिखें। दवा निर्माता कंपनियां एक ही क्वालिटी की दवाई अलग-अलग नाम से बेचती हैं। इससे जेनरिक व ब्रांड के बीच संशय पैदा होता है।
पिछले तीन सालों से अनेक बड़ी दवाई कंपनियां अपनी दवाओं के परीक्षण के लिए अमेरिकी और यूरोपीय प्रयोगशालाओं की ओर रुख कर रही हैं क्योंकि वर्ष 2015 में एक भारतीय रिसर्च कंपनी द्वारा प्रमाणित 700 दवाओं को यूरोप में प्रतिबंधित कर दिया गया था। हमारे देश में परीक्षण का स्तर अभी भी नहीं सुधरा है। हमारा देश नकली दवाओं का तीसरा सबसे बड़ा बाजार है। सरकार को दवाओं के परीक्षण के लिए भी उचित एवं प्रामाणिक व्यवस्था करने की दिशा में ठोस व सार्थक कदम उठाने होंगे।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कहा है कि डॉक्टर केवल जेनरिक दवाएं ही लिखें, लेकिन फिर भी हमारे यहां इस पर अमल नहीं हो रहा हैं। जब तक एफडीआई पर पूरी तरह पाबंदी नहीं लगाई जाती है और जब तक दवा निर्माता कंपनियों पर सख्ती नहीं की जाती तब तक आम जनता के लिए सस्ती जेनरिक दवाइयां आसानी से उपलब्ध नहीं होगी। उम्मीद है कि मोदी सरकार दवा कंपनियों में एफडीआई को कम करने और आम जनता को सस्ती जेनरिक दवाएं आसानी से उपलब्ध करवाने के लिए शीघ्र ही ऐसे उपाय करेगी जिससे दवा कंपनियों की लूट रुक सके।
( लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं)