नाकाम इश्क और बीवी की बेवफाई ने बना दिया सिकंदर को जिगर

Update: 2016-04-06 07:53 GMT

लखनऊ: 6 अप्रैल 1890 को जिगर मुरादाबादी पैदा हुए तो अब्बा ने बड़े प्यार से नाम रखा अली सिंकदर। अली मतलब अल्लाह और सिकंदर जिसने दुनियां जीती थी। मगर प्यार में नाकामी और बीवी की बेवफाई ने उन्हें ऐसा तोड़ा कि वो जिगर मुरादाबादी बन गए। जब वो नजीबाबाद में थे तो एक लडकी से उन्हें इश्क हो गया। ये एकतरफा नहीं था, लेकिन अफसाना अंजाम तक नहीं पहुंच सका। सिकंदर ने उसे एक खूबसूरत मोड़ पर ले जा कर छोड़ना चाहा। उसके गम में जान देने की कोशिश की, लेकिन सख्त जान ऐसे कहां जाती है ।

प्यार-शादी में रहे नाकाम

उन्होंने जिससे प्यार किया उससे निकाह नहीं कर पाएं और जिससे निकाह किया वो उनके साथ नहीं रह पाई। मतलब उनका निकाह वहीदा बेगम नाम की लड़की से हुआ था। वहीदा को अली सिकंदर का शेरो-शायरी में लगा रहना पसंद नहीं था। नतीजा ये हुआ वे उन्हें छोड़ गई। बीवी के जाने के बाद गम में ऐसे डूबे कि शराब को दोस्त और हमसफर बना लिया।नहीं ली पाकिस्तान की नागरिकता

तमाम गमों के बाद भी देश प्रेम का जज्बा कम नहीं हुआ। पाकिस्तान बनने के बाद वहां की सरकार ने जिगर मुरादाबादी को नागरिकता देनी चाहीं और पूरी जिंदगी कुछ रकम बतौर वजीफे की पेशकश करते हुए आ जाने को न्यौता दिया था। जिसे ठुकराते हुए ये शेर कहा-' उनका जो फर्ज है वो एहले सियासत जाने। मेरा पैगाम मुहब्बत है जहां तक पहुंचे।'

यूं तो कई शायर हुए, लेकिन मुरादाबादी का था अंदाज निराला

यूं तो सर जमीन-ए-मुरादाबाद में कई शायर पैदा हुए, लेकिन जो इज्जत और शोहरत जिगर मुरादाबादी ने हासिल की। उसकी मिसाल मिलना मुश्किल है। जिगर साहब की शुरुआती तालीम मदरसा, जामिया, कासमिया, मदरसा शाही और इमदादिया में हुई। उनको शायरी से काफी शोहरत मिली। इसके बाद वो गोंडा चले गए। 9 सितंबर 1960 को उनका इंतकाल हो गया और वहीं पर उनको सुपुर्द-ए-खाक कर दिया गया। गोंडा मे उनके नाम से एक कॉलेज भी संचालित है।उनको बेहतरीन शायर बनाने में वालिद का हाथ

जिगर साहब को अच्छा शायर बनाने में उनके वालिद अली नजर की बड़ी भूमिका थी। वालिद के कारण ही जिगर साहब को भी शायरी का शौक लग गया। जिगर कम उम्र में गजलों के माध्यम से अपने जमाने के मशहूर शायर दाग देहलवी की तारीफ पा चुके थे।

उनकी जुगलबंदी काबिल-ए-तारीफ

जिगर साहब ने हुस्न और इश्क की ऐसी मिसाल पेश की, जो जमाने के लिए नजीर बन गई। वो जुगलबंदी में माहिर थे। उन्होंने अपनी गजलों को और प्रभावशाली बनाने के लिए उर्दू और फारसी के लफ्जों का बेहतरीन नमूना पेश किया। उन्होंने लिखा- कहते हैं कि इश्क नाम के गुजरे थे एक बुजुर्ग। हम लोग भी मुरीद उसी सिलसिले में है।कई किताबें हुई प्रकाशित

दुनियाभर में पीतलनगरी के नाम से विख्यात मुरादाबाद का नाम रोशन करने वाले हरदिल अजीज जिगर साहब की शायरी की धूम हिन्दुस्तान में ही नहीं, बल्कि पूरी दुनिया में थी खासकर पाकिस्तान में। एक गजल में उन्होंने कहा- 'इश्क को बेनकाब होना था। आप अपना जवाब होना था।' जिगर मुरादाबादी के कई मजमुआ-ए-कलाम प्रकाशित हुए।

इसमे दागे जिगर 1928 में आजमगढ़ से प्रकाशित हुआ। शोला-ए-तेल 1934 में प्रकाशित हुआ। आतिशे अमल 1954 मे अलीगढ़ से प्रकाशित हुआ। उन्होंने लिखा-फिर ये जुदाइयां हैं क्या,फिर ये दहाइयां हैं क्या। इश्क से तो अलग नहीं, हुश्न से जुदा नहीं।जिगर की शायरी का अंदाज मिर्जा गालिब की तरह फलसफाना था। ये अंदाज जिगर ही दिखा सकते थे जब वह लिखते हैं कि 'फलक के जोर जमाने के गम उठाए हुए हैं। हमें बहुत न सताओ कि हम सताए हुए हैं ।'

आज के समय में पन्नों तक सिमट गए

उनकी याद में बने जिगर मुरादाबादी फाउंडेशन ने पिछले साल 9 सितम्बर को उनकी 55वीं बरसी पर याद किया गया । 1955 में जिगर फाउडेंशन का गठन किया गया था, लेकिन इतने सालों में उनको याद करने मात्र से ज्यादा और कोई बड़ी उपलब्धि नहीं है। दुखद ये था कि देशप्रेम में पाकिस्तान जाने की पेशकश ठुकराने वाले जिगर के मंच से पाकिस्तान जिंदाबाद और भारत मुर्दाबाद के नारे लगे ।

उन्होंने लिखा है-मेरा कमाले शेर बस इतना है जिगर। वो मुझ पे छा गए मैं जमाने पे छा गया।। ये इश्क नहीं आसां बस इतना समझ लीजे। इक आग का दरिया है और डूब के जाना है।

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