लखनऊ: दोस्तों ... मेरा और मेरे सभी दोस्तों का कई सालों पुराना सपना पूरा हो चुका था। जिसे कभी हम ख़्वाबों में देखा करते थे। आज सामने से उसकी खूबसूरती को निहारकर आनंदित हो रहे थे। लेकिन फिर तभी हमें याद आया कि हमें वापस भी लौटना था। एवरेस्ट बेस कैम्प में पहुंचते समय मन में जितना उत्साह था, वहां से वापसी करते हुए मन में उतनी ही कसक। एवरेस्ट से प्यार करने वाले एवरेस्ट को आसानी से छोड़कर जाने को तैयार नहीं होते। मगर मौसम बहुत खराब होने लगा था और हमें हर हाल में रात होने से पहले गोरखशेप पहुंचना था। इसलिए न चाहते हुए भी हम एवरेस्ट की ऊंचाइयों, एवरेस्ट के सम्मोहन, खुम्भू ग्लेशियर की जानलेवा क्रेवासेज और एवरेस्ट में चिर निद्रा में सोए पर्वतारोहियों की स्मृतियों से भौतिक रूप से बिछड़ रहे थे।
( राइटर दुनिया के पहले जर्नलिस्ट हैं, जो अंटार्कटिका मिशन में शामिल हुए थे और उन्होंने वहां से रिपोर्टिंग की थी। )
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सफलता का आनंद और विछोह का दुख एक साथ गड्ड-मड्ड हो रहे थे। वापसी का पहला कदम अरूण सिंघल ने उठाया। पीछे नवांग, फिर राजेन्द्र और मैं। ताशी सबसे पीछे था। खराब मौसम होने के कारण रास्ते के पत्थर ठंडे और थोड़े चिकने से हो गए थे, ताजा बर्फ के फोहे भी उन पर जम रहे थे। इसलिए हम वापसी के कदम भी बहुत सतर्कता से उठा रहे थे। चलते-चलते मेरे मन में उन साहसी लोगों के लिए एक बार फिर सम्मान का भाव जाग उठा, जो इस रास्ते पर मैराथन दौड़ दौड़ते हैं। नेपाल में एवरेस्ट विजय के प्रति सम्मान प्रदर्शित करने के लिए हर वर्ष 23 मई को एवरेस्ट बेस कैम्प से नामचे बाजार तक एक मैराथन रेस का आयोजन होता है। इस दौड़ में स्थानीय लोगों के साथ-साथ बड़ी संख्या में विदेशी भी शामिल होते हैं।
आगे की स्लाइड में जानिए कितनी उंचाई पर होती है यह मैराथन दौड़
विश्व में सबसे अधिक ऊंचाइयों वाली इस मैराथन का आरंभ एवरेस्ट बेस कैम्प पर 5364 मीटर ऊंचे एक स्थान से होता है और गोरखशेप, लोबूचे, दिंगबोचे और थ्यांगबोचे होते हुए नामचे बाजार में 3440 मीटर की ऊंचाई पर यह समाप्त होती है। 42.195 किलोमीटर लम्बी इस मैराथन को तेनजिंग हिलेरी एवरेस्ट मैराथन कहा जाता है। जिन उतार-चढ़ाव भरे रास्तों पर पर्वतरोहियों के लिए चलना भी मुश्किल होता है, उन्हीं रास्तों पर मैराथन दौड़ना निश्चित रूप से एक चुनौती भरा काम है। 2015 में भूकंप के कारण इसका आयोजन अक्टूबर में हुआ। 2016 में इस मैराथन में भारतीय सेना की एक टीम ने भी भाग लिया और उसके धावकों को विदेशी वर्ग में चौथा, पांचवां, छठा व सातवां स्थान मिला। नेपाली धावक बेद बहादुर ने चार घंटे दस सेकेंड में रेस पूरी कर पहला स्थान हासिल किया।
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2002 से शुरू यह मैराथन अब बहुत लोकप्रिय हो गई है और दुनियाभर के साहसी धावक हजारों डालर खर्च करके भी इसमें भाग लेने के लिए आतुर रहने लगे हैं। ऐसे साहसी लोगों को स्मरण करते ही किसी चलचित्र की तरह एवरेस्ट आरोहण के आरम्भिक पुरोधाओं के कारनामे याद आने लगते हैं। एवरेस्ट के आरम्भिक अभियान यों तो 1921से शुरू हुए थे, मगर उस समय तक नेपाल की ओर से बाहरी लोगों को एवरेस्ट क्षेत्र में जाने की अनुमति नहीं थी। इसलिए आरम्भिक अभियान उत्तरी दिशा से यानी तिब्बत की ओर से शुरू हुए। 1922 का पहला ब्रिटिश एवरेस्ट अभियान भी उत्तरी मार्ग से किया गया और 1924 का मैलोरी और इर्विन वाला दुखद और ऐतिहासिक अभियान भी। ऐसा माना जाता है कि मैलोरी और इर्विन एवरेस्ट शिखर तक पहुंचने में सफल हो गए थे।
आगे की स्लाइड में जानिए किस हादसे को याद कर कांप गई रूह
एंड्रयु इर्विन और जार्ज मैलोरी 8 जून 1924 को आखिरी बार एवरेस्ट पर शिखर के बहुत पास देखे गए थे। फिर वे लापता हो गए, शायद वे किसी दुर्घटना का शिकार हो गए थे। 1933 के एक अभियान में इर्विन की आइस एक्स 8,460 मीटर की ऊंचाई पर देखी गई। 1999 में मैलोरी इर्विन रिसर्च फाउण्डेशन के खोज अभियान में जार्ज मैलोरी का शव खोजा गया। 27570 फुट की ऊंचाई पर मैलोरी का शव एकदम सही सलामत हालत में पाया गया। इस शव और इर्विन की आइस एक्स मिलने के बाद भी यह स्पष्ट नहीं हो सका कि मैलोरी और इर्विन वाकई एवरेस्ट पर पहुंच पाए थे या नहीं। यह रहस्य एवरेस्ट के सीने में उसी तरह दफन है, जैसे मैलोरी का शव वहां 75 वर्ष तक दफन रहा। फिर भी ऐसे लोगों की कमी नहीं है, जो यह मानते हैं कि मैलोरी व इर्विन एवरेस्ट पर विजय हासिल कर चुके थे और वापस लौटते समय एक दुर्घटना में वे दोनों मारे गए।
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वैसे उनके साथी पर्वतारोही नोएल ओडेल के विवरणों के अलावा एक अन्य तथ्य भी उनके आरोहण की सफलता की ओर इशारा करता है। मैलोरी अपने साथ अपनी पत्नी की एक तस्वीर लाए थे जो वे एवरेस्ट पर पहुंचने में सफल होने की स्थिति पर शिखर पर ही रखने वाले थे। उनके शव की कपड़ो की जेब में वो तस्वीर नहीं मिली। तो क्या मैलोरी अपनी मृत्यु के वक्त एवरेस्ट आरोहण में सफल होने के बाद वापस लौट रहे थे? इसी तरह उनका धूप का चश्मा भी उनकी एक जेब में मिला। उन्हें आखिरी बार दोपहर एक बजे एवरेस्ट के करीब देखा गया था। उनका धूप का चश्मा उनकी जेब में होने का अर्थ है कि जब उनके साथ दुर्घटना हुई उस समय शाम हो चुकी थी क्योंकि दिन के समय एवरेस्ट की ऊंचाइयों में धूप के चश्मे के बिना चल पाना सम्भव ही नहीं। तो क्या दुर्घटना के समय मैलोरी एवरेस्ट आरोहण करके वापस लौट रहे थे?
लेकिन यह सिर्फ सम्भावनाएं हैं, जिनका सही उत्तर सिर्फ एवरेस्ट ही जानता है। इर्विन के शव के बारे में 1960 के चीनी एवरेस्ट अभियान के जू जिंग ने दावा किया था कि उन्होंने एवरेस्ट शिखर के निकट 8564 मीटर ऊंचे ‘फर्स्ट स्टेप’ के पास उनका शव देखा था। 1924 में मैलोरी जिस ऊंचाई तक अधिकृत रूप से पहुंच चुके थे, उस ऊंचाई तक 1924 के बाद तिब्बत की ओर से 1960 के अभियान में ही दुबारा पहुंचा जा सका था। इसलिए वह शव किसी और का नही हो सकता था इसलिए यह माना गया कि वह शव इर्विन का ही था। बाद में 2010-11 में हुए एक अन्य अभियान में 8,425 मीटर पर एक चट्टान पर इर्विन का शव देखे जाने की पुष्टि हुई, मगर फिर उसे नहीं खोजा जा सका।
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मैलोरी और इर्विन की एवरेस्ट की रहस्य गाथा ने 1924 के बाद के वर्षों में एवरेस्ट के जादू को और अधिक ख्याति प्रदान की और उनके साहस ने दूसरे पर्वतारोहियों को एवरेस्ट के खतरों का सामना करने के लिए प्रेरित किया। ऐसे विलक्षण पर्वतारोहियों का प्यारा एवरेस्ट अभी-अभी कुछ क्षण पहले तक हमारे साथ था। मगर अब हम उसकी ओर पीठ मोड़ चुके थे। वो अब निगाहों के सामने नहीं था। मगर हमांरे मन की आंखें उसे देखती जा रही थीं। अरूण सिघंल दूर काफी आगे निकल चुका था और मैं तथा राजेन्द्र डूबते सूरज का नृत्य देखते जा रहे थे।
गोविंद पंत राजू