अनोखा था 'एवलांच' का रोमांच, ले चुका है कई पर्वतारोहियों की जान

Update: 2016-09-22 10:12 GMT

Govind Pant Raju

लखनऊ: दोस्तों, जैसे-जैसे मैं और मेरे दोस्त एवरेस्ट की ओर अपने कदम बढ़ा रहे थे, वैसे-वैसे हमारे अंदर उत्साह दोगुना होता जा रहा था। इससे पहले की यात्रा वृत्तान्त को आप पढ़ चुके हैं और अब आइए आपको आगे के सफर की जानकारी देते हैं।

गोरखशेप से लगातार हल्की चढ़ाई चढ़ते रहने के बाद करीब 8 किलोमीटर चल कर एक ऊंची रिज आती है। इस रिज से लगभग 200 मीटर नीचे उतर कर एवरेस्ट बेस कैम्प के इलाके में पहुंचा जाता है। हम इस रिज के करीब पहुंचने वाले ही थे कि हमें दाईं ओर के पहाड़ से एक तेज धमाके जैसी आवाज आई। हमने जैसे ही उधर देखा हमें बर्फ का एक गुबार सा उड़ते हुए दिखाई दिया। ऊपर के हिम शिखर से एक बड़ा हिमखण्ड बड़ी तेजी से नीचे गिरता जा रहा था।

(राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी।)

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यह एक हिमस्खलन मतलब एवलांच था। यह दृश्य करीब 12-13 सेकेंड तक हमें दिखता रहा और हमने उसे अपने कैमरों में कैद करने की कोशिश भी की। राजेन्द्र ने कैमरा भी निकालना चाहा, मगर सफल नहीं हो सका। कुछ देर बाद जब वह सारी बर्फ तेजी से फिसलती हुई एक दम तलहटी में पहुंच गई, तब वहां नीचे ऐसा लगा। जैसे एक बड़ा बादल जमीन पर उग आया हो। कुछ क्षणों बाद वहां फिर से निस्तब्धता का साम्राज्य था। एवलांच का यह दृश्य रोमांचक था और थोड़ा भय भी पैदा करता था। हालांकि इससे हमारे लिए किसी तरह का कोई खतरा नहीं था क्योंकि एक तो यह हमसे काफी दूर की पहाड़ी पर था और फिर एवलांच की बर्फ भी हमसे काफी नीचे की ओर फिसल रही थी। इसलिए हम सुरक्षित थे।

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एवरेस्ट के इलाके में एवलांच बहुत आम हैं। एवरेस्ट आरोहण के दौरान अनेक पर्वतारोहियों की जान ले चुके ये एवलांच एवरेस्ट की दुगर्मता को भयावह बनाते रहे हैं। 1915 के विनाशकारी भूकंप के दौरान बेस कैम्प में पुमोरी शिखर की ओर से आए एक बड़े एवलांच के कारण 19 पर्वतारोही बर्फ में दफन हो गए थे और 38 अन्य बुरी तरह घायल। 2014 में तो एवलांच के कारण नेपाल सरकार को पूरा एवरेस्ट का पर्वतारोहण सीजन हो स्थगित करना पड़ा था। 18 अप्रैल 2014 को सुबह करीब पौने सात बजे एवरेस्ट शिखर के दक्षिणी भाग से एक बड़ा हिम खण्ड टूट कर तेजी से नीचे को गिरा।

अमूमन शिखरों पर धूप पड़ने से इस तरह की क्रिया तेज होती है। जब कोई हिमखण्ड टूट कर गिरता है, तो वह अपने नीचे की हिम सतह की चिकनाहट के कारण तेजी से नीचे को फिसलता है और उसकी गति तेज होती जाती है। वह अपने साथ आसपास की बर्फ को समेटता हुआ अपना आकार भी बढ़ाता जाता है और रफ्तार भी। इसी कारण छोटा सा हिमखण्ड भी बहुत खतरनाक हो सकता है।

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2014 में भी लगभग 19 हजार फुट की ऊंचाई से गिरा एक छोटा हिम खण्ड अपने साथ बर्फ का गुबार उड़ाता हुआ साउथ कोल की चढ़ाई कर रहे 25 शेरपाओं को अपने साथ कुचलता-दबाता चला गया। इसमें से 16 की मृत्यु हो गई जबकि शेष बुरी तरह घायल हो गए। उस एवलांच की रफ्तार इतनी तेज थी कि शेरपाओं को संभलने का मौका तक नहीं मिला। एवरेस्ट आरोहण में अब तक हुई 285 से ज्यादा मौतों में से लगभग 100 से ज्यादा लोगों की मौतें इन्ही एवलाचों के कारण हुई हैं। हालांकि यूरोप के हिमशिखरों की तुलना में हिमालय के शिखरों में एवलांच कम आते हैं। लेकिन ये एवलांच सिर्फ पर्वतारोहियों को ही नहीं, हिमालय में सीमाओं की रखवाली करने वाले बहादुर सैनिकों की भी अपना शिकार बनाते हैं।

मगर एवरेस्ट के लिए तो एवलांच सदा से ही मुसीबत रहे हैं। एवरेस्ट के आरोहण की शुरूआत ही एवलांच से हुई मौतों से हुई थी। 7 जून 1922 को आए एक एवलांच में एवरेस्ट आरोहण का प्रयास कर रहे सात शेरपाओं की मौत हुई थी। 1921 में पहली बार एवरेस्ट आरोहण के लिए सही मार्ग का आकलन करने के लिए पहला खोज अभियान हुआ था और एक वर्ष बाद जनरल चार्ल्‍स ब्रूस के नेतृत्व में एवरेस्ट आरोहण के लिए पहला अभियान। चूंकि उस समय नेपाल की ओर से एवरेस्ट आरोहण की अनुमति नहीं थी। इस लिए यह पहला एवरेस्ट अभियान तिब्बत की ओर से उत्तरी मार्ग से शुरू किया गया था।

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इस अभियान में महान पर्वतारोही जार्ज मेलोरी ने दल के क्लाइम्विंग लीडर एल्बर्ट स्ट्रट के साथ पहली बार 8 हजार मीटर से अधिक ऊंचाई तक पहुंचने में सफलता प्राप्त की। इंसान द्वारा उस समय तक विजित यह सबसे अधिक ऊंचाई थी। लेकिन इस अभियान का अंत बहुत दुखद हुआ और सात कुशल शेरपाओं को एवलांच के कारण जान गंवानी पड़ी थी। यानी पहले ही अभियान में एवरेस्ट के एवलांच ने सात लोगों की हिम समाधि दे दी थी।

एवरेस्ट के दक्षिणी मार्ग में खुम्भू आइसफॉल का इलाका तो एवलांच के खतरों के लिए ही जाना जाता है। प्रायः पर्वतारोही इस क्षेत्र में रात के अंधेरे में ही आना जाना पसंद करते हैं क्योंकि धूप निकलने के बाद एवलांच का खतरा बढ़ जाता है। एवरेस्ट के परम्परागत मार्ग में कैम्प वन से कैम्प टू के बीच का इलाका अधिक खतरनाक माना जाता है। खुम्भू आइसफॉल के इस इलाके को पर्वतारोही ‘गोल्डन गेट’ या ‘पापकॉर्न जोन’ कहते हैं। 2014 में यहां आए एवलांच के बाद नेपाल सरकार ने शेरपाओं की सलाह पर खुम्भू आइसफॉल के बांई ओर से होकर जाने वाले पुराने रास्ते के स्थान पर ग्लेशियर के बीच के इलाके से एक नया मार्ग प्रस्तावित किया था। 2015 में भूकंप से पहले उसी मार्ग से आरोहण की तैयारी थी और 2016 के अभियानों ने भी इसी नए मार्ग को अपनाया। हालांकि इस वर्ष खुम्भू आइसफॉल में बर्फ कम थी।

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बहरहाल बड़ी देर तक हम उसी स्थान पर रूके रहे कि शायद एवलांच के बाद कोई और गतिविधि दिखाई दे। लेकिन हिमालय फिर शांत हो गया था। इस स्तब्धतता को थोड़ी देर बाद हेलीकॉप्टर की गड़गड़ाहट ने भंग किया। आसमान में दो हेलीकाप्टर दिख रहे थे। पर्वतारोहण विशेषज्ञ इन हेलीकॉप्टर उड़ानों को भी इस इलाके में एवलांच के लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। नेपाल शेरपा संगठन ने तो सरकार को एक ज्ञापन भी भेजकर शिकायत की है कि पर्यटकों को हिमालय की चोटियों का दर्शन कराने वाले हेलीकॉप्टर प्रायः अधिक ऊंचाई तक उड़ान भरते हैं। उनकी गड़गड़ाहट के कंपनों से शिखरों में जमा बर्फ के हिमखण्डों में दरारें पड़ जाती हैं, जो बाद में एवलांच को जन्म देती हैं।

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नियमानुसार हेलीकॉप्टरों को एवरेस्ट बेस कैम्प से ऊपर उड़ने की अनुमति नहीं है। विशेष परिस्थितियों में राहत या बचाव कार्य के लिए ही इस तरह की अनुमति दी जाती है। मगर अक्सर हेलीकॉप्टर ऊपर भी उड़ते हैं। एवलांच बढ़ने में इन हेलीकॉप्टरों की चाहे जो भी भूमिका हो, प्रकृति की अपार शांति और एवरेस्ट की जीवंतता को भंग करने में तो इनको भूमिका निसंदेह खलनायकों जैसी ही है। हमारी भी एकात्मयता टूट चुकी थी। इसलिए हम फिर चल पड़े अपनी मंजिल की ओर।

गोविंद पंत राजू

 

 

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