मिर्जा गालिब पुण्यतिथि स्पेशल: 'न था कुछ तो खुदा था, कुछ न होता तो खुदा होता'...
मिर्ज़ा ग़ालिब महज़ पांच वर्ष के थे, तभी 1803 में अलवर के एक युद्ध में उनके पिता की हत्या कर दी गई थी। इसके बाद चाचा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए शहीद हो गए।
लखनऊ: 15 फरवरी को मिर्ज़ा ग़ालिब की पुण्यतिथि है। उनका जन्म 27 दिसंबर, 1797 को आगरा के कला महल में हुआ था। ग़ालिब मुगलकाल के आखिरी महान कवि और शायर थे। उनके शेर भारत में ही नहीं बल्कि दुनियाभार में मशहूर हैं।
उनकी मुख्य भाषा उर्दू थी लेकिन उन्होंने उर्दू के साथ-साथ फारसी में भी कई शेर लिखे थे। ग़ालिब की शायरी लोगों के दिलों को छू लेती है।
ग़ालिब की कविताओं पर भारत और पाकिस्तान में कई नाटक भी बन चुके हैं। उनकी रचनाओं को महान ग़ज़ल गायक जगजीत सिहं ने गाकर एक नई पहचान दी। आज हम आपको मिर्ज़ा ग़ालिब की जीवनी और उनके शेरों के बारे में बताने जा रहे हैं जो कि बहुत मशहूर हैं।
ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैनिक थे ग़ालिब के पिता
ग़ालिब के पिता का नाम मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग खान था जो ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी में सैनिक थे, और माता का नाम इज्ज़त निसा बेग़म था।
मिर्ज़ा ग़ालिब के पूर्वज तुर्क (मध्य एशिया) से थे, और उनके दादा मिर्ज़ा क़ोबान बेग़ 1750 के आस पास भारत में आकर बसे थे। इसके बाद उन्होंने लाहौर, दिल्ली और जयपुर में काम किया। मिर्ज़ा क़ोबान बेग के दो पुत्र मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग़ ख़ान और मिर्ज़ा नसरुल्ला बेग़ खान थे।
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5 साल की उम्र में सिर से उठ गया था पिता का साया
जब मिर्ज़ा ग़ालिब महज़ पांच वर्ष के थे, उसी साल 1803 में अलवर के एक युद्ध में उनके पिता की हत्या कर दी गई थी। इसके बाद चाचा ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के लिए शहीद हो गए।
बहुत कम लोग ये बात जानते हैं कि मिर्ज़ा अब्दुल्ला बेग़ ने लखनऊ नवाब और हैदराबाद के निज़ाम के लिए काम किया था और इसी दौरान उन्होंने इज़्ज़त-उत-निसा बेग़म से शादी की थी और उनके घर मिर्ज़ा अब्दुल्ला का जन्म हुआ था।
11 साल की उम्र में हासिल की गद्य और पद्य लिखने में महारत
ग़ालिब ने अपने जीवन में सबसे अधिक फ़ारसी और उर्दू भाषा में आध्यात्म और सौंदर्यता पर रचनाएं की जो ग़ज़ल के रूप में जानी जाती है।
उन्होंने ननिहाल में रहकर शिक्षा ग्रहण की थी यहीं पर फ़ारसी सीखी थी। उनकी शिक्षा को लेकर एक तथ्य यह भी है कि महज 11 वर्ष की अवस्था में ही उन्हें फ़ारसी में गद्य और पद्य लिखने की महारत हासिल हो गयी थी।
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13 साल में हुआ विवाह
ग़ालिब ने 13 वर्ष की आयु में नवाब ईलाही बख्श की बेटी उमराव बेग़ से निकाह किया और निकाह के पश्चात वे दिल्ली आ गए और अपना जीवन उन्होंने दिल्ली में ही बिताया। इस क्रम में उन्हें 1850 में बहादुर शाह ज़फ़र द्वितीय ने दबीर-उल-मुल्क और नज़्म-उद-दौला की उपाधि से सम्मानित किया।
1.हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले
उन के देखे से जो आ जाती है मुंह पर रौनक़
वो समझते हैं कि बीमार का हाल अच्छा है
2. न था कुछ तो खुदा था कुछ न होता तो खुदा होता
न था कुछ तो ख़ुदा था कुछ न होता तो ख़ुदा होता
डुबोया मुझ को होने ने न होता मैं तो क्या होता
हुआ जब ग़म से यूं बे-हिस तो ग़म क्या सर के कटने का
न होता गर जुदा तन से तो ज़ानू पर धरा होता
हुई मुद्दत कि 'ग़ालिब' मर गया पर याद आता है
वो हर इक बात पर कहना कि यूँ होता तो क्या होता
3. आईना क्यों न दूं कि तमाशा कहें जिसे
आईना क्यों न दूं कि तमाशा कहें जिसे
ऐसा कहां से लाऊं कि तुझ-सा कहें जिसे
"गा़लिब" बुरा न मान जो वाइज़ बुरा कहे
ऐसा भी कोई है कि सब अच्छा कहें जिसे
4.हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
हम को मालूम है जन्नत की हक़ीक़त लेकिन
दिल को खुश रखने को 'ग़ालिब' ये ख़याल अच्छा है
रगों में दौड़ते फिरने के हम नहीं क़ाइल
जब आंख ही से न टपका तो फिर लहू क्या है
5. रहा गर कोई ता कयामत सलामत
रहा गर कोई ता क़यामत सलामत
फिर इक रोज मरना है हज़रत सलामत
क़र्ज़ की पीते थे मय लेकिन समझते थे कि हां
रंग लावेगी हमारी फ़ाक़ा-मस्ती एक दिन
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