क्या प्रियंका गांधी लगा पायेंगी कांग्रेस की नैया पार
इन दिनों प्रियंका गांधी (Priyanka Gnadhi) न केवल उत्तर प्रदेश की प्रभारी हैं। बल्कि कांग्रेस के संभावित रणनीतिकार प्रशांत किशोर (Prashant Kishor ) ने प्रियंका गांधी को अमेठी या रायबरेली के किसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने की सलाह दी है।
उन्नीस सौ नवासी में उत्तर प्रदेश की विधानसभा (Vidhansabha) में कांग्रेस के नेता व राज्य के कई बार मुख्यमंत्री रहे नारायण दत्त तिवारी (Narayan Dutt Tiwari) लक्ष्मण रेखा लांघने का पाठ पढ़ रहे थे। तब उन्हें ही क्या कांग्रेस के किसी भी नेता को यह इलहाम नहीं रहा होगा कि कांग्रेस को उत्तर प्रदेश में अपने वजूद तलाशने के लिए गांधी परिवार के किसी सदस्य को विधानसभा चुनाव (Vidhansabha Election) लड़ने तक उतरना पड़ सकता है। इन दिनों प्रियंका गांधी (Priyanka Gnadhi) न केवल उत्तर प्रदेश की प्रभारी हैं। बल्कि कांग्रेस के संभावित रणनीतिकार प्रशांत किशोर ने प्रियंका गांधी को अमेठी या रायबरेली के किसी विधानसभा सीट से चुनाव लड़ने की सलाह दी है। आज तक गांधी नेहरू परिवार को जो भी सदस्य सियासत में उतरा है तो उसका लक्ष्य संसद ही रही हैं। विधानसभा की ओर किसी ने मुँह नहीं किया। ऐसे में यदि कांग्रेस पार्टी अपने किसी चमकते सितारे को उत्तर प्रदेश के 2022 के विधानसभा चुनाव में उतारने को सोच रही है तो उसकी व्याकुलता को आसानी से समझा जा सकता है।
वह भी तब कांग्रेस केवल छह सात फ़ीसदी वोट पर सिमट कर रह गयी है। जब उत्तर प्रदेश में मायावती (Mayawati), अखिलेश यादव (Akhilesh Yadav) व योगी आदित्यनाथ (Yogi Adityanath) सरीखे स्टालवर्ड जैसे लीडर हों। केंद्र व राज्य में भाजपा (BJP) की डबल इंजन सरकार है।
उत्तर प्रदेश की सियासत में कांग्रेस पार्टी ने लम्बे समय तक राज किया। लेकिन 80 के दशक में पार्टी को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा। क्षेत्रीय दलों की बढ़ती पैठ ने कांग्रेस को अब सत्ता में बने रहने देने में नित नई परेशानियां पेश करना शुरू कर दिया था। इस बीच राजीव गांधी सरकार (Rajiv Gandhi government) द्वारा शाह बानो मामला और अयोध्या में राम मंदिर ( Ayodhya Ram temple) का ताला खुलवाने के फैसले ने उसकी आगे की राहें और मुश्किल कर दीं। नतीजा, 1989 आते-आते कांग्रेस पार्टी हाशिए पर आ गई।
वर्तमान में अपने उसी तीन दशक पुरानी खोई सियासत को दोबारा पाने की जद्दोजहद से देश की सबसे पुरानी पार्टी जूझ रही है। यूपी कांग्रेस की प्रभारी महासचिव प्रियंका गांधी विधानसभा चुनाव करीब आते ही एक बार फिर खासी सक्रिय दिख रही हैं।
प्रियंका गांधी नई दिल्ली में 12 जनवरी, 1972 को जन्मीं थीं। वे गांधी-नेहरू परिवार की इकलौती बेटी हैं। प्रियंका गांधी ने अपनी शुरुआती शिक्षा नई दिल्ली के मॉडर्न स्कूल, कॉन्वेंट ऑफ जीजस एंड मैरी से हासिल की। दिल्ली यूनिवर्सिटी के जीसस एंड मैरी कॉलेज से अपने ग्रेजुएशन की पढ़ाई आर्ट्स स्ट्रीम से पूरी की, जिसमें मनोविज्ञान उनका मुख्य विषय था।
प्रियंका जब महज 13 साल की थीं, तब से ही रॉबर्ट और प्रियंका को एक दूसरे से प्यार हो गया था। दरअसल, रॉबर्ट वाड्रा की बहन प्रिंयका की दोस्त थी। रॉबर्ट, राहुल गांधी के अच्छे मित्र थे। प्रियंका गांधी और रॉबर्ट वॉड्रा, 18 फरवरी साल 1997 में शादी के बंधन में बंध गए। इन दोनों के दो बच्चे हैं - बेटे का नाम रेहान और बेटी का नाम मिराया है।
राजनीतिक सफर
प्रियंका गांधी ने 16 साल की उम्र में ही अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया था। इसके बाद वे अपनी मां सोनिया गांधी और भाई राहुल के साथ पार्टी के सम्मेलनों, अभियानों और रैलियों में हिस्सा लेती रहीं। 2004 में हुए आम चुनाव में जब सोनिया गांधी ने कांग्रेस के राष्ट्रीय अध्यक्ष के तौर पर पद संभाला, इस दौरान प्रियंका गांधी ने एक अभियान प्रबंधक के तौर पर अपनी भूमिका निभाई। 2007 में जब यूपी विधानसभा के चुनाव हुए थे, तो प्रियंका गांधी ने अपने परिवारिक चुनावी क्षेत्र अमेठी और रायबरेली की 10 सीटों पर कांग्रेस का जमकर प्रचार किया था। 2009 और 2014 में हुए आमचुनाव में भी उन्होंने कांग्रेस पार्टी के प्रचारक के तौर पर अपनी भूमिका निभाई थी।
2019 में उन्होंने अधिकारिक तौर पर राजनीति में अपना शंखनाद किया।
प्रियंका गांधी की मजबूती
- नेहरू-गांधी का नाम। भारत की सबसे पुरानी पॉलिटिकल फैमिली।
- राहुल की अपेक्षा, कांग्रेसियों में प्रियंका की ज्यादा स्वीकार्यता।
- सोनिया और राहुल की पूरी बैकिंग।
- साफ सुथरा रिकॉर्ड।
- इंदिरा गांधी से मिलती जुलती छवि।
- महिलाओं में सहज स्वीकार्यता।
- एक सहज लेकिन निर्णय लेने और नेतृत्व करने की क्षमता की छवि।
कुछ खास बातें
- बढ़िया फोटोग्राफर, 12 साल की उम्र से फोटोग्राफी का शौक।
- मनोविज्ञान में ग्रेजुएट डिग्री, बुद्धिस्ट स्टडीज़ में मास्टर्स डिग्री।
- बौद्ध दर्शन की अनुयायी, विपश्यना को अपना रखा है।
कांग्रेस के चुनावी आंकड़े और मत प्रतिशत सत्ता में चौथे नंबर पर
कांग्रेस पार्टी के चुनावी आंकड़े और मत प्रतिशत को देखें तो यह तीन दशक से प्रदेश की सत्ता में चौथे नंबर पर ही अटकी पड़ी है। शेष तीन स्थानों के लिए बसपा, सपा और बीजेपी में रस्साकशी होती रही है। 1989 में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस पार्टी ने 27.90 प्रतिशत वोट के साथ 94 सीट जीती। 1991 में 17.32 प्रतिशत वोट के साथ 46 सीटें जीती। 1993 में 15.08 प्रतिशत वोट केसाथ 28 सीटें जीती।1996 में 8.35 प्रतिशत वोट के साथ 33 सीटें जीती। 2002 में 8.96 फीसदीवोट के साथ 25 सीटें जीती। 2007 में 8.61 प्रतिशत वोट के साथ 22 सीटें जीती। 2012 में 11.65 प्रतिशत वोट के साथ 28 सीटें जीती। 2017 में 6.25 प्रतिशत वोट के साथ 7 सीटें जीतीं।
कांग्रेस की निरंतर पराभव का कारण पार्टी के नेता व उसकी नीतियाँ रही हैं। यूपी की सियासत में समय-समय पर विभिन्न नेताओं ने कांग्रेस की नीतियों का विरोध किया। इन नेताओं का कांग्रेस को सत्ता से हटाने के लिए संघर्ष जारी रहा। इनमें डॉ राम मनोहर लोहिया (Dr. Ram Manohar Lohia) व दीनदयाल उपाध्याय (Deendayal Upadhyay) प्रमुख रहे।
पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या
साल 1991 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की हत्या कर दी गई थी। इसके बाद राजनीति छोड़ चुके पीवी नरसिम्हा राव (PV Narasimha Rao) को फिर वापस दिल्ली बुलाकर प्रधानमंत्री बनाया गया। इसके बाद पार्टी के भीतर हालात कुछ ऐसे बने कि यूपी के पूर्व मुख्यमंत्री नारायण दत्ततिवारी ने अलग पार्टी बना ली। उन्होंने पार्टी का नाम कांग्रेस टी रखा। हालांकि कांग्रेस की लगातार गिरती हालत के मद्देनजर बाद में एनडी तिवारी ने अपनी पार्टी का विलय कांग्रेस पार्टी में कर दिया। बावजूद कांग्रेस पार्टी की गिरावट जारी रही। कल्याण सिंह अयोध्या आंदोलन तो समाजवादी पार्टीके मुलायम सिंह यादव और मुस्लिम तो मायावती दलितों की रहनुमा बनकर उभरी थीं। लेकिन कांग्रेस के हाथ कुछ नहीं लगा। ये वो दौर था जब कास्ट पॉलिटिक्स उफान पर थी। हालांकि बीच मेंबेहद कम समय के लिए एन.डी. तिवारी को एक बार फिर कमान मिली। लेकिन अब कुछ नया करनेके लिए उनके पास रहा नहीं था।
नारायण दत्त तिवारी, जितेंद्र प्रसाद,सलमान खुर्शीद, निर्मल खत्री, रीता बहुगुणा जोशी, मधुसूदनमिस्त्री, राजबब्बर और उसके बाद गुलाम नबी आज़ाद ये वो नाम हैं जिन्हे कांग्रेस आलाकमान नेअपनी खोई जमीन तलाशने के लिए बारी-बारी से कोई न कोई ज़िम्मेदारी दी। लेकिन ये कोईकरिश्मा करने में विफल रहे। यूपी कांग्रेस के वर्तमान अध्यक्ष अजय कुमार लल्लू भी इसी कड़ी मेंहैं। लेकिन इन पर अभी कुछ कहना थोड़ी जल्दबाजी होगी।
पर इतना तो सच है कि उत्तर प्रदेश में पार्टी को खड़ा करने के लिए जो भी जुगत किये गये वे सब केसब उल्टा पड़ते चले गये। मसलन, पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने समाजवादी पार्टी केअखिलेश यादव से समझौता किया। जब यह समझौता हुआ उससे ठीक दो तीन दिन पहले तककांग्रेस पार्टी के प्रचार की पंच लाइन थी- " सत्ताइस साल यूपी बेहाल।" तब अखिलेश यादव पारिवारिक झगड़े के चलते कांति खो रहे थे। सत्ता विरोधी रूझान के शिकार थे। कांग्रेस के नेताओं को यह नहीं भूलना चाहिए था कि यादव कभी भी उसका मतदाता नहीं रहा है। जब कांग्रेस के चरमके दिन थे तब भी वह कांग्रेस विरोध का स्वर था। दूसरे उत्तर प्रदेश में मायावती को छोड़ कोई नेता अपना वोट ट्रांसफ़र नहीं करा सकता।
कांग्रेस प्रदेश की सभी 403 सीटों पर लड़ने का मन बना रही
कांग्रेस ने बसपा के साथ मिलकर भी चुनाव लड़ा। इस प्रयोग में भी कांग्रेस को कुछ हाथ नहीं लगा। आज जब कांग्रेस प्रदेश की सभी 403 सीटों पर लड़ने का मन बना रही है तब उसके पास उम्मीदवारों का टोटा है। आज कांग्रेस को गठबंधन में शिरकत करना चाहिए। ताकि वह भाजपा को हराने के लिए उत्सर्ग करने का श्रेय ले सके। उसे कोशिश करना चाहिए कि उसके पास सत्ता की चाबी हो। क्योंकि समूची सत्ता उसके लिए दूर की कौड़ी है। सत्ता की चाबी इस बार ज़्यादा महत्वपूर्ण इसलिए होगी क्योंकि हाल फ़िलहाल यहाँ त्रिशंकु विधानसभा के आसार दिख रहे हैं। पर यह सब तभी संभवहै जब प्रियंका गांधी उत्तर प्रदेश के मैदान में उतरें। नरेंद्र मोदी गुजरात छोड़कर बनारस आये। उनके बनारस से लदने का ही परिणाम था कि बिना एक भी मुस्लिम उम्मीदवार के गठबंधन सहित बहत्तरसीटें अपने झोली में कर दिखाया।
कॉंग्रेस को अपने लिए नये नेता, नया एजेंडा तलाशना होगा। नये मतदाता भी क्रियेट करने होंगे। क्योंकि जातीय राजनीति पर मायावती व अखिलेश यादव ने अपने अपने तरह से पकड़ बना रखी है। नरेंद्र मोदी की भाजपा में केंद्र से लेकर राज्य तक यह साबित कर दिखाया है अल्पसंख्यक तुष्टिकरण के लिए भी अब कोई जगह नहीं बची है। समय इतना कम है कि सभी 403 सीटों पर यह कर सकें। ऐसे में कांग्रेस को किसी नये समीकरण व जोड़ घटाव की ज़रूरत है। जो हाल फ़िलहाल संगठन में दिख नहीं रहा है।