Rahi Masoom Raza : मेरा नाम मुसलमानों जैसा है...राही मासूम रज़ा

Rahi Masoom Raza : डॉ. राही मासूम रज़ा को फ़िल्म निर्माता व निर्देशक बी.आर. चोपड़ा ने ‘महाभारत’ टीवी सीरियल की पटकथा लिखने को कहा। राही मासूम रज़ा ने इनकार कर दिया।

Written By :  Jyotsna Singh
Update:2022-09-22 08:03 IST

Rahi Masoom Raza (Social Media) 

Rahi Masoom Raza : बात ग़ालिबन 1976 की है। राही मासूम रज़ा लखनऊ आए हुए थे। उन्हें 'मिली' फ़िल्म के लिए सर्वश्रेष्ठ संवाद लेखक का पुरस्कार मिला था। वो किसी होटल में न ठहर कर अपने भांजे नदीम हसनैन के घर पर रुके हुए थे। इमरजेंसी के दौरान कुछ पत्रकारों और लेखकों को छोड़कर सारे लोग उस समय की सरकार की जी हजूरी में लगे हुए थे। 'फिल्म राइटर्स एसोसिएशन' ने भी इंदिरा गांधी और इमरजेंसी के समर्थन में एक प्रस्ताव पास करवाने की कोशिश की। राही मासूम रज़ा अकेले लेखक थे जिन्होंने इसका विरोध किया।

गाजीपुर के गंगोली गांव में 1 सितंबर, 1927 में जन्मे डॉ. राही मासूम रज़ा एक ऐसे रचनाकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए जिनकी रचनात्मक उम्र संस्कृत से उर्दू तक और महाकाव्य से ग़ज़लों तक की रही है। भारतीय संस्कृति को गहराई से पहचानने वाले रज़ा साहब को रचना के लगभग हर क्षेत्र में बेशुमार शोहरत मिली। उपन्यास से लेकर काव्य तक और ग़ज़ल से लेकर फ़िल्म संवाद तक कोई भी ऐसा क्षेत्र नहीं जहाँ रज़ा साहब ने अपनी मज़बूत शैली के साथ हस्तक्षेप न किया हो। महाभारत के कभी ना भुलाए जा सकने वाले डायलॉग आज भी उनकी अद्भुत शैली का रंग बिखेरते हैं।

अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फिल्मों के लिए भी लिखते थे जो उनकी जीविका का प्रश्न बन गया था। राही स्पष्टवादी व्यक्ति थे। अपने धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण अत्यंत लोकप्रिय हो गए थे। यहीं रहते हुए राही ने 'आधा गांव', 'दिल एक सादा कागज', 'ओस की बूंद', 'हिम्मत जौनपुरी' उपन्यास व 1965 के भारत-पाक युद्ध में शहीद हुए वीर अब्दुल हमीद की जीवनी छोटे आदमी की बड़ी कहानी लिखी। उनकी ये सभी कृतियां हिंदी में थीं।

रज़ा साहब लिखते हैं कि -

ऐ आवारा यादों फिर ये फ़ुर्सत के लम्हात कहाँ?  

हमने तो सहरा में बसर की तुम ने गुज़ारी रात कहाँ?

तो दूसरी ओर अपने समाज की त्रासदी पर 'गंगा और महादेव' शीर्षक से कविता में कहते हैं -

मेरा नाम मुसलमानों जैसा है

मुझको क़त्ल करो और मेरे घर में आग लगा दो

मेरे उस कमरे को लूटो जिसमें मेरी बयाने जाग रही हैं

और मैं जिसमें तुलसी की रामायण से सरगोशी करके

कालिदास के मेघदूत से यह कहता हूँ

मेरा भी एक संदेश है।

मिली-जुली संस्कृति के पैरोकार थे रज़ा

राही मासूम रज़ा कट्टरता के सख़्त विरोधी रचनाकार तो थे ही ।लेकिन उनका विरोध अपने अंदर एक मूल्यवान सांस्कृतिक पहचान को समेटे हुए था। वे जानते थे कि सामाजिक कुरीतियों का निवारण हमारी अपनी संस्कृति से ही निकल कर आएगी। इसीलिए न उनसे तुलसी छूट पाए और न कालिदास और इसीलिए वे कालिदास के मेघदूत से महादेव को संदेश पहुँचाने की बात करते हैं। विभाजन से आहत रज़ा साहब हमेशा मिली-जुली संस्कृति के पैरोकार रहे हैं।

यही कारण था कि सिर्फ़ रचना के स्तर पर ही नहीं बल्कि राजनीतिक स्तर पर भी वे सामाजिक समानता के प्रति संघर्षरत रहे। जीवन में संघर्ष को उन्होंने बहुत ही कम उम्र में अनुभव किया था। बचपन में पोलियो की बीमारी के कारण उन्हें पढ़ाई तक छोड़नी पड़ी, लेकिन वे हार मानने वालों में से नहीं थे। उन्होंने फिर से पढ़ना शुरू किया और पी-एच.डी तक की पढ़ाई को पूरा किया। ज़िदगी को आज़माना जैसे रज़ा साहब के बचपने का खेल सा हो गया। इसी तरह वे अपने नज़्मों में भी  जीवन के संघर्ष को बड़े आशिकाना ढंग से पेश करते रहे - 

जहर मिलता रहा,

जहर पीते रहे

जिन्दगी भी हमें आजमाती रही

और हम भी उसे आजमाते रहे।"

जब महाभारत की पटकथा लिखने को इनकार कर दिया

डॉ. राही मासूम रज़ा को फ़िल्म निर्माता व निर्देशक बी.आर. चोपड़ा ने 'महाभारत' टीवी सीरियल की पटकथा लिखने को कहा। राही मासूम रज़ा ने इनकार कर दिया। दूसरे दिन यह ख़बर न्यूज़ पेपर में छप गयी। हज़ारों लोगों ने चोपड़ा साहब को ख़त लिखा कि एक मुसलमान ही मिला 'महाभारत' लिखवाने के लिए ? फिर चोपड़ा साहब ने सारे ख़तों को राही मासूम रज़ा के पास भिजवा दिया। ख़तों के ज़खीरे को देखने के बाद राही मासूम रज़ा ने चोपड़ा साहब से कहा कि :–अब मैं ही लिखूंगा 'महाभारत' की पटकथा, क्योंकि मैं गंगा का पुत्र हूं। राही मासूम रज़ा ने जब टीवी सीरियल 'महाभारत' की पटकथा लिखी तो उनके घर में ख़तों के अंबार लग गए। लोगों ने डॉ. राही मासूम रज़ा की ख़ूब तारीफें की एवं उन्हें ख़ूब दुआएँ दी।

उनके घर ख़तों के कई गट्ठर बन गए। लेक़िन एक बहुत छोटा सा गट्ठर उनकी मेज़ के किनारे सब ख़तों से अलग पड़ा था। उनकी मेज़ के किनारे अलग से पड़ी हुई ख़तों की सबसे छोटी गट्ठर के बारे में वज़ह पूछने पर राही मासूम रज़ा साहब ने ज़वाब दिया कि ये वह ख़त हैं जिनमें मुझे गालियाँ लिखी गयी हैं। कुछ हिंदू इस बात से नाराज़ हैं कि तुम्हारी हिम्मत कैसे हुई मुसलमान होकर 'महाभारत' की पटकथा लिखने की ? कुछ मुसलमान नाराज़ हैं कि तुमने हिंदुओं की क़िताब को क्यूँ लिखा ? राही साहब ने कहा,"ख़तों की यही सबसे छोटी गट्ठर दरअसल मुझे हौसला देती है कि मुल्क में बुरे लोग कितने कम हैं।"

याद रखने की बात ये है कि

आज़ भी नफ़रत फ़ैलाने वालों की 'छोटी गट्ठर'हमारे प्यार -मोहब्बत के 'बड़े गट्ठर' से बहुत छोटी है।

दूरदर्शन और फिल्में

सन 1968 से राही बम्बई रहने लगे थे। वह अपनी साहित्यिक गतिविधियों के साथ-साथ फ़िल्मों के लिए भी लिखते थे जिससे उनकी जीविका की समस्या हल होती थी। राही स्पष्टतावादी व्यक्ति थे। धर्मनिरपेक्ष राष्ट्रीय दृष्टिकोण के कारण वह अत्यन्त लोकप्रिय हो गए थे। मुम्बई रहकर उन्होंने 300 फ़िल्मों की पटकथा और संवाद लिखे तथा दूरदर्शन के लिए 100 से अधिक धारावाहिक लिखे, जिनमें 'महाभारत' और 'नीम का पेड़' अविस्मरणीय हैं।

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