वो बांटते रहेंगे, हम बंटते रहेंगे
इन दिनों एक स्लोगन खूब वायरल हुआ है। "बंटोगे तो कटोगे।" यह एक मायावी स्लोगन है। मतलब सबके लिए अलग अलग हैं। जिसकी जो समझ आये वो समझ ले। अब तो इसी से मिलते जुलते और भी स्लोगन मार्केट में आ गये हैं।
नारे या स्लोगन, कब कौन सा हिट हो जाये और कहां फिट हो जाये, कहा नहीं जा सकता। समूचा विज्ञापन जगत इसी पर चलता है। किसी जमाने में चुनावी मौसम के नारे दलों और नेताओं की फिज़ा बना भी देते थे और बिगाड़ भी देते थे। इन दिनों एक स्लोगन खूब वायरल हुआ है। "बंटोगे तो कटोगे।" यह एक मायावी स्लोगन है। मतलब सबके लिए अलग अलग हैं। जिसकी जो समझ आये वो समझ ले। अब तो इसी से मिलते जुलते और भी स्लोगन मार्केट में आ गये हैं।
पुरानी मिसालें
बहरहाल, मसला बंटने का है। यानी वही पुरानी मिसालें कि एकता में शक्ति है। एक डंडी टूट जाती है पर गट्ठर नहीं टूटता। खुला हाथ कमजोर, बन्द मुट्ठी बेजोड़। बंट गए तो खत्म हो गए। संगठन में ही शक्ति है। वगैरह वगैरह। बचपन से ये मिसालें सुनते आए हैं। लेकिन असलियत में माजरा कुछ और ही नजर आता है, कुछ और ही सिखाया जाता है, कुछ और ही दिखाई देता है। जो दिखाई देता है वहां सब बंटा हुआ है। सब बिखरा पड़ा है।
अब जातियां ही देखिए। भारत में जातियों की कोई कमी नहीं। एकता में शक्ति तो है परंतु जातियां सब अलग अलग। बंटेंगे तो कटेंगे का नारा जातियों के बंटवारे पर आज तलक सुनने में नहीं आया। बल्कि जातियों को माइक्रोस्कोपिक लेवल तक बांट - काट ही दिया गया। इलाकेवार - राज्यवार इतनी इतनी जातियां, कि सर चकरा जाए। जाति के अंदर जाति और उसके आगे उपजाति। ऐसी ऐसी उपजातियां ढूंढ ढूंढ कर निकाल लीं हैं जिनके बारे में शायद ही कोई जानता था। इनसे किसी और को फायदा मिला हो चाहे न ही लेकिन जातियों के नेताओं ने अपना काम पूरी शिद्दत से किया कि जातिवालों के वोट न कटने पाएं, वो आपस में जुड़ने न पाएं। जातियों में काटने - बांटने की कसर तो जाति की गिनती में निकलेगी। युद्ध के लिए बाहरी आक्रांताओं की जरूरत नहीं पड़ेगी, जातियों के संघर्ष सब पे भारी पड़ेंगे।
बंटवारे में उलझे
इसी बंटवारे का नतीजा है कि आज़ाद हुए 77 साल होने को है पर हम रिज़र्वेशन के बंटवारे में उलझे हुए हैं और उसका कोई अंत नजर नहीं आता। तब जब की रिज़र्वेशन देते समय भीमराव अंबेडकर जी ने उसे दस साल के लिए रखा था। दस साल बाद समीक्षा होनी थी। समीक्षा तो छोड़िये। ओबीसी, दिव्यांग, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी आश्रित, आर्थिक रुप से कमजोर वर्ग में भी आरक्षण की रेवड़ी बाँट दी गयी। प्रमोशन में रिज़र्वेशन कर दिया गया। मतलब, रिजर्वेशन और भी बढ़ा कर बंटने बांटने को अलग ही लेवल पर पहुँचाने के इरादे जगजाहिर हैं।
एससी, एसटी, ओबीसी, अगड़ा - हर तरह से हम बंटे हुए हैं। जोड़ने की बजाए एक दूसरे से काटने को खूब खाद-पानी देने का सिलसिला जारी है, फिर भी तुर्रा है कि बंटोगे तो कटोगे।
बंटे तो हम इलाकों और क्षेत्रों में भी हैं। उत्तर - दक्षिण का जुड़ाव और एका होने की बजाए कटाव ही बना हुआ है। बंटवारे की खाई को पाटने के लिए आज तक कोई नहीं बोला कि बंटोगे तो कटोगे। उल्टे, इस खाई को जमकर चौड़ा करने में ही लगे पड़े हैं। दो तरह की दुनिया है जिसमें सब कुछ साफ साफ बंटा नजर आता है। यही नहीं, इस क्षेत्रीय बंटवारे का सबसे खराब मंजर नॉर्थ ईस्ट और शेष भारत का है। आलम ये है कि एक देश-एक राग के बावजूद नॉर्थईस्ट के सात राज्यों के नाम तक हम बंटे हुओं को नहीं पता। वहां के बाशिंदे जो हमारी राजधानी दिल्ली में रहते हैं, जरा उनसे पूछिये कि उन्हें जब कोई चीनी समझता है तो कैसा लगता है। और उनमें कितना जुड़ाव पैदा होता है।
महिलाओं की रक्षा सुरक्षा
हम स्त्री पुरुष समानता के अलमबरदार हैं। स्त्रियों को बराबरी का हक दिया है, हर क्षेत्र में उनको जगह दी है, आगे बढ़ाया है। लेकिन अब वहां भी काटने का पलीता लगता दिखता है। महिलाओं के हक की रक्षा का जिम्मा लिए महिला आयोग को महिलाओं की रक्षा सुरक्षा में नए आयाम जोड़ने की सूझी है। इरादा बताया है कि महिलाओं के दर्जी, जिम ट्रेनर, ब्यूटीशियन, डांस ट्रेनर वगैरह सब महिला ही होने चाहिए। इससे सुरक्षा पुख्ता होगी।
शायद अगली सूची में महिलाओं के लिए महिला चूड़ीवाले, महिला टैक्सी ड्राइवर, रेस्तरां में महिला कुक, हर बीमारी के लिए महिला डॉक्टर, मेहंदी लगाने के लिए महिला ... आदि इत्यादि को शुमार कर दिया जाए। ये है महिला शक्तिकरण और महिला समानता की सोच और सूझ। वो तो गनीमत है कि देश में पुरुष आयोग नहीं बना है, नहीं तो अब तक न जाने क्या क्या इरादे जाहिर कर दिए जाते। पुरुषों के लिए पुरुष नर्स, फ्लाइट में पुरुष एयर होस्ट, बाजार में पुरुष दुकानदार ... वगैरह। क्या मंजर होता। एक पुरुष दुनिया और एक महिला दुनिया। कोई सम्पर्क नहीं। सब अलग अलग। सब बटेंगे। पुरुषों के बराबर महिलाएं लेकिन दोनों की दुनिया अलग अलग।
क्या उत्तम विचार है। किसी को गलत काम करने से रोक सकते नहीं, समाज बदल सकते नहीं, कानून का डर भर सकते नहीं। सो उपाय आसान है। सबको चारदीवारी के अंदर कर दो। कोई बाहर निकलना चाहे तो लिख कर दे कि अपनी जिम्मेदारी पर निकल रहा है। लक्ष्मण रेखा खींच दी जायेगी, जो बाहर निकले वो अपनी खैर जाने। कितना सरल उपाय है।
जुड़ना भी आसान
गलती किसकी बताएं, शिकायत भी किसकी करें? जब हम ही बंटने, कटने को राजी हैं तब फायदा तो कोई न कोई उठाएगा जरूर ही। अफसोस तो इस बात का है कि इतना ज्यादा काट - बांट - छांट दिया गया है कि जुड़ना भी आसान नहीं दिखता। सिर्फ दुआ ही करिए कि सद्बुद्धि आये और सिर्फ जुड़ने की ही बात समझ आये।जो बंटने कटने की नसीहत दे रहे हैं। उनकी नीति व नियत ठीक रहे।
(लेखक पत्रकार हैं ।)