तिब्बत जन विद्रोह दिवस पर विशेष: अभी भी धधक रही है स्वतंत्रता की आग

10 मार्च, 1959 को तिब्बत में माओ की चीनी सेना के खिलाफ जन विद्रोह शुरू हुआ था। इस दिन तिब्बत के हजारों के संख्या में लोग व बौद्ध भिक्षु सड़क पर उतर कर चीन की लाल सेना का विरोध किया था।

Update:2021-03-10 12:33 IST
फोटो— सोशल मीडिया

डा. समन्वय नंद (Dr. Samanvaya Nand)

10 मार्च, 1959 को तिब्बत में माओ की चीनी सेना के खिलाफ जन विद्रोह शुरू हुआ था। इस दिन तिब्बत के हजारों के संख्या में लोग व बौद्ध भिक्षु सड़क पर उतर कर चीन की लाल सेना का विरोध किया था। इसके बाद माओ की सेना ने हजारों की संख्या में नीरिह तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया था। इस तरह की स्थिति उत्पन्न हो गई थी कि परम पावन दलाई लामा को तिब्बत छोड़ कर भारत में शरण लेना पड़ा था।

वैसे देखा जाए तो चीन की कम्युनिस्ट सेना ने 1949 से ही तिब्बत पर हमला करना प्रारंभ कर दिया था। पहले माओ की सेना ने चीन से सटे तिब्बत के हिस्से आमदो व खम प्रदेश में प्रवेश कर उन इलाकों को नियंत्रण में लेना प्रारंभ कर दिया था। चीन अपने बर्बर सैन्य बल के माध्यम से दलाई लामा को झुकाने का प्रयास कर रहा था। इस कारण तिब्बत को चीन के साथ 17 सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर करना पड़ा था। बंदूक के नोक पर चीन ने तिब्बत को इस समझौते पर हस्ताक्षर करने के लिए मजबूर किया था। चीनी सेना धीरे—धीरे तिब्बत के अन्य इलाकों पर भी नियंत्रण ले रही थी। धीरे—धीरे चीनी सैनिक तिब्बत की राजधानी लाहसा तक पहुंच गये थे।

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चीन धीरे—धीरे पूरे तिब्बत में अपना प्रशासन चलाने के लिए नयी रणनीति पर कार्य करना प्रारंभ कर दिया था। इस नयी रणनीति के अनुसार दलाई लाला द्वारा संचालित समस्त विभागों को वे कार्य करने के लिए दे रहे थे। लेकिन साथ साथ ही चीन ने भी समानांतर तरीके से प्रशासनिक विभागों को चलाना प्रारंभ कर दिया। चीन अपनी सेना के बल पर यह प्रशासन चला रहा था। इसके बाद चीनी सेना ने धीरे—धीरे तिब्बत के मठ व मंदिरों पर हमला करना शुरू कर दिया। बौद्ध भिक्षुओं का अपमान करना प्रारंभ कर दिया। इससे धीरे—धीरे संपूर्ण तिब्बत में असंतोष की ज्वाला बढ़ने लगी। उस कालखंड में दलाई लाला भारत आये थे व उन्होंने तिब्बत की खराब होती स्थिति के संबंध में भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री पंडित नेहरू को अवगत कराया। साथ ही उन्होंने भारत में शरण लेने की बात भी कही थी। लेकिन नेहरू ने उन्हें स्पष्ट रूप से इसके लिए मना कर दिया तथा उन्हें सलाह दी कि उन्हें चीन के साथ मिलजुल कर रहना सिखना होगा।

तिब्बत में मोनलम नामक एक त्योहार बड़े धुमधाम से मनाया जाता है। तिब्बत मामलों के जानकार बताते हैं कि यह तिब्बत का सबसे बड़ा त्योहार है। इस त्योहार में शामिल होने के लिए पूरे तिब्बत से श्रद्धालु राजधानी लाहसा आते हैं तथा बुद्ध मंदिरों में पूजार्चना की जाती है। मोनलम त्योहार के दौरान ल्हासा प्रशासन की जिम्मेदारी बौद्ध भिक्षुओं के पास आ जाती थी। 1959 में मोनलम के कुछ दिन पूर्व तिब्बतीय नव वर्ष के अवसर पर दलाईलामा के राज प्रासाद नामग्याल मठ के बौद्ध भिक्षुओं का एक नृत्य कार्यक्रम का आयोजन किया जा रहा था। इस नृत्य कार्यक्रम में चीन के दो अधिकारी उपस्थित थे। वे दलाईलामा के पास आ कर कहा कि चीन से एक नृत्य करने वाली टीम ल्हासा आयी हुई है। उन्होंने दलाई लामा को चीनी सेना के मुख्यालय में आकर उस नृत्य देखने का अनुरोध किया। उन्होंने इस कार्यक्रम के लिए 10 मार्च की तिथि तय की। वास्तव में इस कार्यक्रम में शामिल करवाने के बहाने चीन दलाई लामा का अपहरण कर लेना चाहता था।

इसके अलावा चीन के अधिकारियों ने दलाई लामा के अंगरक्षकों से कहा कि इस कार्यक्रम में वह बिना तिब्बती सैनिकों के आयें। यदि बहुत आवश्यक लगा को दो-तीन अंगरक्षक आ सकते हैं। साथ ही उन्होंने इस बात की हिदायद दी कि इस मामले को संपूर्ण रूप से गुप्त रखा जाए। चीनी सरकार के अधिकारी व उनके सैनिक अधिकारियों की गतिविधियां तिब्बतियों को आश्चर्य चकित करने वाली लग रही थी। तिब्बतियों ने यह आशंका व्यक्त करना प्रारंभ कर दिया कि चीन परम पावन दलाई लामा का अपहरण करने की साजिश रची रही है। इसी बीच चीनी सैनिकों ने ल्हासा में प्रवेश करने के लिए जो पुल था, उसे अवरोध कर दिया। इस कारण तिब्बतियों की आशंकाएं बढ़ने लगी। यह खबर आग की तरह पूरे तिब्बत में फैलने लगी कि माओ की लाल सेना दलाई लामा का अपहरण करने की योजना बना रही है। हजारों की संख्या में तिब्बती दलाईलामा के प्रासाद के निकट एकत्रित होने लगे। तिब्बत के लोग चाहते थे कि दलाईलामा कार्यक्रम देखने के लिए चीनी सेना के कार्यालय न जाएं। उनका गुस्सा बढ़ता जा रहा था।

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लोगों में कितना गुस्सा था, इस बात का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि एक अधिकारी जिस पर चीनी समर्थक होने का शक था, उस पर लोगों ने हमला कर दिया। लोगों ने उसे चीन का दलाल बताते हुए वाहन से खिंच कर पीटने लगे, जिससे उसकी मौत हो गई। स्थिति इतनी खराब हो गई कि दलाईलामा ड्रैगन नृत्य देखने नहीं जा सके। पूरा वातावरण अंशात हो चुका था। उधर चीनी सेना व सैनिकों में भी क्रोध बढ़ने लगा था। सात दिनों तक चीनी सेना चुप्प रही। लेकिन 17 मार्च के दिन माओ की लाल सेना उसके कार्यालय से बाहर निकल कर अपनी बर्बरता व नृशंसता का नंगा प्रदर्शन शुरू कर दिया। ल्हासा के सड़कों, बाजारों में चीनी सैनिकों निर्ममता व ड्रैगन नृत्य देखने को मिला। दलाईलामा का प्रासाद नारबुलिंगा पर भी बम डाले गये। चीनी सेना के इस अमानवीय हमले में दस हजार से अधिक तिब्बतियों को मौत के घाट उतार दिया गया।

इस घटना को 61 साल बीत चुकी है। लेकिन अभी भी तिब्बतियों के मन में यह पीड़ा है। गत कुछ सालों से चीन तिब्बत के चीनीकरण के प्रयासों को और तेज किया है। तिब्बत के इलाकों में चीन से हान लोगों को बसाया जा रहा है। तिब्बती लड़कियों की शादी जोर जबरदस्ती हान लोगों से करवायी जा रही है। तिब्बत में तिब्बतियों को अल्पसंख्यक बनाने पर चीन सरकार आमादा है। तिब्बती संस्कृति को समाप्त करने की साजिश चल रही है।

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तिब्बत के लोग भले ही चीन की दासता में है लेकिन अभी भी उन्होंने चीन की गुलामी को मानसिक रूप से स्वीकार नहीं किया है। तिब्बत में दलाई लामा की फोटो रखने पर कारावास की सजा का प्रावधान होने के बाद भी हजारों तिब्बती दलाई लामा के फोटो के साथ जेल में जाने के लिए तैयार हैं। गत कुछ सालों में चीनी गुलामी के प्रतिवाद में दो सौ से अधिक बौद्ध भिक्षुओं ने आत्मदाह कर स्वतंत्रता प्राप्त की ललक को स्पष्ट किया है। भारत सरकार को भी चाहिए कि चीन के साथ वार्ता में तिब्बत के मामले को उठाये तथा उन्हें न्याय दिलाने का प्रयास किया। भारत की गलती के कारण ही तिब्बत चीन का गुलाम हो गया है। इसलिए प्रायश्चित भारत को ही करना पड़ेगा।

(यह लेखक के निजी विचार हैं)

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