पतंजलि योगपीठ के आचार्य बालकृष्ण बीमार क्या हुए, आयुर्वेद की चतुर्दिक लानत-मलानत शुरू हो गई। जो चिकित्सा पद्धति हमारे देश के स्वास्थ्य का आधार रही हो, उस आयुर्वेद को निशाना बनाना आखिर कितना उचित है? यह न केवल अज्ञानता का प्रदर्शन है, वरन इसे एलोपैथी के हिमायतियों की एक लामबंद कोशिश कहा जाए तो गलत न होगा। योगाचार्य स्वामी रामदेव के सहयोगी और पतंजलि योगपीठ की उत्पादक कंपनियों के प्रमुख बालकृष्ण के बीमार होकर एम्स में भर्ती होने को लेकर जहां कांग्रेस के लोग यह कहते हुए उनका मजाक बना रहे हैं कि आखिरकार नेहरू के बनाए एम्स में भर्ती हो ही गए बालकृष्ण। तंज में ही सही, उनकी इस बात को मानसिक दरिद्रता का प्रदर्शन ही कहा जाएगा। पंडित नेहरू या दूसरे नेता जो देश-प्रदेश के मुखिया रहे, अगर वह कोई संस्थान बनाएं तो क्या उन्होंने निजी धन से संस्थान बनाया है। वह तो देश का और देश की जनता का पैसा है। इसलिए यह कहकर बालकृष्ण की आलोचना करने वालों निंदा हो तो अनुचित क्यों?
यह सही है कि स्वामी रामदेव पतंजलि के जरिए आयुर्वेदिक दवाओं और दूसरे उत्पादों का धंधा कर रहे हैं। रामदेव की मार्केटिंग प्लानिंग ने पहले से जमी जमाई देशी-विदेशी कंपनियों का मार्केट खराब कर दिया है, इसलिए वह उनसे खार खाए बैठी हैं। कुछ लोग रामदेव की यह बात कि ‘एलोपैथ पश्चिम का षडय़ंत्र है और आयुर्वेद के पास हर मजऱ् का इलाज है।’ को कोट करके आयुर्वेद की आलोचना कर रहे हैं। यह सब बोलने से पहले वह एक बार भी नहीं सोचते कि वैद्यों की जानकारी में कमी हो सकती है, पतंजलि या दूसरी कंपनियों की दवाओं में कमी हो सकती है लेकिन आयुर्वेद में कैसे। जिस चिकित्सा पद्धति से यह देश अजर-अमर है, उसे खारिज करना, उसकी लानत-मलानत करना देश के ज्ञान-विज्ञान और चिकित्सा शास्त्र को खारिज करना है। देश की संस्कृति और अस्मिता को खारिज करना है।
आचार्य बालकृष्ण को एम्स की शरण में जाना उन करोड़ो लोगों के विश्वास से छल कैसे कहा जा सकता है जिन्हें हजारों साल से आयुर्वेद पर विश्वास रहा है। सौ-दो साल पहले जिनकी पीढिय़ां इसी आयुर्वेद के सहारे स्वास्थ्य लाभ करती रही हैं। यह पतंजलि की दवाओं या वहां काम करने वाले वैद्यों के ज्ञान की कमी हो सकती है कि वह बालकृष्ण को ठीक नहीं कर पाए, लेकिन इसमें आयुर्वेद का दोष नहीं।
रामदेव ने योग और अपनी कंपनी के उत्पादों को दूसरी कंपनियों की ही तरह बेचा। रामदेव और पतंजलि का अपराध यही है। ऐसा नहीं कि योग और आयुर्वेद पहले नहीं था, पर इनकी सीमाएँ भी स्पष्ट थीं। दरअसल अष्टांग योग का पहला सिद्धांत यम है जिसके तहत योगी को सत्य, अहिंसा और अपरिग्रह अपनाना होता है लेकिन रामदेव ने सिफऱ् योग को आसनों और शारीरिक व्यायाम तक सीमित कर दिया। रामदेव ने एक चालाकी और दिखाई। उन्होंने पतंजलि के उत्पादों को मौजूदा दौर में उभरी राष्ट्रवाद की भावना से भी जोड़ दिया। उनके टीवी विज्ञापनों को अगर देखें तो उनका भाव यही है कि अगर आप ‘देश को विदेशी गुलामी’ से बचाना चाहते हैं तो पतंजलि की दवाएं ही खरीदें। जैसे यहां पहले से आयुर्वेदिक दवाएं बेच रही धूत पापेश्वर, डाबर, वैद्यनाथ, ऊँझा आदि कंपनियां विदेशी हों। उनके इसी पाखंड से पतंजलि का कारोबार आसमान छूने लगा और सरकारों ने उन्हें करोड़ों की जमीनें कौडिय़ों के भाव मुहैया कराईं। देखते ही देखते आचार्य बालकृष्ण का नाम देश के चुनिंदा उद्योपतियों की सूची में आ गया। पर इसमें आयुर्वेद का दोष तो नहीं।
(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं)