'भूख की नहीं है कोई जात, पेट तो चाहे केवल भात'

Update: 2020-03-28 15:25 GMT

नगर मजिस्ट्रेट द्वारा रचित समसामयिक रचना

कातर आंखें सजल नयन

कह गए मन की सारी बात

आपने भी तो देखी होगी

बे मौसम होती बरसात

अंधियारे से चौराहे पर

बैठे थे वो दोनों साथ

कुछ दे जाते कुछ झिड़काते

मांगते वह फैलाए हाथ

किससे कहें वह मन की बात

पेट तो चाहे केवल भात

आज उसे फिर देर हुई है

नहीं मिली फिर से रोजी

बूढ़ी अम्मा के सपनों में

जूठन वाली ही रोटी

भूख की नहीं है कोई जात

पेट तो चाहे केवल भात

भवनों में कल जो रहते थे

आज खड़े हैं चौराहे पर

दुनिया को जो खुद देते थे

मांग रहे हैं आंसू भर भर

वक्त बड़ी सबसे है बिसात

अपनों ने ही दी है मात

क्या वह दिन फिर से आएंगे

खुशियां फिर से लौट आएंगे

डाली से जो दूर फूल है

प्रेम हार बन मुस्काएगे

क्या बदलेंगे फिर हालात

पेट तो चाहे केवल भात

यह तो फिर से लहक उठेंगे

बच्चों जैसे चहक उठेंगे

अच्छे दिन की खुशबू पाकर

बाहर भीतर महक उठेंगे

जिनके घायल थे जज्बात

पेट तू चाहे केवल भात

इस कठिन समय में मुझे अपनी यह कविता याद आ गई। आप सभी से विनम्र अनुरोध है कि आपके आसपास कोई भूखा ना रहे आपके स्तर से जो भी सहायता हो सके करने का प्रयास करें।

वन्दना त्रिवेदी

नगर मजिस्ट्रेट गोंडा

(स्वरचित)

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