राजनीति में माफियाः खतरनाक संदेश, जिसने बढ़ाया धनबल और क्षेत्रवाद

धीरे-धीरे, अपराधी-राजनेता -पुलिस गठजोड़ के कई मामलों से माफिया लोग, विशाल आर्थिक साम्राज्य खड़ा करने में सफल रहे। जिन माफिया से आम जनता को डर लगता था, वे अपने प्राइवेट सुरक्षा गार्ड तो रखते ही हैं, बल्कि कई मामलों में उनकी जान के नकली खतरों के आधार पर उन्हें सरकारी सुरक्षा भी मिल गयी।

Update:2020-09-18 15:46 IST
Mafia in politics: Dangerous message, which increased wealth and regionalism

ओमप्रकाश मिश्र

राजनीति में माफिया का प्रवेश और धीरे-धीरे बढ़ना एक खतरनाक संदेश है। कुछ राज्यों विशेषतः उत्तर प्रदेश, बिहार आदि में शुरूआती राजनीतिक खिलाड़ी के रूप में माफिया का प्रवेश, सहायक के रूप में ही था।

बूथ मैनेजमेन्ट, दूसरे विपक्षी प्रत्याशी को डराने/धमकाने का कार्य माफिया द्वारा लिया जाता था। धीरे-धीरे माफिया के लोगों को लगा कि जब वे ही महत्वपूर्ण हैं तो क्यों न प्रत्यक्षतः चुनाव लड़ें।

क्षेत्रीय दलों में मिला प्रश्रय

आरम्भ में कई माफिया स्वतंत्र उम्मीदवार या छोटे दलों द्वारा बनाये गये उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़े। बाद में क्षेत्रीय दलों ने उन्हें उम्मीदवार बनाना शुरू किया।

फिर क्या था, बाहुबल के आधार पर डरा/धमकाकर तथा जाति/धर्म का सहारा लेकर चुनाव लड़ने और जीतने भी लगे। बीजू जनता दल को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रीय दलों में माफिया का महत्व बढ़ा।

यह प्रवृत्ति उत्तर भारत में कुछ ज्यादा है। धीरे-धीरे वे एक ही सीट से बार-बार चुनाव लडे़ और जीते भी। कुछ माफिया तो सत्ता के बदलने पर पार्टी बदलते रहें।

राजनीति में माफिया के इस उदय में तथा महत्वपूर्ण बनने में राजनीति के बड़े खिलाड़ियो और सरकारों की भी बड़ी भूमिका रही है।

अधिकारियों व बड़े नेताओं का समर्थन

कई बार पुलिस-प्रशासन से भी कभी जाति/कभी धर्म के आधार पर माफिया को अधिकारियों/बड़े नेताओं का समर्थन मिला है।

माफिया लोग, पुलिस प्रशासन एवं सरकारों के प्रभाव से ठेकों आदि पर कुंडली मार कर बैठ गये।

धीरे-धीरे, अपराधी-राजनेता -पुलिस गठजोड़ के कई मामलों से माफिया लोग, विशाल आर्थिक साम्राज्य खड़ा करने में सफल रहे। जिन माफिया से आम जनता को डर लगता था, वे अपने प्राइवेट सुरक्षा गार्ड तो रखते ही हैं, बल्कि कई मामलों में उनकी जान के नकली खतरों के आधार पर उन्हें सरकारी सुरक्षा भी मिल गयी।

फिर क्या था, सड़क पर काले शीशे चढ़ाये बड़ी-2 कारों/गाड़ियों का काफिला, अनेक असलहे, खुलेआम लहराते हुए, सड़कों पर निकलना इनका फैशन बन गया।

यही माफिया अपने समाज सेवा से जुड़े होने का नकली प्रचार भी कराते हैं। अखबारों व अन्य माध्यमों से यह होता रहा है।

धनबल का महत्व धीरे धीरे बढ़ता गया

बाहुबल के अतिरिक्त धनबल का महत्व भी धीरे धीरे राजनीति में बढ़ता गया। अनुमानतः वर्ष 1980 के बाद से यह बहुत तेजी से बढ़ा है। पहले हजारों में विधानसभा के चुनाव 1980 के आसपास तक लड़े जाते थे।

धीरे-धीरे यह लाखों रुपये में हुआ और फिर विधानसभा/लोकसभा के चुनावों में करोड़ों रूपये खर्च होने लगे ( कुछ खुलकर, ज्यादातर छिपाकर) मेरे स्वर्गीय पिता शीतला प्रसाद मिश्र, 1952 के विधानसभा चुनाव में इलाहाबाद की झूँसी सीट से कांग्रेस प्रत्याशी शिवनाथ काटजू ( जो बाद में उच्च न्यायालय इलाहाबाद के जज भी हुए तथा विश्व हिन्द परिषद के अध्यक्ष भी रहे) के चुनाव एजेन्ट थे।

पिता जी ने बताया था कि काटजू साहब के चुनाव का पूरा खर्च कुछ सौ रूपया ही था। साइकिलों पर चुनाव प्रचार होता था।

अब तो गाड़ियों की कतारें हर बड़े प्रत्याशी की दिखायी पड़ती हैं (हाँ कुछ एक अपवाद प्रसन्नता देते हैं जैसे भारत सरकार में केन्द्रीय राज्य मंत्री श्री प्रताप सारंगी, जो उड़ीसा की बालासोर सीट से लोकसभा के लिए चुने गये है, उनके विषय में बताया जाता है कि साइकिल पर अपना चुनाव प्रचार प्रसार किए थे।

अकूत संपदा बटोरना हो गया उद्देश्य

पद व सत्ता की प्राप्ति के बाद, येन केन प्रकारेण, भ्रष्टाचार के विभिन्न तरीकों से, अकूत धन सम्पदा को अपने परिवार के लिए इकट्ठा करना ही उद्देश्य है।

साथ ही सिद्धान्तहीन राजनीति करते हुए, वंशानुगत परम्परा के लिए, सभी प्रकार के अनैतिक सिद्धान्तों से राजनैतिक दलों का प्रबन्धन करने का कुप्रयास भी चल रहा है।

भाई भतीजावाद

परिवारवाद, भाई भतीजावाद का प्रथम महत्वपूर्ण उदाहरण जवाहर लाल नेहरू अपने प्रधानमंत्री के रूप में कार्य करते हुए अपनी पुत्री को केन्द्रीय मंत्रिमण्डल में नियुक्त करना था।

उसके बाद कांग्रेस जिस तरह से वंशानुगत परम्परा को राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी, राहुल और अब प्रियंका के रूप में संवर्धित करती रही है, यह अत्यन्त स्पष्ट है।

उत्तर प्रदेश में मुलायम सिंह यादव ने जिस तरह से पूरे कुनबे को पदों पर उचित समझा। बिहार में लालू प्रसाद यादव ने अपनी पत्नी, पुत्र, पुत्री को आगे किया।

तमिलनाडु में करूनानिधि ने, महाराष्ट्र में शरद पवार और इस संस्कृति के सबसे ताजे उदाहरण/संस्करण को ठाकरे परिवार के रूप में देखा जा सकता है।

कोई पीछे नहीं

वैसे तो किसी मुख्यमंत्री द्वारा अपने पुत्र या पुत्री को मंत्री पद देना, भारतीय राजनीति में पहली बार नहीं हुआ है, तमिलनाडु में करूनानिधि ने स्टालिन को, हरियाणा में चौधरी देवीलाल ने रणवीर चौटाला को, पंजाब में प्रकाश सिंह बादल ने सुखबीर बादल को मंत्री बनाया था।

परन्तु महाराष्ट्र में जिस प्रकार से, सत्ता प्राप्ति के लिए सिद्धान्तहीन गठबन्धन किया गया, उसका अभीष्ट पुत्र प्रेम व पद लिप्सा ही थी।

हमारी संस्कृति में हमारी चिन्तनधारा को कठापनिषद में नचिकेता का यम से कथन में स्पष्ट किया गया है -

“न वित्तेन तर्पणीयो मनुष्यो लप्स्यामहे वित मुद्राक्ष्म चेत्वा।

जीवेष्यामों यावदी शिस्यसि त्व वरस्तु में वरणीयः से स्व।।’’

(कठोपनिषदः श्लोक 27)

अर्थात धन से मनुष्य कभी तृप्त नहीं हो सकता, आग में घी डालने जैसे आग जोरों से भड़कती है, उसी प्रकार धन और भोगों की प्राप्ति से भोग कामना का और भी विस्तार होता है, वहाँ तृप्ति कैसी? वहाँ तो दिन रात अपूर्णता अभाव में ही जलना पड़ता है।

बौद्धिक नेताओं का पराभव

ऐसे दुःख में धन और भोगों की माँग कोई भी बुद्धिमान पुरूष नहीं कर सकता। भारत राष्ट्र में ’तेन व्यक्तेन भुंजीथा’ और ’’सर्वे भवन्तु सुखिनाः’’ की वैचारिक भूमि रही है, किन्तु स्वतंत्र भारत में आन की राजनीति में, परिवार व भाई/भतीजे के अलावा बहुतेरे नेताओं को कुछ दिखता ही नहीं।

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कहाँ तो मदनमोहन मालवीय, वीर सावरकर, महात्मा गाँधी, डॉ. भीम राव अम्बेडकर जैसे विद्वानों, समाज सेवियों व विचारकों की सरणि थी। सुभाष चन्द्र बोस ने आइ सी एस की नौकरी को लात मार दी थी। अब वैसे नेता कहाँ हैं?

दीन दयाल उपाध्याय, नाना जी देशमुख व दत्तोपंत ठेंगड़ी सरीखे समाज सेवियों का निष्पृह, निष्कलंक जीवन आज की युवा पीढ़ी के लिए आदर्श होना चाहिए, किन्तु परिवारवादी राजनेताओं का एक सूत्री कार्यक्रम सत्ता की प्राप्ति हैं। फिर सत्ता के सहारे भ्रष्टाचार का लाइसेंस पा जाते हैं।

हाईकमान

इन परिवारवादी दलों का हाईकमान, उनका परिवार ही होता है। राजतंत्र की तरह इनका पुत्र/पुत्री, भतीजा/भतीजी/भाँजा, दामाद या निकट रिश्तेदार वंशानुक्रम की तर्ज पर युवा चेहरा बनता है।

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दल के लोग जानते हैं, आगे यही हमारे हाईकमान होंगे। कुछ लोग भविष्य की अनिश्चितता उत्तराधिकारी बना देते हैं, संजय गाँधी, अखिलेश यादव, एम.के. स्टालिन व सबसे ताजा उदाहरण आदित्य ठाकरे हैं।

दल में जो राजनीतिक कार्यकर्ता, पूरा जीवन, राजनैतिक दल को समर्पित कर देते हैं, वहीं युवा नेतृत्व के नाम पर उसी बड़े नेता (हाईकमान) के पुत्र/पुत्री को हाईकमान मान कर कार्य करते हैं, जो उनसे आयु, वरिष्ठता, योग्यता आदि में काफी कम होते हैं।

क्षेत्रवाद की समस्या

दूसरी बड़ी समस्या आज की राजनीति में बढ़ते क्षेत्रवाद की है। क्षेत्रवाद की भावना के उभार में, भाषा के आधार पर राज्यों का पुनर्गठन बहुत हद तक जिम्मेदार है।

भाषा का इस्तेमाल संप्रेषण का माध्यम के रूप में न देखकर राजनैतिक महात्वाकांक्षाओं की प्राप्ति के लिए इस्तेमाल किया गया।

पिछले पाँच/छह दशकों से भाषा को एक राजनैतिक हथियार के रूप में विभिन्न राजनैतिक दल इस्तेमाल कर रहे हैं। आजादी मिलने के तुरन्त बाद अगर राष्ट्र भाषा हिन्दी को एक मात्र सरकारी कामकाज की भाषा बनाया गया होता तो भाषा के आधार पर क्षेत्रवाद को पनपने का अवसर न मिलता।

क्षेत्रवाद की भावना को हवा देने से क्षेत्रीय दलों का उभार हुआ। अनेकों बार कई क्षेत्रीय दल, अपने संकुचित राजनैतिक हितों के कारण, राष्ट्र की एकता पर कुठाराघात करते हैं।

भाषा पर विभाजन

भाषा के आधार पर आन्दोलन (कई बार हिंसक प्रदर्शन आदि) भी कराने का इतिहास हमारे सामने हैं। हिन्दी के विरोध के नाम पर खासकर तमिलनाडु में राजनीति, क्षुद्र राजनैतिक हितों की पूर्ति ही कराती रही है।

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देश के अन्य भागों में भाषा व क्षेत्र के नाम पर जो राजनैतिक षडयंत्र हुए हैं उनकी नींव राज्य पुनर्गठन आयोग ने ही डाली थी, इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता। यदि दृढ़ निश्चय से, भाषाई आधार पर राज्यों का पुनर्गठन रोका जाता तो बहुत सारी समस्याओं से बचा जा सकता था।

ओमप्रकाश मिश्र

पूर्व प्रवक्ता अर्थशास्त्र विभाग, इलाहाबाद विश्वविद्यालय एवं पूर्व रेल अधिकारी

66, इरवो संगम वाटिका, देव प्रयागम झलवा, प्रयागराज- पिन- 211015

टेलीफोन- 7376582525

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