सत्ता के लिए होती ही रही है राजनीतिक घरानों में कलह
सत्ता के खेल में त्रेता में श्रीराम चंद्र को राजतिलक से पूर्व ही वनवास जाना पड़ा तो द्वापर में पांडवों को कौरवों से महाभारत लड़ना पड़ा। शायद इसीलिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहते थे कि राजनीति में कोई स्थाई मित्र या शत्रु नहीं होता हैं।
मनीष श्रीवास्तव
लखनऊ: समय चाहे कोई भी हो, देश की राजनीति में हमेशा रिश्ते का भ्रम टूटा है। सत्ता के खेल में त्रेता में श्रीराम चंद्र को राजतिलक से पूर्व ही वनवास जाना पड़ा तो द्वापर में पांडवों को कौरवों से महाभारत लड़ना पड़ा। शायद इसीलिए पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहते थे कि राजनीति में कोई स्थाई मित्र या शत्रु नहीं होता हैं।
हालांकि अटल जी ने रिश्तों का जिक्र नहीं किया लेकिन राजनेताओं ने कई बार रिश्तेदारी को भी धत्ता बताते हुए सत्ता पर कब्जे की पूरी कोशिश की। महाराष्ट्र के दिग्गज राजनेता शरद पवार और अपने चाचा को गच्चा देकर सत्ता हासिल करने का भतीजे अजित पवार मंसूबा भले ही परवान न चढ़ पाया हो लेकिन भारतीय राजनीति इस तरह के उदाहरणों से भरी पड़ी है।
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दरअसल, महाराष्ट्र की राजनीति में पारिवारिक कलह कोई नई बात नहीं है। इससे पहले शिवसेना प्रमुख बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने अपनी उपेक्षा को नागवार मानते हुए वर्ष 2006 में नई पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना का गठन किया।
दरअसल, राज ठाकरे की राजनीतिक महत्वकांक्षा चाचा बाल ठाकरे की शिवसेना प्रमुख की कुर्सी का उत्तराधिकारी बनने की थी लेकिन बाल ठाकरे ने अपने पुत्र को आगे बढ़ाते हुए उद्धव ठाकरे की ताजपोशी कर दी। महाराष्ट्र में ही भाजपा के दिग्गज नेता गोपीनाथ मुंडे के परिवार की भी बड़ी राजनीतिक हैसियत थी।
वर्ष 2009 के लोकसभा चुनाव में जब गोपीनाथ बीड से विजयी हुए तो उनके भतीजे धनंजय मुंडे की राजनीतिक महत्वकांक्षा बढ़ गई और वह परली विधानसभा सीट से टिकट की प्रत्याशा में जुट गए लेकिन गोपीनाथ ने धनजंय की जगह अपनी बेटी पंकजा मुंडे को परली विधानसभा सीट से मैदान में उतार दिया तो नाराज धनजंय मुंडे ने राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी का दामन थाम लिया।
गोपीनाथ मुंडे के दिवगंत होने के बाद चचेरे भाई-बहन एक दूसरे के खिलाफ ही चुनाव मैदान में उतरने लगे।वर्ष 2014 में जहां पंकजा मुंडे ने अपने चचेरे भाई धनंजय मुंडे को हराया तो वर्ष 2019 में धनंजय ने पंकजा को हरा कर हिसाब बराबर किया।
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बात हरियाणा की, एक समय में इस प्रदेश की राजनीति में देवीलाल परिवार के सियासी रसूख की तूती बोलती थी। देवीलाल के पुत्र ओमप्रकाश चैटाला ने अपने परिवार की इस सियासी हैसियत को संभाला लेकिन भ्रष्टाचार के मामलें में अपने पुत्र अजय चैटाला के साथ जेल जाने के बाद उन्होंने अपनी पार्टी की कमान अपने दूसरे पुत्र अभय चैटाला को दे दी। लेकिन यहां भी सत्ता सुख की चाह में हुई पारिवारिक कलह के कारण इस परिवार की सियासी हैसियत हरियाणा में लगातार गिरती गई।
बीते विधानसभा चुनाव में अजय चैटाला के पुत्र और अभय चैटाला के भतीजे दुष्यंत चैटाला नए दल जननायक जनता पार्टी का गठन करके चुनाव मैदान में उतर गए। दुष्यंत की पार्टी के 10 विधायक जीतने में सफल रहे और अब दुष्यंत चैटाला हरियाण की खट्टर सरकार में डिप्टी सीएम बन कर सत्ता का सुख भोग रहे है।
देश का सबसे बड़े प्रदेश यूपी की सियासत में भी चाचा-भतीजे की राजनीतिक महत्वकांक्षा ने समाजवादी पार्टी का राजनीतिक ग्राफ गिरा दिया। 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले पार्टी संस्थापक मुलायम सिंह यादव के पुत्र और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव और मुलायम के भाई शिवपाल के बीच ऐसी खाई खिचीं कि अखिलेश ने अपने चाचा को अपने मंत्रिमंडल से बाहर कर दिया।
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भतीजे अखिलेश के इस कदम से चाचा शिवपाल इस कदर आहत हुए कि उन्होंने बगावत कर दी और सपा विधानसभा चुनाव में बुरी तरह हार गई। इसके बाद शिवपाल ने अपनी अलग पार्टी प्रगतिशील पार्टी बनाई और लोकसभा चुनाव लड़ा। यादव परिवार की बंटी हुई ताकत के कारण लोकसभा चुनाव में भी अखिलेश की सपा को महज पांच सीटे ही मिली, जबकि शिवपाल की प्रसपा का तो खाता भी नहीं खुल पाया।
पंजाब में बादल घराने की सियासी हैसियत एक लंबे समय से कायम है। अकाली दल प्रमुख प्रकाश सिंह बादल कई बार पंजाब के मुख्यमंत्री रहे और उनके पुत्र सुखबीर बादल भी डिप्टी सीएम रहे है। फिलहाल बादल परिवार की हरसिमरत कौर केंद्र की मोदी सरकार में काबीना मंत्री है।
प्रकाश सिंह बादल के भतीजे मनप्रीत बादल की बढ़ी हुई राजनीतिक महत्वकांक्षाएं उन्हे बगावत के रास्ते पर ले गई और उन्होंने अपनी पार्टी पंजाब पियुपल पार्टी का गठन कर लिया। हालांकि मनप्रीत ज्यादा समय तक अपनी पार्टी नहीं चला पाए और उन्होंने अपनी पार्टी का कांग्रेस में विलय कर दिया।