इतिहास के साथ खिल्ली !

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शताब्दी पर एक ‘‘टाइम कैप्श्यूल‘‘ (संपुट) विक्टोरिया फाटक के पास जमीन में तीस फिट नीचे गाड़ा गया। गणतंत्र दिवस (26 जनवरी 2021) पर यह समारोह हुआ। कुलाधिपति मियां तारीक अंसारी ने गाड़ा था।

Update:2021-01-28 20:11 IST
इतिहास के साथ खिल्ली !

के. विक्रम राव

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय की शताब्दी पर एक ‘‘टाइम कैप्श्यूल‘‘ (संपुट) विक्टोरिया फाटक के पास जमीन में तीस फिट नीचे गाड़ा गया। गणतंत्र दिवस (26 जनवरी 2021) पर यह समारोह हुआ। कुलाधिपति मियां तारीक अंसारी ने गाड़ा था। इसमें क्या विवरण है? कौन से ऐतिहासिक तथ्य हैं? इनकी सूचना नहीं है। सदियों बाद खोज पर जब पढ़ा जायेगा तभी पता चलेगा। आशंका है कि संपूर्ण सत्य नहीं होगा। इस विश्वविद्यालय को राष्ट्रवादी और पंथनिरपेक्ष बतलाया गया होगा। वह आधुनिक इतिहास को झुठलाने जैसा होगा। अचरज यह है कि नरेन्द्र मोदी इस घटना के साक्षी रहे। क्लेश होता है।

इसी प्रकार की कोशिश 15 अगस्त 1972 को इन्दिरा गांधी ने भी की थी। उनके कैप्श्यूल को हजार वर्ष बाद निकाला जाना था पर जनता पार्टी सरकार के 1977 में ही इसे उखाड़ डाला। तब संदेह था कि कांग्रेसी प्रधानमंत्री ने इकतरफा इतिहास ही पेश किया होगा। भविष्य के इतिहासकारों को गुमराह करने हेतु।

भारतीय इतिहास का छात्र पूर्णतया समझता है

अब जानें अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय का इतिहास कैसा है ? इसे आधुनिक भारतीय इतिहास का छात्र पूर्णतया समझता है। जानामाना ‘‘अलीगढ़ आन्दोलन‘‘ इस्लामी पाकिस्तान की मांग के बुनियाद में रहा। प्रेरक और पथप्रदर्शक रहा। मोहम्मद अली जिन्ना ने इसे ‘‘पृथक मुस्लिम राष्ट्र की विचारधारा का पोषक बताया था।‘‘ आज भी भारत के तोड़क इस खलनायक की तस्वीर विश्वविद्यालय के छात्र यूनियन के प्रांगण में टंगी है। जिस आदमी ने हजारों हिन्दुओं की लाशें गिरवा दी, जिसकी एक अपील पर 14 अगस्त 1946 को कोलकाता में ‘‘डाइरेक्ट एक्शन‘‘ के दिन असंख्य बच्चे, बूढ़े, महिलायें मुस्लिम दंगाईयों द्वारा कत्ल कर दिये गये थे। उसका नाम था जिन्ना। साम्राज्यवादी अंग्रेजों का आज्ञाकारी अनुगामी था वह।

एक कट्टरवादी सामन्ती कुटुम्ब में जन्मे

अब देखिये अपने को मुसलमानों का खैरखाह होने का दावा करने वाले इस विश्वविद्यालय के संस्थापक का इतिहास क्या था? सर सैय्यद अहमद खान (17 अक्टूबर 1817 से 27 मार्च 1898) एक कट्टरवादी सामन्ती कुटुम्ब में जन्मे थे। उन्होंने उन्तालिस साल की भरी जवानी में फिरंगियों का सक्रिय साथ दिया था। तब (मई 1857 में) समूचा भारत अंग्रेजों की ईस्ट इंडिया कम्पनी से जंग कर रहा था। इन विलायती फौजियों के हमदर्द और सहकर्मी सैय्यद अहमद बने और भारतीय सम्राट बहादुर शाह जफर को उखाड फेंकने में उन्होंने गोरों की मदद की। तब प्रथम भारतीय स्वाधीनता संग्राम हो रहा था। युवा अहमद हिन्दुस्तानियों को गुलाम बनानेवालों की तरफ थे। उन्हें मलका विकटोरिया ने “सर” की उपाधि से नवाजा। उनकी खिदमतों की श्लाघा की। तुलना कीजिए मुस्लिम युनिवर्सिटी के इस संस्थापक की पड़ोसी (सहारनपुर में) स्थापित देवबंद के दारूल उलूम के शेखुल हिन्द महमूद अल हसन से। इन्हें साम्राज्यवादियों ने सुदूर माल्टा द्वीप की जेल में कैद रखा। वहां के कारगार में मौलाना महमूद ने नेक अकीदतमन्द होने के नाते रमजान के रोजे रखे। ब्रिटिश गुलामी को मौलाना ने ठुकराया था। रिहाई पर भारत लौटे तो दारूल उलूम की स्थापना की। अंगे्रजी राज उखाड़ने के लिए मुजाहिद तैयार किये। कौन कहलायेगा सर सैय्यद अहमद और मौलाना महमूदुल हसन में असली भारतभक्त ?

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हिन्दू-मुस्लिम अलगावाद के मसीहा

सर सैय्यद अहमद खान के मानसपुत्र थे मोहम्मद अली जिन्ना। फिरंगियों की झण्डाबरदारी में भर्ती होने के अर्धसदी पूर्व ही सैय्यद अहमद घोषणा कर चुके थे कि मुसलमान और हिन्दू दो कौमें है। वे हिन्दू-मुस्लिम अलगावाद के मसीहा थे। उनकी नजर में पर्दा और बुर्का अनिवार्य था। उन्होंने बाईबिल पर टीका लिखी। अपनी किताब “तबियत-उल-कलम” लिखने में उनका मकसद था कि मसीही और मुसलमानों का भारतीयों के विरूद्ध महागठबंधन बने। सत्ता ईसाईयों की, उपयोग उसका इस्लामियों के लिए और दमन हिन्दुओं का। उनका प्रचार था कि सात सदियों के राज के बाद भी मुसलमानों को 1857 में खोई हुकूमत में फिर कुछ हिस्सा मिले। इससे अंगे्रजी शासकों ने अपनी दृष्टि और नीति बदली। मुगल सलतनत के समय विलायती कम्पनी से भिड़ने के बावजूद ब्रितानी गवर्नर जनरलों ने मुसलमानों पर रहमोकरम और दरियादिली दर्शानी प्रारंभ का दी। परिणाम भारत के विभाजन में हुआ। इस ओर ठोस प्रक्रिया में सैय्यद अहमद ने मदरसातुल उलूम 1875 में स्थापना कर दी जो बाद में अलीगढ़ मुस्लिम युनिवर्सिटी के रूप में उभरी। इसे सर आगा खान ने पाकिस्तान के लिए “आयुधशाला” बताया था।

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जब दिल्ली में सर्वप्रथम इस्लामी सलतनत कायम हुई

सैय्यद अहमद द्वारा शहर अलीगढ़ को मोहम्मडन-एंग्लो-ओरियन्टल“ मदरसा हेतु चुनने का ऐतिहासिक आधार था। अलीगढ़ का प्राचीन नाम कोल था। यह आज जनपद की एक तहसील मात्र है। जब दिल्ली में सर्वप्रथम इस्लामी सलतनत (1210) कायम हुई थी तो पृथ्वीराज चैहान को हराकर मुहम्मद गोरी ने अपने तुर्की गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक को दिल्ली का साम्राज्य दे दिया। इस गुलाम सुल्तान के वंशज ऐबक ने सवा सौ किलोमीटर दूर कोल (अब अलीगढ़) पर कब्जा किया। उसने वहां की जनता को दो प्रस्ताव दिये। कलमा पढ़ों अथवा शमशीरे इस्लाम से सर कलम कराओ। हिन्दू आतंकित होकर मुसलमान बन गये। रातों रात अकिलयत फिर अक्सरियत हो गई। तो इसी शहर अलीगढ़ में सैय्यद अहमद ने पृथक इस्लामी राष्ट्र के बीज बोये। कभी यही पर हरिदास का मन्दिर था। धरणीधर सरोवर था। मुनि विश्वामित्र की तपोभूमि थी।

पाकिस्तान ने सैय्यद अहमद की जयंती की दूसरी सदी पर डाक टिकट जारी किया। स्कूली पुस्तकों में उन पर पाठ शामिल किये। कई इमारतों के नाम भी उन पर हैं। मगर बादशाह अकबर के नाम पर पाकिस्तान में न एक सड़क, न एक गली, न एक पार्क है। अलबत्ता औरंगजेब के नाम पर कई स्मारक हैं। सैय्यद अहमद की भांति।

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