देश का आठवां प्रधानमंत्रीः एक साल की चुनौती फिर गुमनामी के अंधेरे

विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता दल का अध्यक्ष चुना गया। इसके बाद अन्य क्षेत्रीय दलों को एक झंडे के नीचे लाने की कोशिशें हुई और फिर नेशनल फ़्रंट का गठन हुआ। इस फ्रंट में तेलुगुदेशम, डीएमके और असम गण परिषद जैसी पार्टियाँ शामिल हुई। 1989 के चुनाव में नेशनल फ्रंट को अच्छी सफलता मिली, लेकिन इतनी नहीं कि वो अपने दम पर सरकार बना सकें।

Update:2020-12-02 11:01 IST
देश का आठवां प्रधानमंत्रीः एक साल की चुनौती फिर गुमनामी के अंधेरे

लखनऊ: देश के आठवें प्रधानमंत्री रहे विश्वनाथ प्रताप सिंह इस पद के लिए दो दिसंबर 1989 को चुने गए थे। लेकिन उनका इस पद के लिए चयन भी एक नाटकीय घटनाक्रम में हुआ था और शायद ये नाटक चंद्रशेखर को रोकने के लिए खेला गया था। जिसका नतीजा यह हुआ कि खेल समझते ही चंद्रशेखर मीटिंग छोड़कर चले गए थे।

नई राजनीतिक पार्टियों का हुआ गठन

बोफोर्स घोटाले, दलाली का शोर मचाकर कांग्रेस छोड़ने के बाद वीपी सिंह ने अरुण नेहरु और आरिफ़ मोहम्मद ख़ान के साथ मिलकर जनमोर्चा का गठन किया। गैर-कांग्रेसवाद के नाम पर विपक्षी पार्टियों को एक करने की उनकी कोशिश रंग लाई। बाद में जनमोर्चा, जनता पार्टी, लोकदल और कांग्रेस (एस) का विलय करके नई पार्टी जनता दल का गठन हुआ।

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जनता दल के अध्यक्ष चुने गए विश्वनाथ प्रताप सिंह

विश्वनाथ प्रताप सिंह को जनता दल का अध्यक्ष चुना गया। इसके बाद अन्य क्षेत्रीय दलों को एक झंडे के नीचे लाने की कोशिशें हुई और फिर नेशनल फ़्रंट का गठन हुआ। इस फ्रंट में तेलुगुदेशम, डीएमके और असम गण परिषद जैसी पार्टियाँ शामिल हुई।

1989 के चुनाव में नेशनल फ्रंट को मिली सफलता

1989 के चुनाव में नेशनल फ्रंट को अच्छी सफलता मिली, लेकिन इतनी नहीं कि वो अपने दम पर सरकार बना सकें। नेशनल फ्रंट ने भारतीय जनता पार्टी और वामपंथी दलों के सहयोग से सरकार बनाई। बीजेपी और वामपंथी दलों ने इस सरकार को बाहर से समर्थन दिया।

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देवीलाल ने नेता बनने से कर दिया था इनकार

2 दिसंबर 1989 को पार्टी की बैठक में वीपी सिंह ने देवीलाल को संसदीय दल का नेता चुनने का प्रस्ताव रखा। सबने मान लिया, लेकिन देवीलाल ने नेता बनने से इनकार कर दिया और वीपी सिंह के नाम का प्रस्ताव रख दिया। चंद्रशेखर जो कि यह खेल देख रहे थे, उन्हें ये नागवार गुज़रा और वे बैठक से चले गए। यानी इस छल कपट से मोर्चे में पहली दरार तो शुरुआत में ही आ गई।

वीपी सिंह बनें प्रधानमंत्री

वीपी सिंह प्रधानमंत्री तो बन गए, लेकिन उनका करीब एक साल का कार्यकाल काफ़ी चुनौतीपूर्ण रहा। तत्कालीन गृह मंत्री मुफ़्ती मोहम्मद सईद की बेटी की रिहाई के बदले आतंकवादियों को छोड़े जाने का मामला सुर्ख़ियों में रहा।

पिछड़े वर्गों के आरक्षण पर हुुए थे जमकर प्रदर्शन

मंडल सिफारिशों पर पिछड़े वर्गों को आरक्षण के मामले ने तो इतना तूल पकड़ा कि जमकर प्रदर्शन हुए। बाद में यही आरक्षण का मामला तत्कालीन राजनीति का एक प्रमुख मुद्दा बना। भाजपा की रथ यात्रा वीपी सिंह सरकार के लिए मुश्किल साबित हुई।

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तो इस तरह गिरी वीपी सिंह की सरकार

बिहार में जनता दल की सरकार के मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने लालकृष्ण आडवाणी को गिरफ़्तार किया, तो बीजेपी ने सरकार से समर्थन वापस ले लिया और आख़िरकार वीपी सिंह की सरकार गिर गई। इसी के साथ देश के सातवें प्रधानमंत्री का कार्यकाल खत्म हुआ। इसके बाद विश्वनाथ प्रताप सिंह अपनी बीमारी से उबर नहीं पाए और धीरे-धीरे नेपथ्य में चले गए।

रिपोर्ट,

रामकृष्ण वाजपेयी

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