मेरे पिताजी- जिंदगी में बिन्दु से नाद ब्रह्म तक छाया कालजयी वजूद

पिताजी हर चुनौती पर विजय पाने वालों में रहे । हमने उन्हें परेशान होते तो कई बार देखा पर परास्त होते कभी नहीं। वह कहा करते थे,”सत्य परेशान होता है। पराजित नहीं।” क्योंकि हमारे पूर्वजों ने ‘सत्यमेव जयते’ यूँ ही नहीं लिखा है।

Update:2020-04-19 18:41 IST

योगेश मिश्र

लॉकडाउन के इन दिनों में, मैं अपने पुराने काग़ज़ात पलट कर देख रहा हूँ। देख रहा हूँ कि कहाँ कौन सा काग़ज़ रख छोड़ा है। कौन से काग़ज़ कालातीत हो गये हैं। किन काग़ज़ों को झाड़ पोंछ कर रख लेना, सहेज लेना ज़रूरी है। बीते पंद्रह बीस सालों से सभी काग़ज़ों को उलट पलट कर देखने और सहेजने का समय ही नहीं मिला। मेरे पास बीते पंद्रह बीस सालों के अख़बार की कटिंग भी हैं। पढ़ाई के दिनों के नोट्स भी हैं।

लॉकडाउन के बहाने स्मृतियों से छंटती धुंध की परत

अतीत की स्मृतियों को समेटे ऐसे-ऐसे काग़ज़ हाथ लग रहे हैं कि पूछिये मत कि मेरी स्थिति क्या हो जा रही है। मैं हर दो-चार मिनट बाद मतिभ्रम का शिकार हो जा रहा हूँ, किंकर्तव्यविमूढ़ भी हो जा रहा हूँ, पिताजी के पत्र, पत्नी की पाती, बहनों के खत, माँ की चिट्ठी आदि। ज़मीन के काग़ज़। कुटुंब रजिस्टर की कॉंपी। पिताजी के समय के मुक़दमों के दस्तावेज। जिन गाड़ियों को बेच दिया उन सबके काग़ज़ात। इंश्योरेंस के पेपर। बैंक की चेकबुक और पासबुक। कुछ अधूरी कविताएँ, कुछ पूरी। कहानियाँ, लेख, अलग अलग कार्यक्रमों में दिये गये भाषण। न जाने कितने काग़ज़, कितने दस्तावेज, कितने पेपर बिखरे पड़े हैं। सबको समेट रहा हूँ। पर लगता है ईमानदारी से उन्हें समेटने के लिए लॉकडाउन का समय काफ़ी कम है। काग़ज़ छाँटते छाँटते ऊब भी रहा हूँ, थक भी रहा हूँ।

खुशी और वेदना के अहसास

इनको सजाते संवारते ख़ुशी भी हो रही है, वेदना भी। वेदना ज़्यादा पिताजी के कागजातों को देखकर हो रही है। पिताजी की कई चिट्ठियाँ, जिनमें नसीहत भी हैं, निर्देश भी हैं, मेरे कामकाज को लेकर नाराज़गी भी है, पिताजी लंबी लंबी चिट्ठियाँ लिखने के लती थे। उनको हमें छोड़कर गये नौ साल इस बार की तीन मई को हो जाएंगे।

नौ साल बाद उनके सामानों से रू ब रू होने के लिए खुद को तैयार कर पाया हूँ। पता नहीं क्यों उनके न रहने के बाद से ही मैंने उनके सारे काग़ज़ात बंद कर दिये थे। उनके सारे कपड़े आलमारी के ताले में डाल दिये थे। उनकी दवाओं के पर्चे तक हमने रख रखे थे।

मैं अपने जीवन में पिता को सबसे अधिक मानता रहा हूँ, मानता हूँ, बहुत से लोग मानते हैं, मैं मानता हूँ कि हर बच्चे के लिए उसके पिता उसका सबसे बड़ा हीरो होते हैं।

पिता से व्याख्या से परे का, बदलाव रहित रिश्ता

पिता और बेटे के बीच एक अजीब सा एक और रिश्ता भी होता है। जब तक बच्चा नासमझ होता है यानी उसकी उम्र चार पाँच साल की होती है, तब तक वह अपने पिता को बहुत अच्छा समझता है, ताकतवर समझता है। दस साल की उम्र के आसपास उसे लगता है कि नहीं, हमारे पिता की तरह अन्य दोस्तों के पिता भी हैं, लेकिन अठारह बीस साल की उम्र में उसे लगने लगता है कि मेरे पिता एवरेज से भी नीचे हैं, उनसे ऊपर काफ़ी लोग हैं। वह ज़िंदगी में उतना नहीं कर पाये जितना उनको करना चाहिए था।

चौबीस, पच्चीस साल की उम्र में वह सोचना शुरू कर देता है कि पिताजी ने कुछ नहीं किया। वह काफ़ी कुछ कर सकते थे। तीस साल के बाद उसकी सोच बदलती है और वह सोचने लगता है कि नहीं, मेरी जो धारणा थी कि पिताजी ने कुछ नहीं किया वह ग़लत थी। चालीस साल की उम्र में वह पिताजी को लेकर पॉज़िटिव हो जाता है।

वह सोचने लगता है कि पिताजी ने काफ़ी कुछ किया। पैंतालीस साल की उम्र में वह इस नतीजे पर पहुँच जाता है कि पिताजी ने मेरे लिए और परिवार के लिए बहुत कुछ किया। पचास साल की उम्र में वह एकदम पिताजी की तरह हो जाता है। पर मेरे और मेरे पिताजी के बीच उम्र के बदलते बनते रिश्ते नहीं रहे। वह हमारे शुरू से आज तक हीरो थे, हीरो हैं।

पिता का विराट और कर्पूरगौरं का स्वरूप,

मैंने अपने जीवन में पिता जी से ज़्यादा सुंदर सिर्फ़ एक आदमी को देखा था, वह राजीव गांधी थे। पिता जी की सुंदरता का आलम यह था कि कि एक बार जब मैं एमए इलाहाबाद विश्वविद्यालय से कर रहा था, तब पिताजी किसी अपने दोस्त टीचर से मिलने हमारे डिपार्टमेंट पहुँच गये थे, हमारी सहपाठी लड़कियों ने पिताजी को देखा तो बोलने लगीं अगर इतने सुंदर तुम होते तब तुमसे हम लोग शादी करने की सोचते। वे कोसने लगीं तुम न जाने क़िस पर पड़ गये हो।

एक और घटना याद आ रही है। यह बात उन दिनों की है जब इलाहाबाद और गोरखपुर के बीच रेलवे का अमान परिवर्तन हो रहा था, तब बस से यात्रा करनी पड़ती थी। एक बार मैं पिताजी के साथ बस से इलाहाबाद से गोरखपुर जा रहा था, मैं सीट पर बैठा था, पिता जी ब्लैक कलर का ब्लेज़रपहन कर नीचे सिगरेट पी रहे थे, मैं जिस दो वाली सीट पर बैठा था, उसके ठीक आगे वाली सीट पर एक मां बेटी यात्रा कर रही थीं, लड़की ने अपनी माँ से कहा कि माँ देखो कितना सुंदर आदमी है, पिताजी को कभी राज कपूर, कभी किसी अन्य हीरो की तरह बता रही थीं वह। बस चलने को हुई तो पिताजी आकर मेरे बग़ल वाली सीट पर बैठ गये, तब से गोरखपुर आने तक अनगिनत बार पलट कर उस माँ-बेटी ने पीछे देखा होगा।

फिसलते वक्त में मुट्ठी में रेत बांधने की जिद

मैंने पिताजी का सब कुछ सहेज कर रखा था, पर आज लग रहा है, उनके कई पेपर हटा देने चाहिए। 3 मई, 2011 को पिताजी के निधन से महज़ एक सप्ताह पूर्व मैं उनको पीजीआई में भर्ती करा फ़ुलचेकअप करा कर लाया था। वह दिल की बीमारी के मरीज़ थे, चार स्टंट पड़े थे, शुगर काफ़ी समय से झेल रहे थे, उच्च रक्तचाप भी काफ़ी दिनों से था, पर सब ठीक था, अच्छे भले थे, हमें ज्योतिषियों ने बताया था कि 2011 पिताजी के लिए भारी है।

हम यह सोचते थे कि दिल की बीमारी के मरीज़ों के लिए जाड़े का समय ख़राब होता है, मैं खुद को सर्दियों के लिए तैयार कर रहा था। पर पिताजी को मई में और वह भी तीन मई के ख़तरे का बोध था, किसी नेपाली पंडित ने उन्हें बता रखा था, वह परेशान दिख रहे थे, हमें ज्योतिषियों ने बता रखा था कि मेरी उपस्थिति में पिताजी का कुछ नहीं हो सकता, लिहाज़ा मैंने उन्हें गाँव की जगह बटलर पैलेस स्थित अपने मकान में रख लिया था।

तीन मई का खतरा और अंत समय का बिछोह

उन्हें हालाँकि बटलर पैलेस में रहना अच्छा नहीं लगता था, इसे वह जेल कहते थे, उन्हें अपना गाँव बहुत रास आता था, वहीं रहना चाहते थे, तीन मई के दिन अचानक एनेक्सी से एक खबर मिलने की उम्मीद हुई। जाने से पहले मैंने पिताजी से पूछा तो उन्होंने कहा कि हमें साँस में थोड़ी दिक़्क़त हो रही है, गैस का सिलिंडर लगवा दो, मैंने कहा चलिये आपको नर्सिंग होम में भर्ती करवा दूं, पर वह तैयार नहीं हुए, तब मैंने कहा कि आप सुबह से एसी में हैं, एसी में आक्सीजन कम हो जाती है, कमरे की खिड़कियाँ और दरवाज़े खोल लें।

मैंने अपने अग्रज डॉ. पी आर मिश्र को बुलवा कर पूरा चेक अप करवाया। उनके साथ उनके बेटी अमृता का छोटा सा बेटा अनंतश्री पांडेय भी था। अनंत वह अंतिम व्यक्ति रहा जो पिताजी से मिला। आज जब यह लिखते समय पीआर भइया से बात की तो उन्होंने बताया,”पिताजी अनंत से मिलकर बहुत खुश थे। मानो पिताजी उसी का इंतज़ार कर रहे हों।”

अरविंद को मत ले जाना... की अनसुनी की ग्लानि

पिताजी को मैंने बताया कि मैं थोड़ी देर के लिए एनेक्सी तक जा रहा हूँ। उन्होंने कहा अरविंद को मत ले जाना। सब ठीक था। डॉ. मिश्र ने भी हमें आश्वस्त कर दिया था, “ऑल इज वेल।” फिर मेरे मन में पीजीआई से हाल में पिताजी के फुल चेकअप कराने का भरोसा था। नतीजतन, मैं पिताजी की अवहेलना कर अरविंद को लेकर एनेक्सी चला गया। वहाँ पहुँचा ही था कि पत्नी के फ़ोन पर फ़ोन आने लगे, पहले हमने लापरवाही बरती। लेकिन जब कई फ़ोन आये तब मैंने मोबाइल उठाया तो पता चला पिताजी की तबीयत अचानक ख़राब हो गई, वह उन्हें लेकर हास्पिटल जा रही हैं। उस समय मैं शशांक शेखर जी के साथ था। उन्होंने ने सरकारी व्यवस्था को लगाया।

इस बीच मैंने अपने दोस्त डॉ के के सिंह को फ़ोन किया कि एंबुलेंस लेकर घर पहुँचे। मैंने मेडिकल के कामकाज में हमारी मदद करने वाले अशोक बख्शी भाई साहब को फ़ोन करके लारी कॉर्डियोलॉजी आने को कहा, मैं एनेक्सी से बटलर के गेट तक पहुँचा था कि पिताजी जीप में पड़े थे, बेटा गाड़ी चला रहा था, मैं गाड़ी में बैठा, उनका सर कंधे पर लिया, पर सब कहानी ख़त्म हो गई थी। गाड़ी मेरे बेटे आशीष से अरविंद ने ली। गाड़ी में मेरी बहन गुड्डन और गोलू भी थे। बटलर पैलेस के गेट पर पहुँचते पहुँचते केके सिंह भी अपनी एंबुलेंस लेकर पहुँच गये थे।

उन्हें पता था आज न बचूंगा

पिताजी को लारी कार्डियोलाजी लेकर गया तो डॉक्टर ने बाहर से ही मना कर दिया। उसने हमें यह भी कहा कि अगर भर्ती करना पड़ेगा तो डेथ तो हो गई है, हमें उनका शरीर देने से पहले पोस्ट मार्टम करना पड़ेगा। इससे मैं डर गया। के के सिंह की एंबुलेंस से बख्शी जी के साथ हम हताश निराश घर आ गये। मेरे हाथ पिताजी नहीं उनका पार्थिव शरीर था।

घर पर पता चला कि वह साँस में दिक़्क़त पर खुद उठे, कुर्ता पहना, गाड़ी में बैठे। बेटे ने उनकी जीप स्टार्ट करने की कोशिश की पर नहीं हुई। थोड़ी देर बाद स्टार्ट हो पाई। पिताजी बैठे और उठ नहीं पाये। मेरी बेटी चारू ने बताया कि बाबा पूरे दिन मिठाई माँग कर खाते रहे। मैंने कहा कि तबीयत ख़राब हो जायेगी। शुगर बढ़ जायेगा। तो उनका जवाब था,” आज बचूँगा तब न।” “आज बच गया तो छह साल और जीवित रहूँगा।”

तीन साल अकेले न सो पाने की पीड़ा

पिताजी के प्रयाण के बाद मैं अपराध बोध से बुरी तरह ग्रसित हो गया। काश मैं एनेक्सी नहीं जाता। काश अरविंद को न ले जाता। यही वजह थी कि तीन साल तक मैं अकेले सो नहीं पाता था। मुझे पिताजी की याद लगातार परेशान करती रहती थी। अपनी पूरी ज़िंदगी में मैंने कभी पिताजी को समय नहीं दिया। कैरियर के पीछे भागता दौड़ता रहा। मेरी कमी वो मेरे बेटे से पूरी करते थे। जब बेटा छोटा था तब घोड़ा बनकर पूरे घर में उसे पीठ पर बैठाकर घूमते फिरते थे। मेरे बारे में मेरे निकट के दोस्तों से पूछते थे। आदि आदि ।

आज जब उनके काग़ज़ पलट रहा हूँ तो पीजीआई का कार्ड और तमाम डॉक्टरों के हाथ की पर्चियाँ, ब्लड टेस्ट की रिपोर्ट, तमाम अन्य जाँचों की रिपोर्ट के पेपर पिताजी के होने को एक बार फिर ताज़ा कर रहे हैं। उनकी दवा पीजीआई में डॉ सुशील गुप्ता के हवाले थी। साल में कम-से कम दो बार भर्ती करा कर चेकअप कराने के नाते उन्हें पीजीआई का तमाम स्टाफ़- डॉक्टर, नर्स आदि पहचानते थे। पीजीआई में वैसे चेकअप कराना बहुत मुश्किल काम है।

गिरिराज प्रसाद की बेगैरत भरी बात पर भड़क उठे थे पिताजी

पिताजी आबकारी विभाग में काम करते थे। उनके कई विभागीय पेपर भी मेरे काग़ज़ों का हिस्सा हैं, एक आईएएस अफ़सर गिरिराज प्रसाद वर्मा हुआ करते थे, वह कुछ दिनों के लिए आबकारी आयुक्त हो गये थे। वह हर अफ़सर से वसूली करते थे। समय भी मायावती के मुख्यमंत्री काल का था। वर्मा पहले आदमी मेरी जानकारी में रहे जिन्होंने अपनी पत्नी की टाइटिल लगा ली थी। वर्मा उनकी पत्नी थीं।

गिरिराज प्रसाद ने पिताजी को बुलवाया और कहा कि महीने में हमें भी पैसा दिया करो। पिताजी ने कहा साहब मैं सेना से नौकरी कर के आया हूँ, मैं न ईमानदार हू, न ही बेईमान। मैं किसी से पैसे नहीं माँग पाता। जो मिल जाता है रख लेता हूँ, मैं आपके लिए बेईमानी करने को तैयार नहीं हूं।

गलत तरीके से किया पिता जी को परेशान

यह उत्तर किसी आईएएस अफ़सर के लिए सुनना उसकी प्रतिष्ठा के ख़िलाफ़ है। गिरिराज भी आईएएस ही थे। उन्होंने पिताजी को एक साल में तीन प्रतिकूल प्रविष्टि दी। और पचास साल की आयु पूरी होने के बाद सरकारी कर्मचारियों के सेवानिवृत्त करने का एक जो प्रावधान है, उसके तहत अनिवार्य सेवानिवृत्ति दे दी। जबकि इसके पहले और इसके बाद उनकी कोई प्रविष्टि उत्कृष्ट से कम कभी नहीं रही।

परिवार के लिए संकट का एक नया और बेहद कठिन काल शुरू हो गया। दो बहनों की शादी करना था। तीन बहनों की शादी पिताजी कर चुके थे। उन दिनों सत्यनारायण रेड्डी उत्तर प्रदेश के राज्यपाल थे। मेरा परिचय रवि रॉय जी से था। वह समाजवादी नेता थे। लोकसभा के स्पीकर भी रह चुके थे। किसी ने हमसे बताया कि रेड्डी जी रवि राय के यहाँ रहते थे। दोनों में अटूट रिश्ते हैं। रवि राय से फ़ोन करवा कर मैं रेड्डी जी से मिला। पर कुछ हो नहीं पाया। राहत नहीं मिल पाई। यह पहला दौर था जब मैं पिताजी को हताश व निराश पा रहा था। वह बैठे बैठे रोने लगते थे।

कोर्ट से मिली राहत हुए बहाल

आबकारी विभाग ज़रूर पिताजी की मदद कर रहा था। ए.के.सिंह उन दिनों इंस्पेक्टर एसोसिएशन के अध्यक्ष थे, उन्होंने भी गिरिराज प्रसाद के ख़िलाफ़ फ़्रंट खोल दिया। पर हम लोगों को राहत मिलने वाली नहीं थी। रवि राय के मास्टर स्ट्रोक के फेल होने के बाद मैं भी निराश होने लगा। उन दिनों मैं गोरखपुर के एक ज्योतिषी कृष्ण मुरारी मिश्र जी के संपर्क में था। उनके पास गया। उन्होंने पिताजी की कुंडली देखी। उनके पास घर के सभी सदस्यों की कुंडली थी। कुंडली देख कर उन्होंने बताया कि हम लोग कोर्ट जायें। वहीं से राहत मिलेगी। उनकी सलाह के बाद इलाहाबाद में एक उमाकांत मिश्र नाम के वकील के मार्फ़त याचिका दायर की गई।

दूसरी सुनवाई पर जस्टिस मार्कण्डेय काटजू ने गिरिराज प्रसाद वर्मा को पिताजी के अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को निरस्त कर जहां तैनात थे, वहीं तैनात किये जाने के आदेश सहित अदालत में उपस्थित होने को कहा। दिन फिर गये। ज्योतिष पर मेरा विश्वास बढ़ा। मैंने बाद में रोहित नंदन जी और कश्मीरा सिंह की मदद से गिरिराज को आबकारी आयुक्त के पद से हटवाने में कामयाबी हासिल की।

पर इस केस का फ़ैसला पिताजी के वर्ष 1999 में सेवा निवृत्ति के सात साल बाद 2006 में आया। जिसमें पिताजी को दो प्रोन्नति देने के साथ अनंतिंम भुगतान की जगह फ़ाइनल पेमेंट करने को कहा गया। ये सारे काग़ज़ सिलसिलेवार मेरे पास हैं।

यादव जी ने पिताजी की पेंशन बंधवाने में की थी मदद

मैंने उनके न रहने के बाद उनके पासपोर्ट, पैन कार्ड, वोटर कार्ड, आधार कार्ड सब संबंधित विभागों में जमा किया। रिसीविंग ली। वोटर कार्ड जमा करने गया तो कुशीनगर के निर्वाचन विभाग के दफ़्तर ने एक तो लेने से मना किया दूसरे उसे लगा कि यह किसी साज़िश का हिस्सा है, नतीजतन स्टाफ़ ऑफिस छोड़कर भाग गया, ख़ैर ज़िलाधिकारी के हस्तक्षेप के बाद वह जमा हो पाया।

पिताजी के न रहने के बाद पेंशन माँ के नाम करवाने के लिए मैं ट्रेजरी ऑफिस गया, वहाँ एक यादव जी तैनात थे, उनको बताया की मैं पीसी मिश्र का बेटा हू, पिताजी नहीं रहे, पेंशन माँ के नाम करवाना है, क्या करना पड़ेगा। उन्होंने दो-तीन काग़ज़ दिये। पिताजी की याद में तारीफ के कई वाक्य कहे और बताया कि आप इन काग़ज़ों पर दस्तखत करवा कर लायें मैं कर दूँगा। यह पहला विभाग था जहां हमें कोई दिक़्क़त पेश नहीं आई।

पर यह बात आप सबके साथ शेयर करना ज़रूरी है कि यही यादव जी जब सेवानिवृत्त हुए तो उनकी पेंशन बनाने के लिए उनकी जगह आया अफ़सर उनसे रिश्वत की उम्मीद कर रहा था। माँ कीं पेंशन बनाने के बाद मेरा उनसे रिश्ता हो गया था, उन्होंने अपनी व्यथा सुनाई मैंने तत्कालीन ज़िलाधिकारी से पूरी कथा सुनाते हुए आग्रह किया तब जाकर यादव जी की पेंशन बन पाई।

मां को भी लगता है इन कागजातों को रखने का क्या मतलब

पिताजी की मार्कशीट, उन्होंने कहाँ कहाँ नौकरी की है, सारे पेपर मेरे पास सहेज कर पड़े हैं, घर के लोगों, यहाँ तक कि माँ को भी यह लगता है कि इनके रखने का मतलब क्या है? पत्नी ने भी उनके पॉकेट के 3500 रुपये, उनका मोबाइल और उनका चश्मा सहेजकर बक्से में रखा है, बताती हैं कि संकट के क्षणों में देखती हूँ। ताकत मिलती है। माँ ने पिताजी के सारे कपड़े एक बार मुझसे बिना पूछे और जानकारी के आलोक से मिलकर ग़रीबों में बँटवा दिये। मेरे पूछने पर कह दिया कि ख़राब हो रहे थे।

पर मैं नौ सालों से इन कागजातों को फेंकने का फ़ैसला नहीं कर पा रहा हूँ। पिताजी ने गोरखपुर विश्वविद्यालय से एम.ए. करने के बाद गोरखपुर के ही महाराणा प्रताप इंटर कालेज में हिंदी पढ़ाई। इसी कालेज के प्रबंधक योगी आदित्यनाथ इन दिनों यूपी के मुख्यमंत्री हैं। यहाँ से वह सेना में चले गये। जहां एनसीसी का काम मिला। फिर फ़ैमिली प्लानिंग में इलाहाबाद में नौकरी की। फिर आबकारी विभाग में इंस्पेक्टर बने। पहली तैनाती बागपत शुगर मिल में रही। अंतिम तैनाती उनकी बस्ती में रही।

जब मैं गोरखपुर विश्वविद्यालय में बीए करने गया तो पिताजी ने हमें के.पी. मिश्र, प्रभाशंकर पांडेय और विश्वनाथ प्रसाद तिवारी के नाम पत्र दिया था। के.पी. मिश्र, उन दिनों मध्यकालीन इतिहास विभाग में थे, से मिलकर अच्छा नहीं लगा। विश्वनाथ प्रसाद तिवारी जी से अभी भी मेरा रिश्ता चलता है। उन्होंने मेरी आने वाली कविता की किताब ‘कॉलेज की लड़कियाँ‘ में मुझे आशीष दिया है। इन दिनों ही नहीं काफ़ी लंबे समय से वह हिंदी साहित्य के देदीप्यमान नक्षत्र बने हुए हैं।

राजकपूर भी प्रभावित हुए थे पिताजी की प्रतिभा से

पिताजी अपने समय में नाटकों में अभिनय करते थे। उन्हें कई नामचीन पुरस्कार भी मिल चुके थे। आकाशवाणी से उनके कई नाटकों का प्रसारण हो चुका था। उनके साथ गिरीश रस्तोगी, हरिश्चंद्र माथुर थे, जो बाद में भी इसी विधा में रहे।

गिरीश रस्तोगी ने बहुत नाम भी कमाया। माथुर चाचा से भी गोरखपुर में अपने प्रवास के दौरान मिलना जुलना हुआ करता था। अब तो उनका भी निधन हो गया। कहा जाता है कि नाटकों में काम करने के चलते फ़िल्मों में टैलेंट हंट प्रतियोगिता में उन्हें राजकपूर ने मौक़ा देने के लिए बुलाया भी था।

माँ बताती हैं कि पिताजी मुंबई जाने को तैयार थे, आरक्षण हो गया था। उन्होंने अपने लिए सारे सामान ख़रीद लिये थे। पिताजी सिगरेट बहुत पीते थे लिहाज़ा उन्होंने सिगरेट के कई पैकेट भी ख़रीद लिये थे। पर माँ नहीं चाहती थी कि वह जायें। उन्होंने अपने समर्थन में दादी को किया और दादी गोरखपुर आ धमकीं। उन्होंने कहा कि बाबा नाराज़ हैं नाचने गाने का काम आदमी के लिए करना ख़ानदान के लिए बेइज़्ज़ती का काम है। दादी ने यह भी कहा कि वहाँ जाकर दूसर बियाह क लेब हमार लइका बच्चा बिला जइहें । फिर दादी एक महीना टिक गई।

फिर से सहेज लिया है कागजातों को

काग़ज़ों में पिताजी की कुंडली भी है। पहली बार पता चला कि उनका जन्म जून महीने की 12 तारीख़ को हुआ था। वह कभी जन्मदिन तो मनाते नहीं थे। माँ भी इसका ज़िक्र नहीं करती हैं।

ये सारे काग़ज़ात मेरे मतलब के अभी हैं, मेरे मतलब के अब नहीं भी हैं। यह मेरा असमंजस है। यही मेरी दुविधा है। यही मेरी परेशानी है कि इन्हें सहेज कर रखूँ या फिर समय के हवाले कर दूँ। कई बार सोचता हूँ कि पिताजी जी नहीं रहे तो इन काग़ज़ों को क्यूं रखूँ। यह कई दिन से हमें परेशान कर रहा है।

लेकिन अंत में थक हार कर उनके कई काग़ज़ों को हटाने का फ़ैसला करना पड़ा। कई काग़ज़ों को फिर भी सहेज कर रख लिया हूँ। जिनको हटाया है उनमें से तमाम को स्कैन करके कंप्यूटर में रख सहेजा है। पिताजी इन काग़ज़ों के बहाने एकदम सामने खड़े मिलते हैं। कई बार नसीहत देते, कई बार नाराज़ होते, कई बार समझाते, कई बार ताक़त देते। पिताजी के बारे में सोचता हूँ तो संसार के मिथ्या और माया होने का भान सच हो उठता है।

संसार के मिथ्या और माया होने का भान सच हो उठा

जीवन में तमाम दुख और अनंत सुख होते हैं। हर दुख हर आदमी के लिए अलग अलग भारी पड़ता है। हमें संसार का सबसे बड़ा और भारी दुख लगता है किसी अपने की चिंता को अग्नि देना। किसी अपने ज़िसे खुद सरीखा, कई बार खुद से ज़्यादा चाहते हों उसकी अंत्येष्टि करना सबसे भारी और सबसे बड़ा दुख है। इस दुख को हमने जिया बनारस के मणिकर्णिका घाट पर पिताजी की चिता को अग्नि देते समय। जिसे मैं अपनी ज़िंदगी का सबसे सुंदर शख़्स समझ रहा था, उसके पार्थिव शरीर को जलाना और जलते हुए हमें देखना था।

यह भी समझ में नहीं आया कि पिताजी की अंत्येष्टि बनारस में की जाए यह विचार कब और कहाँ से आया। बस पी.आर. भाई साहब ने कहा हम तैयार हो गये। गाँव के लोगों के लिए गाड़ी बनारस पहुँचने के लिए भेज दी गयी। वे सब सीधे पहुँच गये। सरकारी तौर पर मुख्यमंत्री के यहाँ काम करनेवाले अपने मित्र शशांक शेखर, जो अब इस दुनिया में नहीं रहे, को बताया उन्होंने बनारस के पुलिस प्रशासन को कहा।

चांस की बात थी वहाँ पुलिस कप्तान के रूप में लालजी शुक्ल तैनात थे। लालजी शुक्ल मेरे सहपाठी भी रहे हैं। मेरे पिता की बात सुनकर वह पूरे समय मेरे साथ रहे। अंत्येष्टि के बाद गंगा स्नान के बाद पंडित ने जो तर्पण कराया उसमें प्रेत शब्द को उच्चारित करने में मैं अंदर से निचुड़ सा गया। शरीर मशीन की तरह क्या क्या करता रहा, पता ही नहीं लगता रहा। अंत्येष्टि के बाद गाँव से बनारस आये बंधु बांधवों के साथ मैं गाँव चला गया।

विधवा माँ नहीं होती पत्नी होती है

माँ, मेरी पत्नी, बच्चों और बहनों के साथ सीधे घर गईं। मैंने गाँव पर भाभियों को फ़ोन कर कह दिया था कि मंमी की चूड़ियाँ न तोड़ीं जाएं। सफ़ेद साड़ी न पहनायी जाए। सिंदूर न पोछा जाए। हमें महिलाओं के पति के निधन के बाद वैधव्य की परंपरा बिल्कुल पसंद नहीं। पति की मृत्यु के साथ पत्नी को ज़िंदा लाश बनाना हरगिज़ अच्छा नहीं लगता रहा है। वैसे भी विधवा माँ नहीं होती पत्नी होती है। फिर जो स्त्री अब सिर्फ़ माँ बच गई हो उसे निर्मम ढंग से विधवा बनाना ग़लत है। उचित नहीं है। माँ गाँव हमसे पहले पहुँच गईं। हम लोग बनारस से देर से पहुँचे।

आंधी तूफान, पंडित भाग खड़ा हुआ पर नहीं बुझा दीप

गाँव पर पूरे शास्त्रीय विधान से हमने पिताजी की तेरहवीं की। ब्राह्मण भोज के समय जो आये थे, उन्हें दान पुण्य के बाद पैर दबाने और हाथ से दही खिलाने के लिए बंधु बांधव कहने लगे। पर मेरा मन तैयार नहीं हुआ। मैंने यह कहते हुए प्रस्ताव ठुकरा दिया कि मैंने अपने पिता का पैर दबाने का पुण्यकर्म कभी नहीं किया है। कभी उन्हें अपने हाथ से कुछ नहीं खिलाया है, इसलिए यह सब नहीं करूँगा।

एक दिन पिंड दान वाली पूजा के समय भारी आँधी पानी आ गई। दीपक जला कर पूजा चल रही थी। पंडित भाग गये। पर मैं उठने को तैयार नहीं था। संतोष और रामसरन कहीं से प्लास्टिक लेकर आये और दोनों ओर पकड़ कर खड़े हो गये। मैं बैठा रहा। भगवान से प्रार्थना करता रहा। दीपक नहीं बुझा। आँधी पानी ख़त्म हुआ तब जाकर फिर से पूजा शुरू हुई।

सब कुछ ऐसे लिखा जैसे मृत्यु का भान हो

गाँव जाकर उन अशुद्धि के दिनों में सुबह से शाम तक पिताजी के लोगों से मिलता। उनसे पिताजी की बातें सुनता। उनके कागजों को उलटता पलटता। क्योंकि हमें तो गाँव के बारे में कुछ पता ही नहीं था। पिताजी का एक रजिस्टर मेरे हाथ लगा जिसमें उन्होंने सिलसिलेवार सब कुछ लिख छोड़ा था। कितने खेत हैं, कहाँ कहाँ हैं, उसकी चौहद्दी पर किसके किसके खेत है। मुक़दमा कहाँ कहाँ चल रहा है। किस मुकदमें की क्या नवइयत है। पैसे कितने किस खाते या फ़िक्स डिपाजिट में हैं। उनकी पिस्टल कहाँ और लाइसेंस कहाँ है। यह रजिस्टर मुझे पिताजी के समूचे साम्राज्य के बारे में पूरी इत्तिला दे रहा था। पूरा रजिस्टर देखने के बाद मैं इस नतीजे पर पहुँच गया कि इसे वहीं आदमी लिख सकता है ज़िसे अपने मृत्यु का भान हो।

दो पीढ़ियां खत्म होते देखना

इसके बाद हमें लगा कि दुनिया का सबसे बड़ा सुख यह है कि आपको अपने किसी प्रियतम की अंत्येष्टि न करनी पड़े। जिसे यह पूरे जीवन यह न करना पड़े उसे खुद को भाग्यशाली मानना चाहिए। पिताजी को यह नहीं करना पड़ा। उनके पिता फिर माता का देहांत हुआ तो बड़े भाई हरिश्चंद्र चाचा ने अंत्येष्टि की। पिताजी चार भाईयों में सबसे छोटे थे। हरिश्चंद्र चाचा के बाद कैलाशचंद्र फिर लालेद्र कुमार थे। कैलाश चाचा का निधन 2 मार्च,2002 को हुआ। लालजी चाचा का देहांत 17 अक्टूबर,2015 को हुआ। हरिश्चंद्र चाचा का निधन 3 दिसंबर, 2000 को हुआ। आज इनमें से कोई नहीं है। हमने अपने सामने दो पीढ़ियां ख़त्म होते देखी हैं।

परेशान होते तो कई बार देखा पर परास्त होते कभी नहीं

माँ को पिताजी मेरे हवाले छोड़ गये हैं। पिताजी सचमुच भाग्यशाली थे। वह बजरंगबली की पूजा करते थे। उनके अनन्य भक्त थे, मंगलवार को ही उनका निधन हुआ। रिटायर होने के बाद शहर में रहने की जगह उन्होंने गाँव में रहना पसंद किया। जब वह रिटायर हुए थे तब सेवानिवृत्ति की आयु 58 वर्ष थी। उन्होंने अपने पूरे जीवन में मेरे एक भानजे की अकाल मृत्यु के अलावा कोई अप्रिय समाचार नहीं सुना। न ही जिया। वह हर चुनौती पर विजय पाने वालों में रहे । हमने उन्हें परेशान होते तो कई बार देखा पर परास्त होते कभी नहीं। वह कहा करते थे,”सत्य परेशान होता है। पराजित नहीं।” क्योंकि हमारे पूर्वजों ने ‘सत्यमेव जयते’ यूँ ही नहीं लिखा है।

असीम दुख के क्षणों में जो शब्दों की अहमियत

पिताजी के निधन पर सबसे पहले मेरे घर आकर सांत्वना देने वालों में कलराज मिश्र जी रहे। फ़ोन पर सबसे पहले रामगोपाल यादव जी ने शोक प्रकट किया। डॉ. मुरली मनोहर जोशी जी ने जो कहा वह किसी संतप्त आदमी के लिए नि:संदेह ढांढस देने वाला कहा जायेगा। उन्होंने कहा, “तुम भाग्यशाली हो ४०-४२ साल से अधिक समय अपने पिता के साथ रह लिये। मैं तो बहुत छोटा था तभी पिताजी हम लोगों को छोड़कर चले गये। हमें तो उनका चेहरा भी याद नहीं।”

गांव से लखनऊ लौटने के बाद बहुत दिनों तक उस घर में रहने की इच्छा ही नहीं हुई, जहां पिताजी के पार्थिव शारीर को लाकर हमने रखा था, जहां वे लिटाये गए थे, वहां से गुजरना बहुत मुश्किल हो गया था । जिस कमरे में वे अंतिम दिन थे, उस कमरे में जाना मेरे लिए मुश्किल था। मैं मानसिक रूप से इतना परेशान था कि घर की चहारदिवारी से बाहर भी नहीं जा सकता था। सोचता था कि जाऊं तो जाऊं कहां। कोई अपना नहीं दिखता था। पूरा का पूरा दिन अपने बेडरूम और ड्राइंगरूम के बीच काट देता था।

मेरे एक मित्र एस पी गोयल, शशांक शेखर सिंह के साथ थे। एक दिन अचानक घर आ गए। मेरी हालत देखने के बाद उन्होंने मुझे पैंट शर्ट पहनने को कहा। अपने साथ अपने ऑफिस ले गए। पहले पूरे दिन मैं गुम-सुम बैठा रहा। शाम को घर जाते समय उन्होंने मुझे मेरे घर छोड़ दिया। यह सिलसिला एक हफ्ते तक चला। रोज वो मेरे घर आते और शाम को मुझे मेरे घर छोड़ जाते। उनकी कोशिशों से मैं काम के ट्रैक पर दौड़ने लायक बन गया। उस शोक के समय और बाद में मेरे तमाम दोस्तों ने हमें बहुत ताक़त दी। बहुत साथ दिया। उनका मेरे जीवन में अलग स्थान है। और रहेगा।

(लेखक-अपना भारत/न्यूजट्रैक के सम्पादक हैं)

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