Anti Islam Country: नजर घुमाइए, दुनिया बदल गई है
Anti Islam Country: इस्लाम को वे ईसाई नीदरलैंड के लिए घातक मानते हैं। नई मस्जिद निर्माण पर पाबंदी आयत होगी। पुराने को तोड़ डाला जाएगा। उनकी इस सोच और मानसिकता का कारण इंडोनेशिया है, जो विश्व का सबसे बड़ा इस्लामी मुल्क है।
Anti Islam Country: अर्जेंटीना और नीदरलैंड, दोनों अलग - अलग महाद्वीपों के देश, एक आर्थिक संकट से जूझता देश तो दूसरा सम्पन्न देश। समानता दिखती ही नहीं। लेकिन दोनों ने हाल के अपने - अपने राष्ट्रीय चुनावों में बहुत बड़ी समानता दिखाई है । इस समानता से दुनिया हैरान है। एक खास वर्ग परेशान है।
यह समानता है -धुर कट्टर दक्षिणपंथ नेताओं की जबर्दस्त जीत की। अर्जेंटीना में जेवियर माइली और नीदरलैंड में गीर्ट वाइल्डर्स की जीत ने पुख्ता कर दिया है कि अब दुनिया किस तरफ जा रही है। दि नीदरलैंड के प्रस्तावित दक्षिणपंथी उग्रवादी प्रधानमंत्री साठ-वर्षीय गीर्ट वाइल्डर्स का ऐलान है कि सत्ता संभालते ही उनका प्रथम निर्णय होगा मुस्लिम शरणार्थियों को देश से निकाल बाहर करो। मोरक्को को गीर्ट वाइल्डर्स शत्रु मानते हैं। क्योंकि घुसपैठिए वहीं के हैं। ठीक ऐसा ही गत माह इस्लामी पाकिस्तान ने अफगन मुसलमानों के साथ किया था। गीर्ट का सार्वजनिक ऐलान है कि वे कुरान पर रोक लगा देंगे। इसकी वे एडोल्फ हिटलर के “मेन कैंफ” (आत्मकथा : मेरा संघर्ष) ? से समता करते हैं।
इस्लाम पर विवादास्पद फिल्म, “फितना”
इस्लाम पर उनके विचारों को प्रदर्शित करने वाली 2008 की उनकी विवादास्पद फिल्म, “फितना” अंतरराष्ट्रीय स्तर पर चर्चित रही। मीडिया द्वारा उन्हें इस्लामोफोब के रूप में वर्णित किया गया था। उनका अगला बड़ा कदम होगा कि यूरोपीय यूनियन छोड़ देना, जैसे ब्रिटेन ने छोड़ा था। इसे वे “नेक्सिट” (नीदरलैंड क्विट्स) कहते हैं। यूरोप के सभी राष्ट्रीय राजधानियों में इस घोषणा से सियासी भूडोल आ गया है।
ईसाई नीदरलैंड के लिए घातक इस्लाम
इस्लाम को वे ईसाई नीदरलैंड के लिए घातक मानते हैं। नई मस्जिद निर्माण पर पाबंदी आयत होगी। पुराने को तोड़ डाला जाएगा। उनकी इस सोच और मानसिकता का कारण इंडोनेशिया है, जो विश्व का सबसे बड़ा इस्लामी मुल्क है। जब ब्रिटेन ने भारत को अपना उपनिवेश बना रखा था, तो नीदरलैंड ने इंडोनेशिया पर अपना राज कायम किया था। यूरोप के अन्य देशों में भी मुस्लिम शरणार्थी, खास कर रोहिंग्या, के विरुद्ध माहौल बनता जा रहा है।
"ट्रम्प वाद" अब पॉलिटिक्स का नया स्वरूप
जिस तरह अमेरिका में डोनाल्ड ट्रंप पारंपरिक पॉलिटिक्स और एक पुराने पोलिटिकल सांचे से एकदम अलग हैं । जिस तरह की धुर राष्ट्रवादी और कट्टर राष्ट्रपंथी बातें करतें हैं । ठीक वैसे ही अर्जेंटीना और नीदरलैंड के ये नेता हैं। "ट्रम्प वाद" अब पॉलिटिक्स का नया स्वरूप है। घिसे पिटे पुराने बासी ढर्रे से ऊब चुकी, आज़िज़ आ चुकी जनता को जल्दी और साफ दिखने वाला बदलाव चाहिए और यह उम्मीद बची दिख रही है "ट्रम्प वाद" में।
दरअसल, अर्जेंटीना और नीदरलैंड जिस रास्ते पर बढ़े हैं । उसका उद्घाटन बीस साल पहले ऑस्ट्रिया ने कर दिया था। लेकिन तब ट्रम्प वाद नहीं था। दो दशक पहले ऑस्ट्रिया द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से सुदूर दक्षिणपंथ की ओर झुकने वाला पश्चिमी यूरोप का पहला राष्ट्र बन गया था।
लेकिन अब 2023 में समय बदल चुका है। अब ऐतिहासिक राजनीतिक रफ्तार ने कट्टर दक्षिणपंथियों को यूरोप में और अन्यत्र पैर जमाने और क्षेत्र की राजनीति और नीतियों को नया आकार देने का मौका दिया है
शरणार्थी बने मुसीबत
यूरोप और अर्जेंटीना के मसले अलग - अलग हो या हैं । लेकिन उपाय सिर्फ दक्षिणपंथी नेताओं में दिख रहा है। यूरोप में इस समय सबसे बड़ा संकट अप्रवासियों की बेलगाम बाढ़ का है। खासकर मुस्लिम अप्रवासियों की बाढ़। पहले तो पूरे यूरोप की सरकारों ने बाहें फैला कर सीरिया, इराक, अफगानिस्तान, वगैरह से आने वालों का स्वागत किया। बेचारों - मुसीबत के मारों को अपने यहां शरण दी। लेकिन यही शरणार्थी अब मुसीबत बन गए हैं। ये लोग यूरोप को ही इराक सीरिया बनाने पर तुल गए हैं। यूरोप वाले परेशान हैं। सो ऐसे में नीदरलैंड में कट्टर-दक्षिणपंथी आइकन गीर्ट वाइल्डर्स और उनकी यूरोपीय संघ विरोधी, मुस्लिम विरोधी और आप्रवासन विरोधी पार्टी ने संसदीय चुनावों में पहला स्थान हासिल किया है। वहीं अर्जेंटीना में दशकों से शासन कर रही वाम झुकाव वाली सरकार ने देश को भयंकर आर्थिक संकट में पहुंचा दिया है।
पूरी व्यवस्था बदल डालने का वादा
साउथ अमेरिकी "ट्रम्प" यानी अर्जेंटीना के नए विजेता माइली ने पूरी व्यवस्था बदल डालने का वादा किया है। हंगरी के प्रधानमंत्री विक्टर ओर्बन और फ्रांसीसी विपक्षी नेता मरीन ले पेन सहित क्षेत्र की अग्रणी दक्षिणपंथी आवाज़ों ने इसका विधिवत स्वागत किया है।
अर्जेंटीना में जेवियर माइली के राष्ट्रपति चुने जाने के कुछ दिनों बाद नीदरलैंड में वाइल्डर्स की सफलता ने वैश्विक कट्टर दक्षिणपंथ को जबर्दस्त रूप से उत्साहित किया है। यही हाल अमेरिका में है जहां अगले साल चुनाव होने वाले हैं। अमेरिका में डोनाल्ड ट्रम्प फिर हावी हो रहे हैं। तमाम अदालती मामलों और वामपंथी मीडिया के विरोध के बावजूद ट्रम्प की मजबूती बढ़ती जा रही है। अमेरिका में ट्रम्प और यूरोप में कट्टर दक्षिणपंथ के प्रभुत्व को पारंपरिक राजनेताओं के खिलाफ मतदाताओं के गुस्से की घंटी के रूप में देखा जा रहा है।
भले ही ये चलन बीस साल पहले ऑस्ट्रिया में शुरू हुआ हो। लेकिन अब यह तेजी पकड़ता दिख रहा है। धुर-दक्षिणपंथी पार्टियों ने इटली में सत्ता संभाली है, हंगरी में अपना शासन बढ़ाया है, फिनलैंड में गठबंधन की भूमिका निभाई है, स्वीडन में वास्तविक सरकारी भागीदार बन गए हैं, ग्रीस में संसद में प्रवेश किया है और जर्मनी में क्षेत्रीय चुनावों में शानदार बढ़त हासिल की है। स्लोवाकिया भी एक धुर दक्षिणपंथी सफलता की कहानी है। इतालवी प्रधानमंत्री जियोर्जिया मेलोनी भी कट्टर-दक्षिणपंथी नेताओं के क्लब में शामिल हो गईं हैं। वह छात्र नेता थीं तभी से घोर कौमपरस्त हैं, जो घृणा की घात्री हैं। मेलोनी नई दिल्ली जी-20 में शिरकत करने आई थीं। तब उन्होंने नरेंद्र मोदी की प्रशंसा में कहा था : “बड़े प्रिय और लोक लुभावन जननेता हैं।” न्यूजीलैंड में सरकार बनाने में धुर दक्षिणपंथी पार्टियों की हिस्सेदारी हुई है।
भले ही धुर दक्षिणपंथ बरसों से बढ़ रहा हो। लेकिन अब इसे व्यापक महंगाई, यूक्रेन युद्ध के नतीजे, बढ़ते प्रवासन, बढ़ती असमानता और पारंपरिक राजनीतिक वर्ग की विफलता से जम कर खाद - पानी - ईंधन मिल रहा है। मुस्लिम अप्रवासियों और इस्लामिक विस्तार के खिलाफ अब खुल कर बोला जा रहा है।
कट्टर दक्षिणपंथी सरकार को चुनने का कारण
व्यवस्थाएं इतनी बिगड़ी हुई हैं कि किसी के आने और सब कुछ ठीक करने की इसी इच्छा ने मतदाताओं को कट्टर दक्षिणपंथी सरकार को चुनने के लिए प्रेरित किया है। ये जन आकांक्षा है जिसे घिसी पिटी सोशलिस्ट टाइप की परंपरागत पॉलिटिक्स और वैसे ही नेता नहीं चाहिए। क्योंकि ऐसी पॉलिटिक्स से हासिल कुछ हुआ नहीं, उल्टे बर्बादी ही हुई है। "ट्रम्प वाद" का विस्तार, कट्टर दक्षिणपंथी नेताओं की जीत और सब कुछ बदल देने के इरादे चिंता की बात है या आशा है, यह आपके नज़रिए पर निर्भर करता है।
इस नजरिए को भारत के परिप्रेक्ष्य में भी रखिएगा। यहां भी बरसों पहले ये शुरुआत हुई है और सिलसिला अभी जारी है। नरेंद्र मोदी ने 2014 में इस सिलसिले की राष्ट्रव्यापी शुरूआत की। अभी जारी है। 2024 के चुनाव में भी उनके जीत की उम्मीदें बेमानी नहीं कही जाएगी। बात किसी एक चीज की नहीं है, धर्म की नहीं है बल्कि बहुत सी चीजों की है। बेचैनी बढ़ती जा रही है। अब लोग सौगात की गुहार लगाने वाले नहीं बल्कि डिमांड करने की स्थिति में हैं। आप खुद से ही सवाल पूछिये, क्या आपके पास इंतज़ार करने, सब्र रखने का समय है?
(लेखक पत्रकार हैं ।)