क्या तिब्बत बदलेगा, लहर उठी है
भारत को मानना और बतलाना होगा कि हांगकांग तथा ताईवान से तिब्बत भिन्न है। उन दोनों द्वीपों पर हान जाति की नस्ल वाले रहते हैं। जो चीन से अलग नहीं हैं। तिब्बती बिल्कुल उतने ही भिन्न हैं जितने बर्मी, मलेशियाई और नेपाली।
के. विक्रम राव
विशेष सीमा बल (Special Border Force) के तिब्बती मूल के एक युद्धरत सिपाही नाइमा तेनजिन की पूर्वी लद्दाख की पहरेदारी करते वक्त गत सप्ताह अचानक हुई मौत से एक चिंगारी उठी है। वह मुक्त तिब्बत के अभियान के लिए कारक, विस्फोटक भी बन सकती है। कारण है कि भाजपा के शीर्ष पदाधिकारी और कश्मीर मसलों के प्रभारी राम माधव ने शहीद सैनिक की शवयात्रा के समय दो सूत्र उच्चारे थे: “भारत माता की जय” और “जय तिब्बत देश।” (चेन्नई का वामपंथी अंग्रेजी दैनिक “द हिन्दू”, 8 सितम्बर 2020, पृष्ठ 9, कालम एक से तीन)।
मूक बधिर भारत सरकार
गत सात दशकों से बौद्ध तिब्बत पर विस्तारवादी चीन के रक्तरंजित कब्जे को भारत सरकार मूक-बधिर बनकर स्वीकारती रही| परम पावन बुद्धावतार ल्हामों थोंडुप दलाई लामा ने कम्युनिस्ट आक्रान्ताओं से त्रस्त होकर ल्हासा के पोटाला महल से भागकर धर्मशाला नगर में शरण ली।
तिब्बत की राष्ट्रध्वजा केसरिया थी। तब पांच सितारोंवाली लाल (चीनी) हो गयी। तिब्बती (1958 से) जुल्म सहते रहे। लुके छिपे लद्दाख के सीमावर्ती शिविरों को शरणार्थी बस्ती बनाते रहे।
अब उन्हीं में से एक (सोनामलिंग शिविर के वासी) प्रहरी शहीद नाइम तेनजिन की विधवा और तीन संतानों की यही कामना है कि उनकी मातृभूमि निरंकुश कम्युनिस्टों के चंगुल से छूटे।
क्या संयोग था कि 1962 में चीन द्वारा लद्दाख में एक बारूदी सुरंग डाली गयी थी। इसपर 58 वर्ष बाद पैर पड़ने से इस सैनिक की मृत्यु हो गयी थी। संकेत है कि तबके चीनी हमले का सिलसिला 58 साल बाद आजतक चल ही रहा है। अब पार्टी का काफी दबाव मोदी सरकार पर पड़ेगा। कायर पारम्परिक नीति बदलेगी।
मसलन किसीने सोचा था क्या कि धारा 370 हटेगी ?
लद्दाख कश्मीरी घाटी द्वारा मजहबी शोषण से आजाद होगा ?
इतिहास के छात्र याद करेंगे कि क्रूरतम तानाशाह जोसेफ स्टालिन की लाल सेना की गुलामी से बाल्टिक सागरतटीय राष्ट्र समूह लातविया, एस्टोनिया और लिथुआनिया छः दशक बाद स्वतंत्र होकर संयुक्त राष्ट्र के सदस्य बनें ?
इंडोनेशिया का गुलाम रहा पूर्वी तैमोर आजाद है। मुस्लिम-बहुल युगोस्लाविया से कटकर कोसोवो इस्लामी गणराज्य बना।
ये सब निकट भूतकाल के वाकये हैं।
हमेशा स्वशासित रहा
अतः तिब्बत की आजादी का एकमात्र आधार यही है कि वह हमेशा स्वशासित रहा। हर रूप और रंग, हर आकार तथा प्रकार से स्वतंत्र रहा। हान-नस्ल के चीनियों से एकदम जुदा है।
इसी सन्दर्भ में याद कर लें कि पड़ोसी भारत और चीन कभी भी सटे ही नहीं थे। दोनों की सीमा नहीं थी। तिब्बत अधिकृत कर चीन की सीमा भारत पर आन पड़ी।
अतः राम माधव की गूढ़ और मायनेभरी उक्ति के मर्म में भविष्य की भारतीय-तिब्बत-नीति पल रही है। यूं भी प्रायश्चित के तौर पर भाजपा सरकार पश्चाताप तो अब कर ही रही है।
तिब्बत पर भारत सरकार की ही नहीं, वरन् अन्य विपक्षी राजनैतिक दलों की दृष्टि भी शुर्तमुर्गी रही। किसी ने कभी भी कोई क्रियाशील कदम नहीं उठाया, भले ही सत्ता पर रहे हों।
कम्युनिस्टों की ईमानदारी
इस बारे में कम्युनिस्टों से तनिक भी शिकवा नहीं है। वे बड़े ही ईमानदार हैं। वे तिब्बत को चीनी साम्राज्यवाद का उपनिवेश मानते हैं। एक पग आगे बढ़कर अरूणाचल और सिक्किम को शी जिनपिंग को उपहार देने में बेझिझक हैं, तत्पर भी।
देशप्रेमी भारतीयों को तो अटल बिहारी वाजपेयी ने ज्यादा निराशा किया। विपक्ष के नाते संसद में तिब्बत के मसले पर वे अक्सर हुंकारते थे। वे गरजे थे “तिब्बत को स्वतंत्र होने का अधिकार है। यदि तिब्बत के बारे में मौन धारण करके बैठे रहे तो न हम तिब्बत के साथ न्याय करेंगे और न अपने साथ न्याय करेंगे।” (राज्य सभा, 27 अप्रैल 1989)।
ठीक तीन दशक पूर्व लोकसभा में (21 अगस्त 1959) अटल जी ने एक प्रस्ताव द्वारा नेहरू सरकार से मांग की थी कि तिब्बती मसले को संयुक्त राष्ट्र संघ में भेजना चाहिए।
अपने पुराने तेवर को भुलाकर प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने राज्य सभा में (1 अगस्त 2003) को कहा “विपक्ष का नेता होकर मैंने तिब्बत की मुक्ति पर कई बयान दिये। मगर हम इतिहास को देखते नहीं रह सकते है।” वे तभी चीन की यात्रा पर से लौटे थे।
राम माधव के बयान के आधार में तिब्बत का इतिहास ही सबल प्रमाण है|
इतिहास गवाह है कि 1949 में चीनी कब्जे के पूर्व तिब्बत एक सार्वभौम राष्ट्र था। ग्यांत्से और यातुंग शहरों में 1949 तक भारतीय व्यापारी एजेन्ट कार्यरत थे।
नई दिल्ली में 1947 में संपन्न एशियन रिलेशन्स सम्मेलन में एक सार्वभौम राष्ट्र के रूप में तिब्बत शरीक हुआ था। भारतीय तीर्थयात्री तब मानसरोवर जाने हेतु चीन से वीजा नहीं लेते थे।
क्या विडम्बना थी कि स्वेच्छा से महाराजा हरि सिंह द्वारा भारत में विलय स्वीकारने के बावजूद जवाहर लाल नेहरू ने कश्मीर में आत्मनिर्णय का सुझाव रखा था, मगर तिब्बत पर चीन के कब्जे के बाद नेहरू ने उसे बौद्ध जनता के आत्मनिर्णय की बात तक नहीं की।
इस खामोशी से उत्साहित होकर माओ ने तिब्बत को चीन की कटी हुई हथेली बताया। इस पंजे की पांच उंगलियां हैं- नेपाल, भूटान, सिक्किम, लद्दाख और अरूणाचल प्रदेश।
दक्षिणी चीन तिब्बत का अंग था
सातवीं शताब्दी में दक्षिणी चीन का भूभाग तिब्बत के राजा के साम्राज्य का अंग था। तब बीजिंग के तांग सम्राट ने अपनी बेटी को तिब्बत के राजा को भेंटकर युद्ध को टाला था। अपने को बचाया था। 1913 में जब शिमला में भारत और चीन के बीच सीमावार्ता हुई थी तो तिब्बत एक स्वाधीन राष्ट्र के रोल में शामिल हुआ था। तीनों राष्ट्र समान थे।
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जनरल च्यांग काई शेक के राष्ट्रपति काल में भी तिब्बत 1949 तक अपने राजदूत को बीजिंग में रखता था। राजधानी ल्हासा में भारतीय वाणिज्य दूतावास था। भारतीय बौद्ध, जिनमें राहुल सांकृत्यायन भी थे, ने तिब्बत को स्वतंत्र देश के रूप में देखा था। बौद्ध धर्म का यह महान केन्द्रस्थल और उसके साठ लाख तिब्बतियों का आज कैसा हश्र है?
बतानी होगी ये बात
भारत को मानना और बतलाना होगा कि हांगकांग तथा ताईवान से तिब्बत भिन्न है। उन दोनों द्वीपों पर हान जाति की नस्ल वाले रहते हैं। जो चीन से अलग नहीं हैं। तिब्बती बिल्कुल उतने ही भिन्न हैं जितने बर्मी, मलेशियाई और नेपाली।
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अतः तिब्बत ही भारत की पूर्वोत्तर सीमाओं की सुरक्षा की गारंटी हो सकता है। इसी निमित्त से भारत स्वाधीन तिब्बत का पक्षधर है।
बस इसी अंतर के कारण तिब्बत को अलग राष्ट्र मानकर राम माधव ने लद्दाख के शिखरों पर से सूत्र उच्चारा होगा : “जय तिब्बत देश”।
K Vikram Rao
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