Medical Students Sucide: मेडिकल छात्रों द्वारा आत्महत्या की अनसुनी आवाज
Medical Students Sucide: मेडिकल छात्रों में कम उम्र की लड़कियों द्वारा अधिक आत्महत्या की गई है, मेडिकल के 24% से भी अधिक छात्र मानसिक तनाव से जूझ रहे होते हैं
Medical Students Sucide: मंगलुरु मेडिकल कॉलेज की 20 वर्षीय छात्रा ने की आत्महत्या, तेलंगाना में मेडिकल छात्रा ने रैगिंग के कारण आत्महत्या की, आंध्र प्रदेश की छात्रा ने प्रोफेसर पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा आत्महत्या की, बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के हॉस्टल में जूनियर डॉक्टर ने फांसी लगाई, 23 वर्षीय डॉक्टर ने की आत्महत्या 3 वरिष्ठों पर लगा आरोप, आंध्र प्रदेश में मेडिकल के छात्र ने हॉस्टल की इमारत से कूद कर आत्महत्या की, उत्तर प्रदेश में मेडिकल कॉलेज की छात्रा ने हॉस्टल में आत्महत्या की और अभी पिछले महीने देहरादून में पीजी मेडिकल के छात्र ने आत्महत्या की......... क्या है यह सब?
लिखने को तो सिर्फ एक समाचार मात्र पर समझे जाने को यह सिर्फ संख्या नहीं, आंकड़ा नहीं, समाचार नहीं बल्कि किसी पिता की जिंदगी भर की कमाई हुई पूंजी का दांव, किसी मां की आस, भाई-बहनों का सपना और समाज का, देश का एक और होनहार भविष्य सब एक झटके में इसके साथ ही खत्म हो जाता है। ये वे डॉक्टर थे या देश के होने वाले डॉक्टर थे जो हमारी जिंदगी को स्वस्थ रखने को तैयार हो रहे थे। मरीजों को समय पर सोना, पूरी नींद लेना, ठीक से पौष्टिक आहार करना, स्वस्थ जीवन शैली अपनाने की हिदायतें देने वाले इन रेजिडेंट डॉक्टरों, मेडिकल के छात्रों को खुद का भोजन सही समय पर करने का, 36-48 घंटे लगातार ड्यूटी कर सोने का समय भी न मिले तो देश के भविष्य के डॉक्टर्स के साथ-साथ देश के स्वास्थ्य के साथ भी यह खुला खिलवाड़ है। कटघरे में है हमारा मेडिकल एजुकेशन सिस्टम और राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग और हमारी सरकारें क्योंकि नीतिगत तौर पर यह जिम्मेदारी तो उन्हीं की है।
मेडिकल शिक्षा में ही क्यों यह हर क्षेत्र में देखा जाता है कि हमारे वरिष्ठों ने अगर पहले कोई खराब माहौल या गलत व्यवहार को झेला है तो वे अपने बाद वालों के साथ भी वैसा ही बर्ताव करने लग जाते हैं और चाहते हैं कि जो उन्हें मिला उसे उनके कनिष्ठ भी सहन करें। अब हमारी जेन जेड या जेन अल्फा पीढ़ी न तो शारीरिक रूप से और न हीं मानसिक तौर पर उतनी मजबूत या धैर्यवान है कि वह किसी भी तरह का अधिक दबाव बर्दाश्त कर सके और यह वरिष्ठ पीढ़ी को समझना होगा कि आज के समय में अधिक दबाव में काम करना काम को बेहतर नहीं करता बल्कि उनकी क्षमता को और भी खत्म कर देता है। इसके साथ ही आधारभूत सुविधाओं का अभाव भी मेडिकल छात्रों और रेजीडेंट डॉक्टरों को मानसिक और शारीरिक रूप से परेशान कर देता है।
इस तरह के दबाव एकेडमिक दबाव से कहीं आगे तक फैले हुएं होते हैं। कहीं सीनियर छात्रों द्वारा रैगिंग से परेशान कर आत्महत्या के लिए उकसाया और उत्पीड़ित किया जाता है। यहां तक कि कॉलेज और अस्पताल प्रशासन को शिकायत दर्ज करने के बाद भी कोई कार्यवाही नहीं की जाती है। कहीं-कहीं छात्र खुद अपनी बीमारी से भी परेशान होकर आत्महत्या जैसा कदम उठा लेते हैं। यह सन् 2019 की बात है कि मुंबई के मेडिकल कॉलेज में महिला डॉक्टर ने वरिष्ठ सहकर्मियों द्वारा जातिवादी गालियां देने के बाद आत्महत्या कर ली। यह भी एक बड़ी समस्या है कि देश के नेता आरक्षण का प्रतिशत बढ़ाते जाते हैं और सामान्य जाति वर्ग वाले विद्यार्थियों में इस बात का कहीं ना कहीं रोष घर कर जाता है कि अगर यह आरक्षण व्यवस्था न हो तो कितने ही अन्य सामान्य श्रेणी के छात्रों को वहां दाखिला मिलता और इसके कारण वे दाखिला लेने से रह जाते हैं।
चुंकि कहीं भी आरक्षित कोटा वालों के लिए सामान्य वर्ग से दाखिले के लिए प्राप्तांक का प्रतिशत भी कम होता है तो यह भी दोनों के लिए ही मानसिक उत्पीड़न और हीन भावना का कारण बनता है, इससे भी छात्रों का आत्मविश्वास कम हो जाता है और उनकी पढ़ाई में भी है बाधा डालता है । उसके बाद भी कुछ अन्य घटनाओं में यह जातिवादी उत्पीड़न देखने में आया। एक मेडिकल कॉलेज में एक छात्रा को उसके ही विभाग के प्रोफेसर द्वारा यौन पीड़ित किया जा रहा था। उनके खिलाफ शिकायत करने से छात्राओं को जानबूझकर फेल किया जाता रहा। क्योंकि उसके कारण उन्हें अपने प्रोफेसर और परिवार या अन्य सहविद्यार्थियों के द्वारा बुलिंग का सामना करना पड़ता है।
कहीं- कहीं यह भी देखने में आता है कि छात्र परिजनों के दबाव में पीजी में प्रवेश तो ले लेते हैं जबकि करना कुछ और चाहते थे।आत्महत्या के आंकड़ों का एक मुख्य कारण पढ़ाई छोड़ने से हतोत्साहित करने के लिए एक अच्छी खासी रकम जुर्माने के तौर पर देनी होती है ।कहीं-कहीं तो यह रकम 50 लख रुपए तक है। इसके साथ ही अगले 2 या 3 साल तक इसके लिए कहीं परीक्षा भी नहीं दे सकते हैं, यह भी उन्हें आत्महत्या के लिए मजबूर भी कर देता है। कमजोर छात्रों के लिए उचित परामर्श सेवाओं का अभाव, परिवार आधारित तनाव , अत्यधिक शैक्षिक भार, परीक्षा का तनाव ,पैसे की कमी, अमानवीय रैगिंग, शोषण, रिलेशनशिप और पढ़ाई के बीच सामंजस्य न बिठा पाने का प्रेशर, प्रोफेसर द्वारा परीक्षा में फेल कर देने का यातनापूर्ण दबाव, दैनिक ड्यूटी की अधिक जिम्मेदारियां, कहीं-कहीं पर भाषा संबंधी बाधाएं भी मुख्य रूप से इसके कारक बनते हैं।
मेडिकल छात्रों में कम उम्र की लड़कियों द्वारा अधिक आत्महत्या की गई है। मेडिकल के 24% से भी अधिक छात्र मानसिक तनाव से जूझ रहे होते हैं और उनमें आत्महत्या के लक्षण किसी हद तक पहले से सामने भी आने लग जाते हैं।राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग के आंकड़े बताते हैं कि पिछले पांच सालों में कम से कम 122 मेडिकल छात्रों ने आत्महत्या की , जिनमें से 64 एमबीबीएस और 58 पोस्ट-ग्रेजुएट कोर्स के छात्र हैं। जबकि 1,270 ने पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। सिर्फ उनके लिए योग के सेशन अनिवार्य कर देना या साइकोलॉजिस्ट की व्यवस्था कर देना भर ही काफी नहीं होता है। इसके साथ ही उनके लिए अन्य बहुत से बदलावों की भी आवश्यकता है। अगर देश के स्वास्थ्य के साथ खिलवाड़ नहीं करना चाहते हैं तो देश के स्वास्थ्य को संभालने वाले इन डॉक्टरों की समस्याओं के साथ भी कोई खिलवाड़ कैसे संभव हो सकता है?