नेताजी से मिलती भारत के मजदूर आँदोलन को ताकत और उर्जा
नेताजी सुभाष चंद्र बोस दस वर्षों तक टाटा स्टील मजदूर संघ के साल 1928 से 1937 तक लगातार अध्यक्ष भी रहे थे। वे मजदूरों के हकों को लेकर बहुत संवेदनशील और सक्रिय थे।
आर.के. सिन्हा
लखनऊ: आजाद हिंद फौज के संस्थापक और भारत की स्वतंत्रता आन्दोलन में अहम नेतृत्व की भूमिका निभाने वाले नेताजी सुभाषचंद्र बोस सिर्फ स्वाधीनता सेनानी ही नहीं थे। नेताजी देश के उन महान नेताओं में से थे जिनका देश का हर इंसान सम्मान करता है। उनके प्रति कृतज्ञता का भाव रखता है। जहां उनके देश को आजाद करवाने के योगदान पर लगातार चर्चाएँ होती ही रहती हैं, वहीँ उनकी शख्सियत के एक अन्य पहलू नजरअंदाज सा ही कर दिया जाता है। वे एक प्रखर मजदूर नेता भी थे। अब आवश्यकता इस बात की है कि नेताजी के मजदूर नेता के रूप में किए कार्यों और संघर्षों पर भी गहन शोध हो ताकि देश की युवा पीढ़ी को उनके बारे में और अधिक जानकारी मिल सके।
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वे थे बोनस दिलवाने वाले
नेताजी सुभाष चंद्र बोस दस वर्षों तक टाटा स्टील मजदूर संघ के साल 1928 से 1937 तक लगातार अध्यक्ष भी रहे थे। वे मजदूरों के हकों को लेकर बहुत संवेदनशील और सक्रिय थे। उनकी समस्याएं और मसले लगातार मैनेजमेंट के समक्ष उठाते थे। जमशेदपुर में मजदूरों का नेतृत्व करने के दौरान ही नेताजी को दो-दो बार अखिल भारतीय मजदूर संघ काँग्रेस (एटक) का राष्ट्रीय अध्यक्ष भी चुना गया।
टाटा स्टील की यूनियन का गठन 1920 में हुआ था
टाटा स्टील की यूनियन का गठन 1920 में हुआ था। तब वहां पर भारतीय अफसर बहुत कम होते थे। नेताजी ने टाटा स्टील के चेयरमेंन एन.बी. सकतावाला को 12 नवंबर, 1928 को लिखे एक पत्र में कहा कि कंपनी के साथ एक बड़ी दिक्कत यह भी है कि इसमें भारतीय अफसर बहुत कम हैं। ज्यादातर अहम पदों पर ब्रिटिश ही बैठे हैं। उन्होंने आगे लिखा कि टाटा स्टील का वस्तुतः भारतीयकरण होना चाहिए । इससे यह और बुलंदियों पर जाएगी। यह तथ्य सर्वविदित नहीं है कि नेताजी के हस्तक्षेप के बाद ही टाटा स्टील ने अपना पहला भारतीय जनरल मैनेजर बनाया। नेताजी के आहवान पर ही टाटा स्टील में 1928 में हड़ताल भी हुई । उसके बाद से ही टाटा स्टील में मजदूरों को बोनस मिलना शुरू हुआ।
बोनस देने वाली देश की पहली कंपनी बनी टाटा स्टील
टाटा स्टील इस लिहाज से बोनस देने वाली देश की पहली कंपनी बनी। उसके बाद ही अन्य बड़ी भारतीय कंपनियों ने अपने कर्मियों को बोनस देना चालू किया। नेताजी एक बार जमशेदपुर में मजदूरों द्वारा आयोजित सभा की अध्यक्षता कर रहे थे, तभी उनपर कातिलाना हमला भी किया गया था । अचानक कुछ लोग मंच पर आ गए। वे नेताजी और मंच पर उपस्थित अन्य लोगों से मारपीट करने लगे। निहत्थे मजदूर भी जब हमलावरों पर भारी पड़ने लगे, तो वे भाग खड़े हुए। हमलावर नेताजी की हत्या की नीयत से आए थे, किन्तु वे सफल नहीं हो सके । मजदूरों की बड़ी संख्या ने एकजुट होकर उन्हें बचा लिया था I
नामधारी सिखों के नायक नेताजी
अब भी नेताजी के प्रति भारतीय जनमानस के ह्रदय में गहरे सम्मान का भाव है। इसी तरह का एक समाज नामधारी सिखों का भी है। सिख चूड़ीदार पायजामा और टाइट कुर्ते पहनते नामधारी सिख मिलते ही रहते हैं। ये नेताजी सुभाष चंद्र बोस को भी अपना नायक ही मानते हैं । करीब-करीब हरेक नामधारी सिख के घर में आपको नेताजी का एक चित्र टंगा मिलेगा या उनके जीवन से जुड़ी कोई किताब मिल जाएगी। नेताजी का जन्मदिन आते ही बुजुर्ग नामधारी नेताजी का कृतज्ञता के भाव से नेताजी का स्मरण करने लगते हैं। अब सवाल कर सकते हैं कि नेताजी का नामधारी सिखों से कैसे संबंध स्थापित हो गया? सवाल वाजिब है। दरअसल नेताजी का नामधारी सिखों से संबंध सन 1943 के आसपास स्थापित हुआ था। तब नेताजी थाईलैंड में भारत को अंग्रेजी राज की गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए वहां पर बसे भारतीय समाज के संपर्क में थे।
तमाम नामधारी बिरादरी मौजूद थी
एक दिन नेताजी का थाईलैंड की नामधारी बिरादरी के प्रमुख सरदार प्रताप सिंह के बैंकॉक स्थित आवास में जाने का कार्यक्रम बना। वहां पर तमाम नामधारी बिरादरी मौजूद थी। ये लगभग सभी कपड़े के व्यापारी थे। सरदार प्रताप सिंह के घर में पहुंचकर नेताजी ने आहवान किया कि वे उनकी धन इत्यादि से मदद करें ताकि वे गोरी सरकार को उखाड़ फेंक दें। यह सुनते ही वहां पर मौजूद नामधारी सिखों और दूसरे भारतीयों ने धन, गहने और अन्य सामान नेताजी को देना चालू कर दिया। यह सब नेताजी खुद देख रहे थे। पर नेताजी को कुछ हैरानी हुई कि उनके मेजबान ने उन्हें अंत तक कुछ नहीं दिया। तब नेताजी ने सरदार प्रताप सिंह से व्यंग्य के लहजे में पूछा, ''तो आप नहीं चाहते कि भारत माता गुलामी की जंजीरों से मुक्त हो।''
सरदार प्रताप सिंह ने विनम्रता से कहा
जवाब में सरदार प्रताप सिंह ने विनम्रता से कहा, ''नेताजी, मैं इंतजार कर रहा था कि एक बार सारी संगत अपनी तरफ से जो देना है, दे दें। उसके बाद मैं उन सबके बराबर रकम आपको मैं अलग से दूंगा।'' यह सुनते ही नेताजी ने सरदार प्रताप सिंह को गले लगा लिया। उन्हीं सरदार प्रताप सिंह का सारा कुनबा राजधानी की साउथ दिल्ली और गुड़गांव में रहता है। उनके पुत्र सरदार सेवा सिंह नामधारी पहले बैंकाक और फिर दिल्ली में नेताजी का जन्म दिन मनाते रहे। वे उन पलों के साक्षी थे, जब नेताजी उनके बैंकाक स्थित घर में आए थे। वे राजधानी दिल्ली में राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ से भी दशकों सक्रिय रूप से जुड़े रहे। बिहार और झारखंड के दिग्गज नेता इंद्रजीत सिंह नामधारी भी इसी बिरादरी से संबंध रखते हैं।
उनसे अब भी देश के करोड़ों नौजवान प्रेरित होते रहते हैं
निश्चित रूप से नेताजी का व्यक्तित्व ही इस तरह का था कि उनसे अब भी देश के करोड़ों नौजवान प्रेरित होते रहते हैं। उन्होंने भारत माता को अंग्रेजों के शासन से मुक्ति दिलाने के लिए खुद को मिली आईसीएस अफसर की शानदार नौकरी को लात मार दी थी। भारतीय समाज उन्हें किस श्रद्धा भाव से देखता है इसे देखने के लिए कभी राजधानी के सुभाष पार्क का सुबह चक्कर लगा लेना चाहिए। वहां पर सुबह के वक्त पुरानी दिल्ली के दर्जनों लोग नेताजी की आदमकद मूर्ति के सामने आदर भाव से हाथ जोड़ खड़े होते हैं।
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हर साल पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाएगा
पुरानी दिल्ली वालों के लिए सुबह-शाम घूमने का एकमात्र स्तरीय पार्क सुभाष पार्क ही है। इसे पहले एडवर्ड पार्क कहा जाता था। इधर नेता जी की अपने साथियों के साथ लगी आदमकदम मूर्ति का अनावरण 23 जनवरी, 1975 को उनके जन्म दिन पर तब के उप राष्ट्रपति बी.डी.जत्ती ने किया था। इस बीच, यह देश के लिए सुखद समाचार है कि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की जयंती (23 जनवरी) अब हर साल पराक्रम दिवस के रूप में मनाया जाएगा।
(लेखक वरिष्ठ संपादक, स्तभकार और पूर्व सांसद हैं )
(यह लेखक के निजी विचार हैं)
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