सपा के घमासान से खिली बसपा-बीजेपी की बांछें, सब जुटे अपने गुणा गणित में

Update: 2017-01-02 13:49 GMT

vinod kapoor

लखनऊ: समाजवादी पार्टी के कल (1 जनवरी) साल के पहले दिन हुए राष्ट्रीय सम्मेलन में फाउंडर मुलायम सिंह यादव को अध्यक्ष पद से बाहर किए जाने से उन्हें सदमा भले ही लगा हो, लेकिन इससे बीजेपी और बसपा प्रमुख मायावती की बाछें खिल आई हैं।

मुलायम अपने मामले को लेकर निर्वाचन आयोग के पास पहुंच गए हैं लेकिन लगता नहीं कि विधानसभा चुनाव के पहले कोई फैसला हो पाएगा। क्योंकि इस तरह के मामले में निर्वाचन आयोग फैसले लेने में समय लेता है।

मायावती की नजर मुस्लिम-दलित गठजोड़ पर

मायावती बार-बार मुसलमानों के बीच इस बात की दुहाई दे रही हैं कि सपा अब 'डूबता जहाज' है। इसलिए अब वो उसे वोट दें। बीजेपी को फायदा न पहुंचाएं। क्योंकि मायावती ये अच्छी तरह समझती हैं कि उनका दलित और सपा का अब तक रहा ठोस वोट बैंक रहे मुसलमानों के वोट उसे मिल गए तो उनके लिए सत्ता में वापसी आसान हो जाएगी ।

मुसलमान करते हैं 'टैक्टिकल वोटिंग'

चुनाव में मुसलमान 'टैक्टिकल वोटिंग' करते रहे हैं। वो आमतौर पर किसी एक पार्टी के समर्थक नहीं होते। चुनाव में जो बीजेपी को हरा दे, वो उसी को वोट दे देते हैं। साल 2007 के हुए यूपी विधानसभा चुनाव में मुसलमानों ने बसपा के पक्ष में वोट कर मायावती को पूर्ण बहुमत की सरकार बनाने में मदद की थी।

बीजेपी मजबूती की ओर

मोदी मैजिक के कारण सपा के कुछ वोट प्रतिशत बीजेपी को भी मिल जाएंगे। यादव और मुस्लिम वोट के कारण साल 2012 के हुए विधानसभा चुनाव में सपा सत्ता में आई थी। उस चुनाव में मुसलमानों ने खुलकर मुलायम सिंह और अखिलेश यादव का साथ दिया था। लेकिन अब सपा के दो फाड़ हो जाने के कारण मुसलमान मतदाता असमंजस में हैं। उन्हें समझ नहीं आ रहा है कि वोट किसे दिया जाए। दूसरी ओर, बीजेपी यूपी में अपनी स्थिति लगतार मजबूत करती नजर आ रही है।

लखनऊ रैली से मोदी अभिभूत

राजधानी में सोमवार (2 जनवरी) को बीजेपी की हुई रैली ने पीएम मोदी को भी अभिभूत कर दिया। मोदी को कहना पड़ा कि अपने राजनीतिक जीवन में उन्होंने आज तक इतनी बडी रैली को संबोधित नहीं किया। जिस मैदान पर रैली हुई उसकी क्षमता सात लाख लोगों की है। मैदान पूरा भरा था और लोग बाहर तक मौजूद थे।

यादव बीजेपी को कर सकते हैं वोट

यूपी में यादव हमेशा सपा को ही वोट करते रहे हैं। सिर्फ 2014 के लोकसभा के चुनाव में यादवों ने बीजेपी को अपना वोट दिया था। यदि यादवों को ये लगेगा कि सपा के दोनों में से कोई गुट यानि मुलायम या अखिलेश में से कोई भी जीतने की स्थिति में नहीं है तो मायावती को सत्ता में आने से रोकने के लिए बीजेपी के पक्ष में जा सकता है।

'साइकिल' हो सकता है फ्रीज

सपा के चुनाव चिन्ह साइकिल का झगडा अब निर्वाचन आयोग तक पहुंच गया है। ये माना जा रहा है कि आयोग चुनाव चिन्ह को फ्रीज कर सकता है। चुनाव चिन्ह किसे मिले इसका फैसला इतनी जल्दी नहीं हो सकता। इसमें दोनों पक्ष को सुनने के बाद आयोग अपना समय लेकर निर्णय देता है। अब समय नहीं बचा और चुनाव की घोषणा कभी भी हो सकती है।

यदि सपा के दोनों धड़े को अलग-अलग चुनाव चिन्ह मिले तो उन्हें मतदाताओं को इसके लिए समझाना और मनाना आसान नहीं होगा।

अखिलेश से छिटकी सहानुभूति

दरअसल, जब आजम खान के हस्तक्षेप के बाद सपा में सब कुछ सामान्य होता दिख रहा था, तो रामगोपाल और अखिलेश के कारनामों ने आग में घी डाल दिया। आजम के हस्तक्षेप के बाद मुलायम ने अखिलेश और रामगोपाल का पार्टी से निष्कासन वापस ले लिया था। लेकिन ठीक उसके दूसरे दिन रामगोपाल और अखिलेश ने राष्ट्रीय सम्मेलन बुला लिया। सम्मेलन में मुलायम सिंह को पार्टी के अध्यक्ष पद से हटाया गया और ये पद अखिलेश को दे दिया गया। जनता की सहानुभूति जो अब तक अखिलेश के साथ थी वो छिटककर मुलायम के पास चली गई।

हर कोई चल रहा समझदारी भरी चाल

सम्मेलन अखिलेश और रामगोपाल की सोची समझी चाल थी। इसकी पटकथा पहले ही लिख दी गई थी कि सम्मेलन में अखिलेश को अध्यक्ष बना दिया जाएगा। हालांकि ये फैसला कर अखिलेश और रामगोपाल ने बड़ा खतरा उठाया है। वो सम्मेलन को रद्द भी कर सकते थे। ताकि सपा एक बनी रहे। विभाजन की स्थिति तक नहीं पहुंचे।

हाल के फैसलों से बीजेपी का उठा ग्राफ

अखिलेश राज्य में सीएम के तौर पर लोकप्रिय रहे हैं। काम को लेकर उनकी लोकप्रियता में लगातार इजाफा होता रहा है लेकिन पार्टी में विभाजन के कारण अब चुनाव में उनको वो फायदा मिलने की संभावना कम ही दिखाई दे रही है। तीन तलाक हो या नोटबंदी इन मुद्दों पर बीजेपी का ग्राफ राज्य में लगातार बढता नजर आ रहा है ।

शिवपाल पर भारी पड़े अखिलेश

राजनीति के जानकार मानते हैं कि अखिलेश अपने चाचा और पार्टी में राइवल शिवपाल सिंह यादव से बदला चुकाना चाहते थे। लेकिन अखिलेश ने तो इसे साबित भी कर दिया था जब उनकी बैठक में 200 विधायक पहुंचे और मुलायम, शिवपाल की बैठक में दस से पंद्रह माननीय ही आ पाए थे।

अखिलेश ने नहीं रखा मान

उसी दिन अखिलेश ने ये भी कहा था कि वो अपने पिता के प्रति पूरी तरह वफादार हैं और हमेशा रहेंगे। राजनीति का ककहरा उन्होंने अपने पिता से ही सीखा है। आज वो जो कुछ भी हैं अपने पिता की बदौलत ही हैं। लेकिन अपनी कही बात का अखिलेश ने मान नहीं रखा और पिता को ही अध्यक्ष पद से हटाकर संरक्षक बना दिया। सपा में जो कुछ हुआ वो न तो पार्टी के लिए अच्छा है और न देश के सबसे बडे राजनीतिक परिवार के लिए।

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