K. P. Saxena: मशहूर व्यंग्यकार के पी सक्सेना की इस रचना को पढ़कर कहेंगे कि 'हां जनाब, यह लखनऊ है'

K. P. Saxena: लखनऊ के मशहूर व्यंग्यकार, स्वर्गीय के. पी. सक्सेना की मई 2013 में लिखी इस रचना को पढ़िए। आपकी आंखों के सामने पुराने वक़्तों के लखनऊ के बाजारों की तस्वीरें दौड़ने लगेंगी।

Update:2023-07-12 20:33 IST
लखनऊ के मशहूर व्यंग्यकार, स्वर्गीय के. पी. सक्सेना: Photo- Social Media

K. P. Saxena: लख़नऊ के मशहूर व्यंग्यकार, स्वर्गीय के. पी. सक्सेना की मई 2013 में लिखी इस रचना को पढ़िए... आपकी आंखों के सामने पुराने वक़्तों के लखनऊ के बाजारों की तस्वीरें दौड़ने लगेंगी....

अभी मैं उम्र के बस्ते में यादों के पुराने का़गज़ टटोल ही रहा था कि कबीरदास याद आ गए। शब्दों के जादूगर थे कबीर! शब्द के बारे में ही कहा है-

शब्द सम्हारे बोलिये, शब्द के हाथ न पांव,

एक शब्द औषधि बने, एक शब्द करे घाव।

ऐसे ही चुने हुए शब्दों से बनती हैं पंक्तियां....

पंक्तियों से आवाजें और इन्हीं महीन रेशमी आवाजों से गूंजता था मेरे शहर का अमीनाबाद व नजी़राबाद।

तब मैं गणेशगंज में रहता था। घुमंतू आदत थी। हर शाम अमीनाबाद में कुछ खाते-चख़ते रहना। एक चवन्नी जेब में पड़ी हो, काफी है एक शाम जीने के लिए।

जा़यकों से आवाजें लहर लेती थीं। एक से एक नफी़स जुमले

ठेलेवालों, फेरीवालों, खोमचेवालों और फुटपाथियों की तैरती आवाजें। दिल के टेप-रिकॉर्डर में कैद करके रखने लायक वह आवाजें क्या फ़ना हुईं... अमीनाबाद का जैसे सुहाग ही धुंधला पड़ गया, जनाब।

इधर आइए बरामदे की नुक्कड़ पर, जहां आज बाटा और घड़ीसाज़ की दुकान है।

सरे शाम एक आवाज उठती थी।

संभल के जइयो.. नजर न लगे... आ गई हरी धन्नो बहारदार......

शहर में कोई नया हो तो समझे कोई हसीन औरत तशरीफ़ लाई है...

पर नहीं......

पीतल के बड़े चमचमाते थाल में सजे पूरे धनिये की चटनी में लिपटे उबले आलू....

ख़ुदा जाने उस चटनी के मसालों का क्या फॉ़र्मूला था कि खाने वाला मस्त। खुद खाए, पत्ते के दोने में घर ले गए। पैसे में चार.....

ख़ोमचे वाले लल्लाराम कान पर हाथ रखकर दूसरी आवाज फेंकते-

घर भर खाओ, मोहल्ले में बांटो।

मसाले के दाम, आलू इनाम

घंटे भर में थाल साफ, लल्लाराम बैक टू पवेलियन।

उधर, बैंक वाले बरामदे से एक ख़लीफा़, चोंगा पहने हाथ में छोटी शीशियां

लगा लो प्यारी आंखों में यह बम्बू शाह का सूरमा.

बाप लगाए, बेटे को लंदन तक नजर आए

शीशी के दाम, सलाई इनाम.

रेट फकत एक इकन्नी....'

आज गुस्ताख़ी माफ, किसी नौजवान से पूछूं कि सुरमा क्या होता है तो बगलें झांकने लगे।

छह बरस की कच्ची उम्र में टीवी की बदौलत आंख पर चश्मा चढ़ गया...।

खैर, एक तरफ से पहले घंटी टुनटुनाती है, फिर आवाज आती है-

क्या आन-बान और शान,

गर्मी जाए जापान.

एक कुलिया पीयो छह डकारे फेंको..

बनी रहे तरावट जान, लू का मिटे नामो निशान.

आम का पना। पैसे में दो कुलिया....

मई हो या जून,

तबीयत देहरादून.....

ठेले पे मटका, मटके पर सुर्ख़ कपड़ा, गले में सजी पुदीने की ताजी पत्तियों और नींबूओं की माला। इर्द-गिर्द भीड़ जमा। कुलिया-कुलिया ठंडा पना।

रॉयल सिनेमा (अब मेहरा सिनेमा) जाने वाली सड़क से तरन्नुम उठता है-

ठंडक कश्मीर की, महक लख़नऊ की.....

बरफ़ की चुस्की मारो...तब बाजार का हुस्न निहारो..

एक प्याली चुस्की बाकी महीन बरफ़ से,

तबीयत मारे तरावट के पिरसीडेंड (प्रेसीडेंट) साहब का मुगल गार्डन न हो जाए तो इकन्नी हमारी तरफ से

ठेले पर घिसी बर्फ़ पर रंगीन बोतलों से टपकता शरबत। छोटे से छकड़ा ग्रामोफोन पर सहगल के रिकॉर्ड चालू। घिसा हुआ, बस मैं... मैं... सुनाई दे रही है। मशीन पर ख़र्र ख़र्र घिसती बरफ़।

जियो राजा....।

दवाओं की दुकानों की तरफ आओ, एक सुरीली आवाज...

मैंने लाखों के बोल सहे हसीना तेरे लिए.

हाय ये सब्ज़ बिजलियां.

लैला की अंगुलियां मजनूं की पसलियां, लखनऊ की ककड़ियां.

हवलदार जी, एक नोश फरमाओ परसों तक दरोगा हो जाओ.

कराची से तार आया, ककड़ियों को कराची ले आओ...

हम बोले, धात-लुच्चे, अमीनाबाद तो मरने के बाद ही छूटेगा..

ककड़ी पर शहर निसार, पैसे की चार..... नमक फ्री़....

हट के खड़े हो लौंडे... ककड़ी शरमा रही है.....'

हटो...बचो... झेलते कदम नज़ीराबाद की तरफ बढ़ते हैं....

छोटा सा कुर्ता और घुटन्ना (छोटा पायजामा) पहने एक छोकरे ने हमें लपक लिया। रेस्त्रां के बाहर तैनात था। सलाम करके बोला-

क्या सही वक्त पर आए हैं, अभी तवे से उतर कर आपके इंतजार में बैठे हैं..

लो भई आ गए क़दरदान, मज्जन भाई....लगाओ एक पलेट (प्लेट)!'

अंदर जाना ही पड़ा, मुच-मुचे गर्म कबाब। चवन्नी में भर प्लेट (चार)... ऊपर से सिरके में तर महीन प्याज़ के लच्छे। छोटा कप भर गुलाबी कश्मीरी चाय फ़्री। लख़नऊ में होने का लुत्फ़ आ गया....। चलते वक्त एक पैसा लौंडे की टिप

शाम गहरी हो रही थी.....

हनुमान मंदिर की घंटियों के बीच सड़क से एक आवाज़ उठती है-

खुशबू के खजाने, जो दबाए सो जाने।

इन गुलाबों की महक पॉकेट में यार,

गंडेरियां धेले (आधा पैसा) की चार।'

सुर्ख़ कपड़ा बिछे थाल में तले ऊपर पिरामिड जैसी सजी केवड़े में बसी गन्ने की गंडेरियां... ऊपर तह दर तह छह गुलाब के फूल।

बोतलों में बंद गन्ने का ठंडा रस मैंने बैंकॉक (थाईलैंड) में खूब पिया, मगर अमीनाबाद, लख़नऊ की चूसने वाली गडरियों की यह नफा़सत और बांकपन इतिहास के पन्नों में सिमट कर अतीत हो गई।

हर सुरमई शाम आवाजों की यह लयकारी सिर्फ अमीनाबाद तक ही सीमित नहीं थी। चौक, चारबाग, नक्खा़स और डालीगंज के बांके फेरीवाले, झल्ली वाले अपने-अपने अंदाज में छोटी-मोटी चीजें बेचा करते थे।

एक विदेशी यह आवाज सुनकर ही भाग खड़ा हुआ-

ठंडा-ठंडा कत्ल हो गया... टुकड़े-टुकड़े कर दिए तरावट के.......'

मालूम हुआ कि एक साहब तरबूज की फ़ांकेंबेच रहे हैं।

50 साल बाद वही अमीनाबादी शाम। बकौल वसीम बरेलवी ---

हर शख्स दौड़ता है यहां भीड़ की तरफ,

और यह भी चाहता है उसे रास्ता मिले...

नई तहज़ीब, शोरोगुल और फा़स्ट-फा़स्ट जिंदगी से मुझे कोई अदावत नहीं। पर अपने वक्त की ढपली पर अपना राग अलापने का हक़ सबको है।

बस इतनी तमन्ना और गुजा़रिश है कि -

इत्र न सही, इत्र का दाग तो बचा रहने दें

थोड़ी-सी तहजी़ब, थोड़ी नफा़सत सलामत रहने दें....

...कि हां जनाब, यह लखनऊ है...

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