नेताजी सुभाष के गुरुः आज जयंती पर देश कर रहा नमन
आज देशबंधु चितरंजन दास की जयंती है। भारत की आजादी के नायक चितरंजन दास का जन्म 5 नवंबर 1870 को कोलकाता में हुआ था। 16 जून 1925 को आखिरी सांसें ली थीं।
रामकृष्ण वाजपेयी
नई दिल्ली: नेताजी सुभाष चंद्र बोस के बारे में तो सभी जानते हैं। देश के प्रति उनका प्यार, त्याग और बलिदान किसी से छिपा नहीं है। लेकिन आज हम बताने जा रहे हैं नेताजी के उस गुरू के बारे में। जिसके बारे में शायद लोग नहीं जानते। क्योंकि देश की आजादी के इस दीवाने पर ज्यादा काम नहीं हुआ। खुद कांग्रेस ने अपने इस पुरोधा को भुला दिया। जो सशस्त्र क्रांति से देश की आजादी में यकीन रखता था।
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आज देशबंधु चितरंजन दास की जयंती है
आज देशबंधु चितरंजन दास की जयंती है। भारत की आजादी के नायक चितरंजन दास का जन्म 5 नवंबर 1870 को कोलकाता में हुआ था। 16 जून 1925 को आखिरी सांसें ली थीं। हालांकि मतांतर से चितरंजन दास का जन्म आधुनिक बांग्लादेश (तब भारत) के ढाका में हुआ भी बताया जाता है। चितरंजन दास भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के प्रमुख नेताओं में एक थे। देश के प्रति उनके समर्पण और स्नेह के कारण उन्हें "देशबंधु" कहा जाता था। दास ने आजादी से बंगाल में पहले स्वराज पार्टी की स्थापना की थी।
चितरंजन दास अनुशीलन समिति के भी सदस्य थे
चितरंजन दास अनुशीलन समिति के भी सदस्य थे और अनुशीलन समिति सशस्त्र क्रांति के रास्ते देश को आजाद कराने में यकीन रखती थी। इस तरह इनका रास्ता गांधी से अलग था। बावजूद इसके महात्मा गांधी देश के इस सपूत को बहुत चाहते थे।
सुभाष चंद्र बोस को देशबंधु चित्तरंजन दास से मिलाने का काम महात्मा गांधी ने ही किया था
सुभाष चंद्र बोस को देशबंधु चित्तरंजन दास से मिलाने का काम महात्मा गांधी ने ही किया था। लेकिन असहयोग आंदोलन को अचानक समाप्त किए जाने से नाराज मोतीलाल नेहरू और चित्तरंजन दास ने जब कांग्रेस से अलग होकर स्वराज पार्टी बनायी, तो सुभाष बाबू भी स्वराजियों के साथ ही गए। चितरंजन दास ने इंग्लैंड से बैरिस्टर की पढ़ाई की थी। भारत में वकालत की प्रैक्टिस के दौरान वो स्वतंत्रता सेनानियों के भी मुकदमे लड़ते थे और उनसे कोई पैसा नहीं लेते थे।
वकालत में इनकी कुशलता का परिचय लोगों को सर्वप्रथम वंदेमातरम के संपादक अरविंद घोष पर चलाए गए राजद्रोह के मुकदमे में मिला और मानसिकतला बाग षड्यंत्र के मुकदमे ने तो कलकत्ता हाईकोर्ट में इनकी धाक जमा दी। इतना ही नहीं, इस मुकदमे में उन्होंने जो निस्स्वार्थ भाव से अथक परिश्रम किया और तेजस्वितापूर्ण वकालत का परिचय दिया उसके कारण समस्त भारतवर्ष में 'राष्ट्रीय वकील' नाम से इनकी ख्याति फैल गई। लंदन में उनकी सोरजनी नायडू, अरबिंद घोष और अतुल प्रसाद सेन के मित्र बन गये थे।
चितरंजन दास बंगाल की राजनीति में भी सक्रिय थे
स्वतंत्रता सेनानी बिपिन चंद्र पाल और अरबिंद घोष चितरंजन दास के करीबी मित्रों में थे। अंग्रेजी साप्ताहिक अखबार "बंदे मातरम्" के प्रकाशन में दास ने पाल और घोष की मदद की थी। चितरंजन दास बंगाल की राजनीति में भी सक्रिय थे। उन्होंने सबसे पहले बंगाल प्रांत में स्वराज की स्थापना की वकालत की थी। दास ने सहकारी संस्थाओं की स्थापना और कुटिर उद्योगों की पुनर्स्थापना में अहम भूमिका निभायी।
दास ने ब्रिटिश सरकार के मोटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार का विरोध किया
दास ने ब्रिटिश सरकार के मोटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधार का विरोध किया। वो 1920 में महात्मा गांधी के असहयोग आंदोलन में शामिल हो गये। दास ने बंगाल में विदेशी कपड़ों के बहिष्कार आंदोलन का नेतृत्व किया। 1919 से 1922 तक वो असहयोग आंदोलन में सक्रिय रहे। इस दौरान चितरंजन दास को बीवी और बेटे समेत 1921 में गिरफ्तार कर लिया गया। उन्हें ब्रिटिश अदालत ने छह महीने जेल की सजा सुनायी। 1921 में ही वो अहमदाबाद कांग्रेस के अध्यक्ष चुने गये।
दास ने फॉरवर्ड नामक अंग्रेजी दैनिक निकालना शुरू किया। बाद में उन्होंने अखबार का नाम लिबर्टी कर दिया। नेताजी सुभाष चंद्र बोस उनके अखबार के एडिटर थे। नेताजी दास को अपना गुरु मानते थे।
दास ने मृत्यु से पहले अपना घर और उससे लगी जमीन देश को दान कर दी थी
दास ने मृत्यु से पहले अपना घर और उससे लगी जमीन देश को दान कर दी थी। आज उस घर में महिला अस्पताल संचालित होता है जिसका नाम चितरंजन सेवा सदन है। देश के इस सपूत का तीव्र बुखार से निधन हुआ उनकी शवयात्रा में भारी भीड़ उमड़ी थी। बांग्ला कवि रविंद्र नाथ टैगोर ने उनकी प्रति जनता का प्रेम देखकर अपनी कविता उन्हें समर्पित की थी। दास खुद भी बांग्ला के ख्यात कवि और लेखक थे।
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बेलगाँव कांग्रेस में चितरंजन दास ने यह इच्छा व्यक्त की थी कि 148 नंबर, रूसा रोड, कलकत्ता वाला इनका मकान स्त्रियों और बच्चों का अस्पताल बन जाए तो उन्हें बड़ी शांति मिलेगी। उनकी मृत्यु के बाद महात्मा गांधी ने सी.आर. दस स्मारक निधि के रूप में दस लाख रुपए इकट्ठे किए और भारत के इस महान् सुपुत्र की यह अंतिम इच्छा पूर्ण की।
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