Operation Blue Star: पढ़िए- कौन था 'भिंडरावाले' जो भारत का सबसे बड़ा 'बागी' बना

अमृतसर के विश्व प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर में जून के महीने जो कुछ हुआ था वो पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया था। ये घटना आजादी के बाद हमारे देश के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी

Published By :  Rahul Singh Rajpoot
Update:2021-06-05 19:22 IST

फाइल फोटो, साभार-सोशल मीडिया

देश के इतिहास में 1980 का दशक कभी नहीं भूलने वाला दशक है। जून का पहला सप्ताह और उसमें भी पांच जून का दिन देश के सिखों के जहन में एक दुखद घटना के साथ दर्ज है। आज से करीब 37 साल पहले जून के पहले सप्ताह में अमृतसर के विश्व प्रसिद्ध स्वर्ण मंदिर में जो कुछ हुआ था वो पूरे भारत को झकझोर कर रख दिया था। ये घटना आजादी के बाद हमारे देश के इतिहास में सबसे बड़ी घटना थी। जो आगे चलकर देश को प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की शहादत के रूप में चुकानी पड़ी थी।

दरअसल देश की पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी देश के सबसे खुशहाल राज्य पंजाब को उग्रवाद के दंश से छुटकारा दिलाना चाहती थीं, लिहाजा उन्होंने यह सख्त कदम उठाया और खालिस्तान के प्रबल समर्थक जरनैल सिंह भिंडरावाले का खात्मा करने और सिखों की आस्था के पवित्र स्थल स्वर्ण मंदिर को उग्रवादियों से मुक्त करने के लिए एक अभियान चलाया।

अलग सिख राज्य की मांग

दरअसल, 1973 और 1978 में अकाली दल ने आनंदपुर साहिब में एक प्रस्ताव पारित किया था। जिसमें एक अलग सिख राज्य की स्थापना समेत पंजाब के लिए कई विशेष मांगें उठाई गईं थी, जिनकी बदौलत आगे चलकर अकाली राजनीति ने आकार लेना शुरु किया।

जरनैल सिंह भिंडरावाले का उदय

1970 के दशक में जब पंजाब में अलगावाद की आग फैल रही थी, ठीक उसी दौर में अमृतसर के चौक मेहता इलाके में एक सात साल का मासूम बच्चा दमदमी टकसाल में सिख धर्म की पढ़ाई करने पहुंचा। बड़ी शिद्दत के साथ उस बच्चे ने वहां सिख धर्म की तालीम लेना शुरू किया। उसकी काबलियत देखकर उसके गुरु हैरान भी थे और खुश भी। वो बच्चा लगातार आगे बढ़ रहा था। वो मन लगाकर पढ़ाई करता और अपने काम से काम रखता। कुछ साल पढ़ाई करते करते उस बच्चे के भीतर सिख धर्म की प्रति गहरी आस्था ने जगह बना ली लेकिन साथ ही उस पर कट्टरपंथ भी सवार हो गया। उस बच्चे का नाम था जरनैल सिंह भिंडरावाले।


फाइल फोटो, साभार सोशल मीडिया

कट्टरपंथ ने बनाया सिख गुरुओं का प्रिय

सिख धर्म के प्रति गहरी आस्था और कट्टरपंथ की वजह से कुछ वर्षों में ही भिंडरावाले अपने सभी गुरुओं का प्रिय बन गया था। उस पर सबकी नजर रहा करती थी। इस दौरान वो टकसाल के प्रमुख की नजरों में भी आ चुका था। उसके गुरु प्रमुख के सामने उसकी तारीफों के पुल बांधा करते थे। सिख धर्म के प्रति भिंडरावाले का समर्पण और त्याग देखकर टकसाल के प्रमुख इतने प्रभावित हुए कि जब उनकी मौत हो गई तो संगत ने प्रमुख के बेटे की बजाय जरनैल सिंह भिंडरावाले को टकसाल का प्रमुख बना दिया। वो लंबे समय तक टकसाल का प्रमुख रहा। बताया जाता है कि टकसाल में भिंडरावाले को आज भी शहीद माना जाता है। उसका नाम वहां पूरे सम्मान के साथ लिया जाता है।

 


फाइल फोटो, साभार-सोशल मीडिया

सिख इतिहास का काला अध्याय

1980 का दशक सिख अध्याय का काला अध्याय है जो जरनैल सिंह भिंडरावाला सरेआम बेगुनाहों के कातिलों की पैरवी करता था व उन्हें हथियार और शह देता था, उसका क़ब्ज़ा सिखों की सर्वोच्च धार्मिक संस्था (जिसे रूहानियत का दरबार कहा जाता है) पर हो गया। 'संतजी' इसलिए भी श्री अकाल तख्त साहिब की पनाह में चले गए कि उन्हें एक प्रतिद्वंद्वी कट्टरपंथी संगठन बब्बर खालसा से जान का ख़तरा था। सिख धार्मिक रिवायतों से बख़ूबी वाकिफ भिंडरावाला जानता था कि श्री अकाल तख्त साहिब की अहमियत क्या है। यानी इस जगह उन पर न तो भारतीय हुकूमत हमला करेगी और न ही प्रतिद्वंद्वी खालिस्तानी मरजीवड़े।

 


फाइल फोटो, साभार-सोशल मीडिया

कांग्रेस पर भिंडरावाले को बढ़ावा देने का आरोप

जरनैल सिंह भिंडरावाले को आगे बढ़ाने का आरोप उस वक्त की सत्ताधारी कांग्रेस पार्टी पर लगता है, आरोप है कि अकालियों की राजनीति खत्म करने के लिए कांग्रेस ने भिंडरावाले को परोक्ष रूप से बढ़ावा दिया। 1978 में अमृतसर में निरंकारियों के सम्मेलन के दौरान भिंडरावाले समर्थकों और निरंकारियों के बीच हिंसा में भिंडरावाले के 13 समर्थक मारे गए। इस घटना से जैसे भिंडरावाले को हिंसा का लाइसेंस मिल गया। पंजाब में राजनीतिक हत्याएं होने लगीं। लोग सरेआम मारे जाने लगे। दूसरी ओर गांवों में भी लोग भिंडरावाले से जुड़ने लगे जिससे वो और ताकतवर और खूंखार होता गया।

अलग सिख राज्य की मांग

जरनैल सिंह भिंडरावाले अबतक पूरी तरह से ताकतवर हो चुका था और उसी बीच अलग सिख राज्य की मांग उग्र रूप ले चुकी थी। लिहाजा पंजाब हिंसा की आग में जल रहा था। सरकार और अलगवादियों के बीच संघर्ष चल रहा था। इसी के चलते 1984 में तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने आपरेशन ब्लू स्टार की मंजूरी दी थी। उस वक्त जनरैल सिंह भिंडरावाले अपने हथियारबंद साथियों के साथ अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में पनाह लिए हुए था।

1 जून को लगाया पंजाब में कर्फ्यू

हिंदुओं और सिखों के बीच झड़प और गुरुद्वारों पर हमलों को बढ़ता देख 1 जून, 1984 पूरे पंजाब में कर्फ्यू लगा दिया। ऑपरेशन ब्लू स्टार से पहले पांच महीने में तकरीबन 300 लोगों की जान चली गई थी। ऐसे में भारत सरकार ने बड़ा कदम उठाने से पहले पंजाब में आने जाने पर पाबंदी लगा दी। सेना और अर्ध सैन्य बलों ने सारा नियंत्रण अपने हाथों में ले लिया और पत्रकारों को भी अमृतसर छोड़ने के लिए कह दिया गया। 1 जून को इंदिरा गांधी ने रेडियो पर अपना भाषण दिया और बातचीत का रास्ता खुले होने की बात कही। लेकिन 3 जून को सिख पांचवें गुरु का शहीदी दिवस होता है ऐसे में उस दिन स्वर्ण मंदिर में रोज की अपेक्षा ज्यादा श्रद्धालु मत्था टेकने आए थे। पुलिस और सरकारी तंत्र लोगों को मंदिर से वापस जाने के लिए कह रहा था लेकिन भिंडरावाले और उनके समर्थकों ने श्रद्धालुओं को मंदिर परिसर से बाहर नहीं निकलने दिया।

 


फाइल फोटो- साभार-सोशल मीडिया

ऑपरेशन ब्लू स्टार

भिंडरावाले और उसके समर्थकों को सबक खिलाने के लिए मेजर जनरल कुलदीप सिंह बरार के हाथों में ऑपरेशन ब्लू स्टार की कमान सौंपी गई थी। 5 जून की शाम दोनों पक्षों के बीच मुख्य लड़ाई शुरू हुई। सेना को पहले से ही ये निर्देश दिए गए थे कि हरमंदिर साहब को किसी तरह की क्षति नहीं पहुंचनी चाहिए। शुरुआत में सेना को इस बात का अंदाजा नहीं था की आतंकियों के पास आधुनिक हथियार हैं। उनके पास एंटी टैंक गन, रॉकेट लॉन्चर, मशीन गन थी और वो सही पोजीशन पर घात लगाए बैठे थे।

ऑपरेशन ब्लू स्टार भिंडरावाले की मौत

जब शुरुआत में ज्यादा संख्या में सैनिक घायल हुए तो मेजर बरार ने अपनी रणनीति बदल दी और अकाल तख्त पर हमले के लिए टैंक मंगा लिए। इन टैंक का उपयोग रात में रोशनी करके भिंडरावाले और उसके समर्थकों पर निशाना लगाना खा लेकिन जब बात इससे भी नहीं बनी तो अकाल तख्त के ऊपर टैंक से गोले दागे गए और इस दौरान भिंडरावाले की मौत हो गई। ऑपरेशन ब्लू स्टार के दौरान भारतीय सेना के 83 जवान शहीद हुए थे और 248 घायल हुए थे। जबकि इस दौरान 500 से ज्यादा आतंकी मारे गए थे जिसमें भिंडरावाले भी शामिल था। भिंडरावाले की मौत के बाद सिख समुदाय ने इसे हरमंदिर साहिब की बेअदबी माना और पूर्व पीएम इंदिरा गांधी को 31 अक्टूबर 1984 को अपने इस कदम की कीमत अपने सिख अंगरक्षक के हाथों जान गंवाकर चुकानी पड़ी।

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