श्रीराम जी, अयोध्या : पुरातत्व की सीमाएँ

Ayodhya: सन् 1992 में अयोध्या स्थित 'बाबरी मस्जिद' के ध्वस्त होने के बाद मिले बारहवीं शताब्दी के प्रस्तर-अभिलेख में में गहडवाल नरेश गोविन्द चन्द्र के शासन काल में वहां हरि विष्णु का भव्य मंदिर निर्मित कराए जाने का उल्लेख है।

Written By :  Dr Rakesh Tiwari
Update:2024-01-16 11:54 IST

Babri Masjid   (photo: social media )

Ayodhya: आज से लगभग 1500 वर्ष पूर्व रचित कालिदास के 'रघुवंशम्' (दशम् सर्ग) में रावण का वध करने हेतु भगवान् विष्णु के दशरथ पुत्र के रूप में जन्म लेने और त्रयोदश सर्ग के पहले श्लोक में राम नाम वाले हरि (विष्णु) का उल्लेख किया गया है-

अथात्मनः शब्दगुणं गुणज्ञः पदं विमानेन विगाहमानः।

रत्नाकरं वीक्ष्य मिथः स जायां रामाभिदानो हरिरित्युवाच।।'

(जिसका गुण शब्द है, उस आकाश में विमान पर चढ़े जाते हुए गुणी तथा राम कहलानेवाले विष्णु भगवान्, समुद्र को देखकर सीताजी से एकांत में बोले।)

सन् 1992 में अयोध्या स्थित 'बाबरी मस्जिद' के ध्वस्त होने के बाद मिले बारहवीं शताब्दी के प्रस्तर-अभिलेख में में गहडवाल नरेश गोविन्द चन्द्र के शासन काल में वहां हरि विष्णु का भव्य मंदिर निर्मित कराए जाने का उल्लेख है। ऐसे हरि-विष्णु राम के विषय में जितना कुछ लिखा गया है उन सबका तो नहीं किन्तु कुछ महत्वपूर्ण पक्ष समझने के लिए इस लेख के अंत में दिए गए प्रमुख सन्दर्भ देखे जा सकते हैं।

श्री राम और अयोध्या की काल-गणना हेतु लोक-परम्परा, साहित्य,खगोल विज्ञान के आधार पर अनेक अनुमान लगाए गए हैं। लगभग चौवीस सौ वर्ष पूर्व भी रामकथा की लोकप्रियता का अनुमान कौटिल्य के अर्थशाय में रावण के उल्लेख से लगाया जा सकता है। आज से लगभग बाइस-तेईस सौ वर्ष पूर्व के वाल्मीकि रामायण और दशरथ जातक में वर्णित रामकथा को विचार में ले कर बुद्ध-काल (आज से लगभग 2600 वर्ष) से बहुत पहले से ही इस कथा-परम्परा की पुष्टि होती है।

प्राचीन साहित्य में मिलने वाली राज-वंशावलियों में सम्मिलित राजाओं के शासन-काल के लिए 19-25 वर्ष का औसत निर्धारित करके आज से लगभग 3900-4000 वर्ष और अयोध्या में वैवस्वत मनु का काल आज से 5200 वर्ष के आस-पास का माना गया है। राम जी का उल्लेख इक्ष्वाकु वंश में मनु के बाद की पैसठवीं पीढ़ी के अयोध्या के राजा के रूप में किया गया है। कुछ विद्वान इन वंशावलियों में कुछ राजाओं के नाम न होने का तर्क दे कर इन तिथियों को और पीछे ले जाने का पक्ष रखते हैं।

'वाल्मीकि रामायण' में उल्लिखित घटनाओं के समय के आकाशीय दृश्यों में ग्रहों की स्थितियों की परिगणना करके खगोलशास्त्रियों ने सितारों की स्थिति की गणना करके श्रीराम के जन्म की अलग-अलग तिथियाँ, निर्धारित की हैं, यथा-ईसा पूर्व 4 दिसंबर 7 323 वर्ष (आज से 9344 वर्ष), ईसा पूर्व 11 फरवरी 4433 वर्ष (आज से 6454 वर्ष), ईसा पूर्व 10 जनवरी 5114 वर्ष (आज से 7135 वर्ष) तथा रामायण का काल ईसा पूर्व 11 000 (आज से 13021 वर्ष)।

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बहुसंख्यक बस्तियाँ बसायीं

बीसवीं शताब्दी के मध्य में पुराविदों और इतिहासकारों के एक समूह ने इन तिथियों को अतिरंजित मान कर नकार दिया। शतपथ ब्राह्मण के विदेध माथव उपाख्यान के आधार पर उन्होंने यह मत व्यक्त किया कि गंगा के घने वनों से आच्छादित मैदान बड़े पैमाने पर मानवीय निवास के उपयुक्त नहीं था। लगभग 700 ईसा पूर्व में पश्चिम भारत में सरस्वती नदी के तट से अश्वों के साथ गंगा घाटी में आए आर्यों ने यहाँ के वनों को लोहे के उपकरणों से काट और जलाकर बहुसंख्यक बस्तियाँ बसायीं। अतएव प्राचीन साहित्य और परम्परा में सहस्त्रों वर्ष प्राचीन मानी जा रही अयोध्या, काशी और मथुरा जैसे नगर भी 700 ईसा पूर्व से प्राचीन नहीं माने जा सकते।

अयोध्या की प्राचीनता और सांस्कृतिक कालानुक्रम सुनिश्चित करने के लिए सन् 1969-70 में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के डॉ. अवध किशोर नारायण के नेतृत्व में डॉ. टी. एन. राय और डॉ. पुरुषोत्तम सिंह द्वारा यहाँ स्थित 'जैन घाट', 'लक्ष्मण टीला', 'नल टीला' और 'कुबेर टीले' पर विधिवत् कराए गए पुरातात्विक उत्खनन में सबसे निचले स्तरों से 2600-2700 वर्ष पुराने माने जा रहे उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्रों (एन.बी.पी.) के टुकड़े प्रकाश में आए। 1972 में डॉ. एच. डी. सांकलिया अयोध्या और राम के जन्म को 700- 800 ईसा पूर्व (आज से लगभग 2800 वर्ष) से पीछे ले जाने की संभावना के साथ निश्चित प्रमाणों के मिलने तक पक्का अनुमान लगा पाने में असमर्थता व्यक्त की।

सांकलिया साहब के अभिमत के उपरान्त प्रो. बी. बी. लाल ने 'भारतीय उच्च अध्ययन संस्थान, शिमला और भारतीय पुरातत्त्व सर्वेक्षण के संयुक्त तत्वावधान में 'रामायण' में वर्णित पुरास्थल परियोजना' के अंतर्गत 1975- 1976 से 1979-1980 के बीच अयोध्या के झुमकी घाट, सीता की रसोई, अशर्फी भवन और हनुमान गढ़ी के निकट और जन्मस्थान वाली विवादित इमारत के पीछे पुरातात्विक उत्खनन कराया।' इस उत्खनन में अयोध्या के उत्तर-दक्षिण से पूरब-पश्चिम तक स्थित इन स्थलों और उसके पूर्व हस्तिनापुर के उत्खनन से प्रकाश में आए पुरावशेषों की प्राचीनता को दृष्टिगत रख लाल साहब ने रामकथा और अयोध्या की प्राचीनता का तुलनात्मक आकलन किया। उन्होंने जब तक की तब तक आँकी गयी लगभग 100 ईसा पूर्व साल की प्राचीनता के आधार पर अयोध्या को हस्तिनापुर, और 'श्रीराम जी' को 'श्री कृष्ण' से बाद का बता कर परम्परागत रूप से विष्णु के दशावतारों (पत्य, कूर्म, वराह, नृसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण/बलराम, बुद्ध और कल्कि) में से सातवें क्रम पर रामावतार के बाद कृष्णावतार होने का अभिमत प्रतिपादित करने का यत्न किया।

अयोध्या में तब तक सम्पादित उत्खनन में सबसे निचले आवासीय जमावों से प्रकाश में आए 'चित्रित गेरुए पात्रों वाली संस्कृति' (पेंटेड ग्रे वेयर) के अन्तिम चरण (अर्थात् लगभग 600-700 ईसा पूर्व) का माना और श्रृंगवेरपुर (जिला इलाहाबाद, रामायण में उल्लिखित वन-गमन के समय राम- लक्ष्मण-सीता द्वारा गंगा पार करने का स्थान) से भी इतने ही पुराने अवशेष मिलने का उल्लेख किया। उनके विचार से-'यदि राम अयोध्या में रहने वाले एक ऐतिहासिक व्यक्ति थे तो वे उस स्थान के सबसे निचले आवासीय जमावों के काल से पहले के नहीं हो सकते, जो कि 'पेंटेड ग्रे वेयर संस्कृति' के अंतिम चरण के हैं।' उन्होंने दावा किया कि 'क्या, कोई चीज प्राचीनतम से भी प्राचीनतम हो सकती है ? ('If Rama was a historical figure living at Ayodhya, it only stands to reason that his period could not have been earlier than that represented by the lowest occupation level of the site, viz the fag-end of the Painted Grey Ware Culture. For, indeed, can there be anything earlier than the earliest ?")।

इस सन्दर्भ में 'लाल साहब' ने अपने कथन के पक्ष में 'बृहदारण्यक उपनिषद्' का हवाला देते हुए रामायण में उल्लिखित विदेहराज जनक को पांडवों के वंशज परीक्षित के बाद होने का तर्क भी दिया।(10) पुरातात्विक प्रमाणों के आधार पर परिगणित की जा रही अयोध्या आदि की उपर्युक्त प्राचीनता के सर्वथा विपरीत प्राचीन साहित्यिक स्रोतों पर विश्वास व्यक्त करते हुए प्रोफ़ेसर विशुद्धानन्द पाठक, जैसे विद्वान यह मानते रहे कि एक दिन उनकी पुष्टि करने वाले पुरातात्विक साक्ष्य भी अवश्य प्रकाश में आएँगे।''


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द्वितीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व मानवीय आवासीय स्थलों के प्रमाण

लाल साहब के उपरोक्त अभिमतों के प्रकाशन के पूर्व बीसवीं शताब्दी के सातवें दशक में गंगा-सरयू संगम पर स्थित चिरांद (बिहार) और सोहगौरा (जिला गोरखपुर) से द्वितीय सहस्राब्दी ईसा पूर्व के मानवीय आवासीय स्थलों के प्रमाण पाए गए। आठवें दशक में उत्तर प्रदेश के प्रतापगढ़ जिले सराय नाहर राय, दमदमा और महदहा आदि स्थलों से आज से लगभग 10000 से 8000 वर्ष के बीच लघु प्रस्तर उपकरणों का प्रयोग करने वाले के आखेटक-संग्राहक (हंटर गेदरेर) मानव-समूहों की गतिविधियों के प्रभूत पुरातात्विक साक्ष्य मिले। ये लोग बांस-बल्ली के ढाँचे पर घास-फूस से छाई झोपड़ियों में निवास करते थे। तदनन्तर अगले बीस वर्षों में मध्य गंगा घाटी में स्थित बिहार में गंगा के किनारे मांझी, चेचर कुतुबपुर एवं रामचौरा, रोहतास जिले में सेनुवार, उत्तर प्रदेश में खैराडीह एवं भूनडीह (जिला बलिया), नरहन- चड़िहार, इमली डीह, धुरियापार एवं सिकरीगंज (जिला गोरखपुर), गुलरिहवा घाट (जिला बस्ती) आदि से भी द्वितीय शताब्दी ईसापूर्व के पुरावशेष मिल चुके हैं।

इक्कीसवी शताब्दी के पहले दशक में संत कबीर जिले में लहुरादेवा और इलाहाबाद (वर्तमान प्रयागराज) जिले में झूसी एवं हेतापट्टी से लगभग 10,000 वर्ष से मानवीय गतिविधियों के अवशेष मिलना विशेष रूप से उल्लेखनीय है। ध्यातव्य है कि इन अवशेषों में आज से लगभग 5000 वर्ष पूर्व के बाद जौ और गेहूं सहित अन्य अनाजों की अधिक अनुपात में उत्तरोत्तर खेती के साथ पहले ताम्र और फिर लौह उपकरणों का प्रयोग करने के प्रमाण भी सम्मिलित हैं। पुरा-वानस्पतिक, भूगर्भीय, पुरातात्विक शोध और प्राचीन साहित्य की पुनर्समीक्षा से गंगा घाटी में 'सवाना प्रकार' के भूभाग और 700 ईसा पूर्व के कई सौ मानवीय-बस्तियां रहे होने के वैज्ञानिक तथ्यों की पुष्टि की है। (12)

इस प्रकार ने गंगा के मैदान में अत्यन्त सघन अनवरत अगम्य वनों तथा 700 ईसा पूर्व में पश्चिम से यहाँ आए आव्रजकों द्वारा यहाँ के वनों को जलाने और लोहे के उपकरणों से काट कर बड़े पैमाने पर बसने की धारणा पूर्णतः निराधार सिद्ध हो चुकी है। इस क्षेत्र में कम से कम 10,000 वर्ष को क्रमिक रूप से मानवीय गतिविधियां तथा 3000-2000 ईसा पूर्व के मध्य उनकी बहुसंख्यक बसावटें बस चुकी थीं। लोहा गलने की तकनीक और लौह- उपकरणों का प्रयोग 1500 ईस्वी पूर्व के आस-पास ही होने लगा था। यहाँ तक कि अब तक प्राचीन काशी-क्षेत्र में भी 1500 ईसा पूर्व और प्राचीन अतिष्ठानपुर (झूसी, प्रयाग) की प्राचीनता 700 ईसा पूर्व से कहीं अधिक प्राचीन सिद्ध हो चुकी है।

यदि आकाशीय परिदृश्य में सितारों की स्थिति, प्राचीन साहित्य और परम्परा के अनुसार की गयी श्रीराम जी के जन्म आदि की गणना को सत्य मान लिया जाए तो दशकों पहले डॉ. जे.एन पाल के विचारों को ध्यान में रख कर श्रीराम जी को तत्कालीन मानव-समूहों में से किसी एक से सम्बद्ध करने के बारे में सोचना होगा। हो सकता है वो समूह अपने समय के अन्य समूहों से अधिक शक्तिशाली रहा हो और उनकी बसावट राजनीतिक केन्द्र भी रही हो। किन्तु यह केन्द्र निश्चय ही लोक-मन में समायी अट्टालिकाओं से युक्त अयोध्या नगरी जैसी रही होगी ऐसा नहीं लगता। उनकी सामाजिक संरचना, पारिवारिक मूल्यों, जीवन दर्शन, भाषा-बोली आदि के बारे में केवल अनुमान लगाने के यत्न ही किए जा सकते हैं।

यदि श्री राम जी को लगभग 4000 वर्ष पूर्व हुआ मानने के मत को माना जाए तो उन्हें तत्कालीन कृषक संस्कृति से सम्बद्ध करना होगा। तब के लोग आनुपातिक रूप से अधिक बड़े भू-भाग में फैली बस्तियों में, बांस- बल्लियों-काष्ठ और मिट्टी से निर्मित दीवारों वाले निवासों में रहते और अन्न- संग्रह के लिए बखार जैसी संरचनाएँ प्रयोग करते रहे। गंगा घाटी और दूर के क्षेत्रों की आबादियों से उनके पारस्परिक आदान-प्रदान होते रहे। अस्थि और ताम्र निर्मित बाणयों का मिलना इन समूहों में धनुर्विद्या के ज्ञान के सबल साक्ष्य हैं। तत्कालीन शिल्प आदि को विचार में लेकर इनकी मान्यताओं आदि के अधिक परिवर्द्धित स्वरुप की कल्पना तो की जा सकती है लेकिन इस युग की भाषा, दर्शन आदि आयामों के विषय में सीधे-सीधे कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं हैं।

जैसा भी रहा हो आज से लगभग 2600 वर्ष से पूर्व श्री राम-कथा लोक-परम्परा में इतनी व्याप्त हो चुकी थी कि उसके बाद के साहित्य यथा कौटिल्य के अर्थशास्त्र, वाल्मीकि रामायण और दशरथ जातक आदि में अलग- अलग रूपों में संदर्भित-उल्लिखित होने लगी। यहां तक कि वाल्मीकि रामायण में भी उन्हें भगवान् विष्णु का अवतार भी कहा जाने लगा। कुछ विद्वान कालिदास का काल प्रथम शती ईस्वी पूर्व और कुछ चार सौ ईस्वी सन् में मानते हैं। अतएव कालिदास रचित रघुवंश के त्रयोदश सर्ग के पहले श्लोक में राम नाम वाले हरि (विष्णु) का उल्लेख होना आज से लगभग 2200- 1621 वर्ष से पूर्व उन्हें विष्णु का अवतार माने जाने की सुनिश्चित पुष्टि करती है।

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अब आते हैं सरयू तीरे बसी अयोध्या की प्राचीनता के प्रश्न पर। सन 1980 तक यहाँ कराए गए पुरातात्विक उत्खननों के परिणामों के आधार पर जिस अयोध्या को अधिक से अधिक आज से 2600-2700 वर्ष प्राचीन होने के अभिमत प्रतिपादित किए जा रहे थे, वहीं सन् 2002 में माननीय उच्च न्यायालय के आदेश से जन्मस्थान क्षेत्र में सम्पादित पुरातात्विक उत्खनन में यहाँ से लगभग 3600 वर्ष प्राचीन रेडियो कार्बन तिथि (बी.एस.-2154, अंशशोधित ईसा पूर्व 1680-1320) (14 ) ने समकालिक मानवीय गतिविधियों की सम्भावना को बल प्रदान किया है। अयोध्या के पूरब में गुलरिहवा घाट और लहुरादेवा आदि के पुरास्थलों से मिले इससे भी कहीं अधिक पुराने अवशेषों को दृष्टिगत रखते हुए अयोध्या के विस्तृत टीले के किसी स्थान से उतने ही प्राचीन अवशेष मिल जाएं तो कोई अचरज नहीं होना चाहिए। सरयू के बाढ़ वाले जल-स्तर (फ्लड लेवल) से 15 मीटर की ऊंचाई वाली कगार पर बसी अयोध्या की प्रारम्भिक बसावट सम्भवतः कुबेर टीले और जन्म-स्थान के बीच से बहने वाली धारा के आस-पास कहीं रही हो सकती है। पुरातात्विकं शोध की अपनी सीमाएं होती हैं तदन्तर्गत जो मिल जाए उसे तो ब्रह्म सत्य समझना चाहिए किन्तु जो नहीं मिला उसे पूरी तरह से नकारा भी नहीं जा सकता।

सन्दर्भ :

1. 'रघुवंशम्', कालिदास ग्रंथावली (सम्पादक : आचार्य सीताराम चतुर्वेदी), 1980: पृष्ठ 1-182, चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन, वाराणसी।

2. वर्मा ठाकुर प्रसाद एवं स्वराज्य प्रकाश गुप्त 2001. अयोध्या का इतिहास एवं पुरातत्त्व ऋग्वेद काल से अब तक) नई दिल्ली. भारतीय इतिहास एवं संस्कृति परिषद्, ISBN 81-246-0181-Χ.

3. Pusalkar, A.D. 1951. Traditional History from the Earliest Times to the Accession of Parikshit, The Vedic Age (Ed. R.C. Majumdar et al), Fourth Impression 1965), pp. 271-322. Vidya Bhavan, Bombay.

Pathak, V.N, 1963. History of Koshal, pp. 84-114. New Delhi: Motilal Banarsidass Publishing House.

सिंह भगवती प्रसाद एवं ठाकुर प्रसाद वर्मा (संपा.), 1992. श्रीराम विश्व कोश (प्रथम खण्ड) वाराणसी. सिद्धार्थ प्रकाशन। पाठक, विशुद्धानन्द 1992. भारतीय इतिहास में राम', श्रीराम विश्वकोश प्रथम खंड (सम्पादक भगवती प्रसाद सिंह एवं ठाकुर प्रसाद वर्मा), पृष्ठ 112-113. वाराणसीः सिद्धार्थ प्रकाशन।

कला और संस्कृति में श्रीराम :: 102

Tewari, R. & B. R. Mani 1996. 'Further Archaeological Investigation in Sarayupar area, Pragdhara 6:149-168.

Banerjee, P. 1986. Rama in Indian Art & Thought. Vol. I-II. Delhi: Sundeep Prakashan. ISBN-81-85055-91-2.

Kapoor, Deepali 2003. Geomorphology and Morphotectonics of the Ghaghara Megafan, Ganga Plain: A Remote Sensing Perspective. Thesis submitted to the University of Lucknow University for the Degree of Doctor of Philosophy in Geology.

4. Bala, Saroj 2019. Ramayana Retold with Scientific Evidences. New Delhi: Prabhat Prakashan. ISBN-978-93-5322-261-1 बाला सरोज एवं दिनेश चंद्र अग्रवाल 2021, राम कथा सितारों से सुनिए गुरुग्राम : गरुड़ प्रकाशन, ISBN 978-1-942426-67-7

5. Indian Archaeology: A Review 1969-70: 40-41. Archaeological Survey of India. New Delhi.

6. H.D. Sankalia 1972. Ramayana Myth or Reality?, Peoples Publishing House, New Delhi.

7. Indian Archaeology: A Review 1976-77:52-53; 1979-80:76- 77.

8. Lal, B.B. 1978. Problems of Indian Archaeology: Planning Ahead, Purartattva No. 8: 1975-1976: 126-131.

9. Ibid.

10. Ibid.

कला और संस्कृति में श्रीराम :: 103

11. Pathak 1992. Op.cit.

12. Tewari, R. 2004. 'The Myth of Dense Forests and Human Occupation in the Ganga Plain, Man and Environment, Vol 2 102-116.

13. पाल, जे एन 1989. क्या राम प्रागैतिहासिक हैं? श्रीराम इन आर्ट आर्कियोलॉजी लिटरेचर (सम्पादक : बी. पी. सिन्हा), पृष्ठ 196-205. द बिहार पुराविद परिषद्, पटना.

14. Manjhi, H. & B.R. Mani 2003. Ayodhya: 2002-03, Excavations at the Disputed Site,

Report Submitted to the Special Full Bench, Lucknow the Hounrable High Court, Allahabad, pp. 271, Appendix-1, Archaeological Survey of India, Janpath, New Delhi.

(‘ कला और संस्कृति में श्रीराम’ पुस्तक से साभार । यह पुस्तक उत्तर प्रदेश के संस्कृति विभाग द्वारा मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ के संरक्षक , संस्कृति व पर्यटन मंत्री जयवीर सिंह के मार्ग दर्शन , प्रमुख सचिव पर्यटन व संस्कृति मुकेश कुमार मेश्राम के निर्देशन, संस्कृति निदेशालय के निदेशक शिशिर तथा कार्यकारी संपादक तथा अयोध्या शोध संस्थान के निदेशक डॉ लव कुश द्विवेदी के सहयोग से प्रकाशित हुई है। )

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