Sansmaran: हमने उनका राम ही नही,परशुराम रुप भी देखा
Sansmaran: कई सीटों पर वह जिताने वाले नेता बन बैठे थे। उसी समय हम दोनों लोग निकट आये। फिर तो हर चुनाव में लंबा समय साथ गुजरने लगा
Sansmaran: मेरा उनसे रिश्ता बड़े छोटे भाई का था। यह रिश्ता कब बना यह तो अब याद नहीं है। लेकिन इतना ज़रूर याद है कि राम मंदिर आंदोलन का दौर था। दादा जी कांग्रेस के सासंद थे। राम मंदिर पर संसद के अंदर बहस चल रही थी। पूरे देश में राम मंदिर आंदोलन उफान पर था। दादा जी को बोलने का मौक़ा मिला तो वह मंदिर के पक्के। अपना भाषण देते हुए, कह बैठे- “जाके प्रिय न राम वैदेही, ताज़िये ताहि कोटि बैरी सम, जदपि प्रेम सनेही।” इसके बाद दादा जी राम मंदिर आंदोलन के हीरो हो गये। वह संसद से घर पहुँचे तो उनके घर उस समय के भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी जी और लालकृष्ण अडवाणी जी दोनों मिलने आ धमके। कांग्रेस पार्टी को मानो साँप सूंघ गया। दादा जी अगले चुनाव में भाजपा से पडरौना- कुशीनगर सीट से मैदान में उतरे। उस समय प्रचार की कोई ज़रूरत ज़्यादा नहीं थी। दादा जी को जीतने कोविड दें। कई सीटों पर वह जिताने वाले नेता बन बैठे थे। उसी समय हम दोनों लोग निकट आये। फिर तो हर चुनाव में लंबा समय साथ गुजरने लगा ।
पडरौना लोकसभा सीट पर सपा बालेश्वर यादव को उतारती थी। उस इलाक़े में बालेश्वर जी के रिश्ते जंगल पार्टी से होने की बात जगज़ाहिर थी। उनका भय भी था। पर एक गाँव में रात को बालेश्वर जी मतदाताओं को लुभाने के लिए कुछ बाँट रहे थे, भइया को यह बात पता चली वह उस गाँव में जा धमके । भइया का ग़ुस्सा उस समय देखने लायक़ था। वैसा ग़ुस्सा हमने कभी उनमें नही देखा। उस समय हमनेउन्हें अपने नाम का पर्याय होते देखा। वह साक्षात परशुराम बन बैठे थे। पर गाँव में जब पहुँचे तो बालेश्वर जी ने उन्हें देखते ही प्रणाम किया।वह गाँव से निकल गये। पर भइया सुबह तक गाँव में डटे रहे।
वह दादा जी के चुनाव के हीरो होते थे। संचालक होते थे। शायद यही वजह थी कि उन्हें भी खुद में राजनीति की उम्मीद दिखती थी। भाजपा ने एक बार विधायक लड़ने का मौक़ा दिया। दूसरी बार टिकट नहीं मिला।ज़िद्दी इतने कि निर्दल लड़ गये। अमित शाह जी ने उन्हें फ़ोन भी किया। पर मानें नहीं। हम लोग कहते रह गये। वह चुनाव अपने पैसों से लड़ते थे। हमने उन्हें चंदा और पार्टी का पैसा लेते नहीं देखा। नहीं पाया । मैं कई बार कहता था कि भइया आप मेहनत की कमाई को इस तरह खर्च कर रहे हैं, ठीक नहीं है। उनका जवाब होता था- जो लोग हमें पैसे सहयोग में देते हैं, सबकी मेहनत की ही कमाई होती है। जब हम अपनी मेहनत की कमाई नहीं खर्च कर सकते हैं, तो दूसरी की कमाई खर्च करने का अधिकार कहाँ रह जाता है।
राजनीति भले ही उनके रग में घुस गई हो पर वह अपनी डॉक्टरी पेशे से कोई समझौता करने को तैयार नहीं थे। यही वजह थी कि वह राजनीति आधे मन से करते रहे। राजनीति के उनके रग में घुसने की वजह उनके ससुराल पक्ष के परिजनों का भी सियासी होना रहा। वह दादा जी के प्रभाव को, संपर्क को बढ़ाना चाहते थे। दादा जी के चार बेटे और दो बेटियाँ हैं। पर दादा जी के यश व संपर्क को भइया ने ही दूसरी पीढ़ी तक न केवल अक्षुण्ण रखा। बल्कि बढ़ाया भी।
उन्होंने कभी पैसे के लिए डॉकटरी नहीं की । यह उससे समझा जा सकता है कि मुहल्ले के मरीज़ों से कोई फ़ीस या पैसा नहीं लेते थे। हर गुरुवार को चाहे जितने मरीज़ आ जायें, सबको मुफ़्त देखते थे। एक बार एक महिला अपने पति के साथ आई। भइया ने उसे देखा । और दवा लिख दी। वह हमला एक्स-रे कराने की लगातार ज़िद पर अड़ी थी। भइया उसे समझा रहे थे कि एक्स रे की कोई ज़रूरत नहीं है। पैसा क्यों बेकार में खर्च करना चाहती हो। पर उसकी ज़िद के चलते भइया ने जोशी जी को बुलाया और कहा कि इसका एक्स रे कर दो। प्लेट हमें दिखा दें। पैसा इससे मत लेना। भइया ने रिपोर्ट देखी। महिला को दिखाया। कहीं कोई फ़्रैक्चर नहीं था। वह आश्वस्त हो कर गई। वह मरीज़ को देखते ही ठीक हो जाने के आश्वस्ति भाव से भर देते थे। वह बड़े साईं भक्त थे। साईं की कृपा उन पर बरसती थी । तभी तो मरीज़ों के ठीक होने का आँकड़ा शत प्रतिशत था।
एक घटना हमें याद है। आज के प्रयागराज से एक मरीज़ आया था। उसका एक्सीडेंट हो गया था। वह जीप में ही था। भइया क्लीनिक से उठ कर उसे देखने गये । वहाँ उन्होंने समझा दिया कि बड़ा आपरेशन करना पड़ेगा। कहीं और ले जाओ। पर वहाँ भी तुम ठीक हो जाओगे , यह नहीं कहा जा सकता। तुम्हारे कमर के नीचे के हिस्से में आपरेशन के बाद भी दिकक्त रहेगी। डॉक्टर को दोषी मत ठहराना। पर मरीज़ ने कभी उनसे दवा कराई थी। उसने ज़िद पकड़ ली कि डॉक्टर साहब जो होना हो आप से ही हो । मेरा आप पर भरोसा है। उन्होंने मरीज़ के घर वालों से कहा कि देखो और कहा पूरी तरह ठीक होने की गुंजाइश कम है। पर वह कह रहा है तो उजाला ले चले। वह साईं जी को प्रणाम कर क्लीनिक के बाद उजाला गये। छह महीने बाद वह आदमी जब चल कर उनके सामने आया तो उन्होंने हमें याद दिलाया कि यह वही आदमी था।
वह हंसते नहीं थे। खिलखिलाते थे। क्योंकि उनकी हंसी में थोड़ी आवाज़ होती थी।हाँ मुस्कुराने का हुनर भी उनमें अद्भुत था। उनकी ज़िंदगी में हास्य कम विनोद ज़्यादा था। प्रतिस्पर्धा उनमें नहीं थी।वह प्रतियोगिता करते थे। तभी तो उनके सबसे करीबी दोस्तों में हड्डी के ही डॉक्टररहे। बोलने में भोजपुरी उनकी पसंदीदा।हर पिता व बेटी के रिश्तों का तरह वह अमृता का स्मरण ज़्यादा करते थे। मेरे पिता जी की तबीयत ख़राब थी। हमने भइया को बुलाया । उन्होंने चेक किया। बताया सब ठीक है। हालाँकि पिता जी साँस में दिकक्त की शिकायत कर रहे थे। वह दिल के मरीज़ थे। कुछ दिन पहले हमने पीजीआई में उनका फ़ुल चेक अप कराया था। सब ठीक था। भइया जब पिता जी को देखने आये थे उनके साथ बेटी अमृता के बेटे आनंद श्री भी थे। पिता जी ने आनंद श्री से बात की गले लगाया। पुचकारा । दुलराया।
ये लोग घर से निकल कर थोड़ी दूर ही गये थे कि पिताजी को दिल का दौरा पड़ा। हम लोग लॉरी पहुँचे । उससे पहले उनका देहांत हो गया था। पर भइया भी पहुँच गये थे। आनंद श्री मेरे पिता जी से मिलने वाले अंतिम आदमी थे। बहुत बाद तक भइया कहते रहे कि आनंद श्री का चाचा से कोई रिश्ता था। चाचा उनसे ही मुलाक़ात का इंतज़ार कर रहे थे।पिता जी के निधन से हमें तो काठ मार गया था। पर भइया ने ही तय कर दिया कि पिता जी की अंत्येष्टि बनारस में होगी। हम लोग बनारस गये। पर वहाँ के घाट पर शव को जलाने के लिए ऊपर लकड़ी नहीं रखते हैं। यह चलन हमें अच्छा नहीं लगा। हालाँकि हमने बनारस के इस चलन को नहीं माना। हमारे दोस्त लाल जी शुक्ल वहाँ पुलिस कप्तान थे। मायावती जी की सरकार थी। शशांक शेखर जी ने ज़िला प्रशासन से कह दिया था। इस लिए सारी व्यवस्था ठीक था। हमने लालजी शुक्ल से कह कर लकड़ी से पूरा ढकवाया। फिर मुखाग्नि दी। पर हमने उसी दिन तय किया कि वाराणसी इस संस्कार के लिए कभी नहीं आऊँगा । कबीर दास जी ने शायद यही सब देख कर लिखा होगा कि- “जो काशी तन तजे शरीरा रामे कौन निहोरा रे। “
मेरे जीवन के उन कमजोर क्षणों में भइया मेरे लिए जिस तरह संबल बने उसने मेरी उनकी निकटता और बढ़ा दी।उनके रहते मैं अपनी माँ के सेहत के किसी सवाल से बहुत दूर रहा। मेरी मां को भइया माई कहते थे। माँ को कोई दिकक्त होती थी वह मुझे नहीं भइया को फ़ोन करती थी। दवा मंगा कर खा लेती थी। माँ का कोरोना काल में पोस्ट कोरोना दिक़्क़तों को चलते निधन हो गया । उस समय कोरोना अपने प्रचंड रुप में था। हमने भइया को माँ के निधन के बारे में बताया और कहा कि आप मत आइयेगा । कई बार मना किया। पर भइया जाने कहाँ से कोरोना किट और हेलमेट पहने आये। माँ को पुष्पांजलि दी। फिर चले गये । बाद में जब मैंने कहा तो उनका उत्तर था - माई को नहीं देखता तो खुद को माफ़ नहीं कर पाता। हमने माँ की अंत्येष्टि सरयू तट पर अयोध्या पर किया।
पिता की सेवा करने में भइया का कोई सानी नहीं रहा। दादा जी की नींद सोते और जागते थे। वह हमेशा वर्तमान जीवी या भविष्य जीवी रहे। कभी अतीत जीवी हुए भी तो महज़ दादा जी के यश व कीर्ति को लेकर के। वह किसी से ऐसा कोई काम करने को नहीं कहते थे।जो उसकी रुचि के खिलाफ है। वह दूसरे की भावना का भी ख़ासा ख़्याल रखते थे। दादा जी का निधन हुआ। भइया वाराणसी ले कर के गये। हमने अपने पिछले अनुभव के चलते वहाँ जाने से कन्नी काट ली। सारी व्यवस्था ज़रूर कराई।पर गया नहीं। लौट कर के भइया ने कभी पूछा नहीं कि मैं क्यों वाराणसी नहीं गया।उन्हें मेरे पिता जी की अंत्येष्टि के समय का संकल्प याद रहा।
भइया अपने सहयोगियों से कितना प्रेम करते थे , इसका उदाहरण अमरनाथ जोशी जी का पीजीआई में दिल का आपरेशन था। बारह बोतल खून चाहिए था। केवल दस बोतल मैनेज हो पाया। बाक़ी के दो बोतल खून भइया और डॉ आनंद वर्धन जी ने दिया। वह एक बहुत संवेदनशील इंसान भी थे। जोशी के पैर काटने की नौबत आई। भइया ने जोशी जी को कहा कटवा लो मैं तुम्हें चलवा दूँगा, जोशी जी भइया के साथ1972 से जुड़े थे। भइया ने उन्हें चलवा दिया।
उनके साथ कुछ ख़ुशी के क्षण का भी मैं गवाह हूँ। नीतू ने जब विदेश छोड़ कर भारत में रहने का फ़ैसला किया। तो इस फ़ैसले को भइया ने जिस तरह हमें सुनाया , उसमें उनकी आँखें आंसुओं से भरी थीं, पर वो खिलखिला रहे थे। भाभी की कविता की किताब जब आई थी। तब भी उनकी प्रसन्नता देखते बन रही थी। हमसे मज़ाक़ भी करते थे - तू ही नाहिं लेखिक बाँटअ। देखअ तुहार भऊजियो कवि हो गइलिन।
भइया अपने क़रीब के लोगों की ज़िम्मेदारियाँ खुद लिया करते थे। अथ दिन हमसे कहा कि-का हो योगेश, आशीषवा के बियाह कहीं तय कॉल की नाहिं। हमने कहा न ही भइया। वह तपाक से बोल पड़े। तू लोग बियाह ना ही क पीब। हमारे ऊपर छोडअ , अब हम करब। इसी के साथ एक बार मेरी पत्नी से विनोद में कि खाना खिलाओ तुम। पर जब भी नीलम ने उन्हें खाने पर बुलाया तो वह यह कह कर टाल जाते थे-खा लेब त टोकब कइसे। वह भइया अचानक चले गये । पर आये नहीं। वह
ढेर सारे काम छोड़ गये। कुछ मेरे लिए, कुछ भाभी के लिए, कुछ मीतू और अमृता के लिए। कुछ आप जैसे दोस्तों- शुभचिंतकों के लिए। कुछ पारिवारिक और कुछ सामाजिक काम , जिसे पूरा करने का ज़िम्मा सौमित्र व भाभी का होगा। इस में गिलहरी की तरह मैं काम आऊँ तो यह मेरी भइया के प्रति सेवा व श्रद्धांजलि दोनों होगी।हालाँकि भइया जैसे लोग मरते नहीं है। वह जीते रहते है। अपने लोगों के दिलों में। अपने कामों में। आप सब जैसे मित्रों, रिश्तेदार व शुभचिंतकों के दिलों व अहसासों में।
न जाने कितनी अनकही बातें छोड़ जायेंगे
कौन कहता है ,ख़ाली हाथ आये थे,
ख़ाली हाथ जायेंगे।
( लेखक पत्रकार हैं ।)