कई रंगों वाले भारत का शब्दयुग हैं कृष्णा सोबती, भाषाई तेवर रहे बिल्कुल अलग
लखनऊ: वह कम लिखती हैं। गज़ब का लिखती हैं। जिंदगीनामा से जब परिचय हुआ, तब तक कृष्णा जी की यात्रा साहित्य अकादमी से भी आगे निकल चुकी थी। कृष्णा सोबती केवल एक कथाकार या उपन्यासकार भर नहीं हैं। वह शब्दयुग हैं। इस युग में कई रंगों वाला भारत है। ऐसे रंग दिखाने की शैली और क्षमता बहुत कम ही रचनाकार निभा पाते हैं। हिंदी साहित्य में कृष्णा सोबती का महत्व इसलिए भी है कि स्वातंत्र्योत्तर कथा साहित्य में वे अकेली अपने समकालीन कहानीकारों और उनकी बहुत सारी कहानियों के समक्ष अपनी सीमित किंतु महत्वपूर्ण कहानियां लाती रहीं हैं । उन्हें बहुत लिखने का शौक न तब था न अब है। अब तो उम्र भी इसकी अनुमति नहीं देती।
18 फरवरी 1924 को गुजरात (वर्तमान पाकिस्तान) में जन्मी सोबती साहसपूर्ण रचनात्मक अभिव्यक्ति के लिए जानी जाती है। उनके रचनाकर्म में निर्भीकता, खुलापन और भाषागत प्रयोगशीलता स्पष्ट परिलक्षित होती है। 1950 में कहानी लामा से साहित्यिक सफर शुरू करने वाली सोबती स्त्री की आजादी और न्याय की पक्षधर हैं। उन्होंने समय और समाज को केंद्र में रखकर अपनी रचनाओं में एक युग को जिया है। कृष्णा सोबती स्वतंत्रता के बाद के कथा साहित्य की कृष्णा सोबती का लेखकीय व्यक्तित्व जिस परिवेश में विकसित हुआ, वह परिवेश बंदिश से अधिक खुलेपन का पैरोकार था।
यही कारण है कि उनका रचनात्मक विकास वस्तु के स्तर पर ही नहीं भाषा और शिल्प के स्तर पर होता रहा है। अपने और अपने समकालीनों के परिवेश और स्वभाव की जानकारी उनकी पुस्तक हम हशमत में बहुत बेहतर ढंग से दी गई है। अपने लेखन के बारे में उनका कहना है कि वो बहुत नहीं लिख पातीं क्योंकि जब तक उनके अंदर की कुलबुलाहट उनके भीतर का दबाव इतना अधिक न बढ़ जाए कि वे लिखे बिना न रह सकें, तब तक उनका लेखन संभव नहीं हो पाता।
कृष्णा सोबती का महत्व सिर्फ इस बात में नहीं की। उन्होंने अपने साहित्य में अपने समकालीन संदर्भों को जगह दी बल्कि उससे अधिक इस बात में कि उन्होंने जिस शिल्प और संवेदना के माध्यम से मानवीय संबंधों और संवेदनाओं का चित्रण किया। वह उन्हें अन्य लेखकों से अलग पहचान दिलाता है। उनकी कहानियों के संवादों में जो संदर्भ विद्यमान रहता है। कृष्णा सोबती उस संदर्भ को पाठक के सामने सीधे रूप में नहीं रखती। तब भी पाठक उस पृष्ठभूमि उस संदर्भ तक पहुंच जाता है।
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यह उनकी खासियत है कि इतिहास के पहलुओं पर बहुत अधिक शोध न करने के बावजूद वे इतिहास के तथ्य खोजने की अपेक्षा इतिहास में कहीं किसी जगह दफ़्न मानवीय संवेदनाओं और संबंधों का समकालीन संदर्भों में चित्रण करती हैं, विश्लेषण नहीं। यह उनकी उपलब्धि समझी जानी चाहिए सीमा नहीं कि वह अपने लेखन में इतिहास का संदर्भ लेते हुए भी साहित्य की प्राथमिकता को बनाए रखती हैं। साथ ही उनका कथा साहित्य विश्लेषण करने की पूरी छूट भी पाठक को देता है।
एक स्त्री होने के बावजूद वे यारों के यार और मित्रों मरजानी की भाषा का तेवर बहुत बोल्ड रखती हैं। ये जानते हुए कि उन पर अश्लील होने के आरोप लगेंगे। एक विदेशी रेडियो के लिए दिए गए एक साक्षात्कार में उन्होंने इस आरोप पर खुल कर अपनी बात भी कही थी-
“भाषिक रचनात्मकता को हम मात्र बोल्ड के दृष्टिकोण से देखेंगे तो लेखक और भाषा दोनों के साथ अन्याय करेंगे। भाषा लेखक के बाहर और अंदर को एकसम करती है। उसकी अंतरदृष्टि और समाज के शोर को एक लय में गूंथती है। उसका ताना-बाना मात्र शब्द कोशी भाषा के बल पर ही नहीं होता। जब लेखक अपने कथ्य के अनुरूप उसे रुपांतरित करता है तो कुछ ‘नया’ घटित होता है। मेरी हर कृति के साथ भाषा बदलती है। मैं नहीं-वह पात्र है जो रचना में अपना दबाव बनाए रहते हैं। ज़िंदगीनामा की भाषा खेतिहर समाज में उभरी है। दिलोदानिश की भाषा राजधानी के पुराने शहर से है, नई दिल्ली से नहीं। उसमें उर्दू का शहरातीपन है। ए लड़की में भाषा का मुखड़ा कुछ और ही है। उसकी गहराई की ओर संकेत कर रही हूं।"
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यह है कृष्णा जी की निर्भीक शैली और बेबाकीपन। मित्रों मरजानी में मित्रों का भाषाई तेवर बिल्कुल अलग है। वह न बोल्ड है न अटपटा, उसे पढ़ते हुए वह अनोखी ज़रूर लगती है। स्वयं लेखक को अचंभित कर देने वाली। वह लेखक की नहीं उपन्यास की मित्रों की देन है। यारों के यार में जहां कुछ ऐसे शब्दों का इस्तेमाल हुआ है, जिन्हें कुछ लोग बोल्ड और कुछ लोग अश्लील कहते हैं। वह कहानी दफ्तर के रोजमर्रा के कार्य-कलापों और काम करने वालों के वाचन के इर्द-गिर्द घूमती है। फाइलों की एकरसता से उबरने के लिए कुछ मर्दानी गालियां कमजोरों के आक्रोश को ही प्रकट करती हैं। वह शायद समाज में इसीलिए ईज़ाद भी की गई होंगी।” ‘बादलों के घेरे’ का निर्माण कैसे हुआ, भीम ताल और नौकुचिया ताल के बीच कैसे बादलों के घेरे की मन्नो के चरित्र ने जन्म लिया।
कैसे यारों के यार उपन्यास पूरा लिख जाने के बाद भी उसके शीर्षक के लिए उन्होंने जद्दोजहद की, मित्रों का चरित्र कहां मिला, डार से बिछुड़ी में कैसे उनका अनुभव उपजीव्य बना? इस सबकी दास्तान स्वयं कृष्णा सोबती अपने शब्दों में बयां करतीं हैं। आज अपनी 93 वर्ष की उम्र में वे साहित्य में उतनी सक्रिय न भी रहीं हों लेकिन उनका साहित्य और इसकी संवेदना इस बात का प्रमाण है कि उनकी रचनाओं को साहित्य और पाठक समाज आज भी हाथों-हाथ लेता है। आज भी प्रकाशक उनकी रचनाएं छापने के लिए और पाठक पढ़ने के लिए लालायित रहते हैं।
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‘बादलों के घेरे’, ‘डार से बिछुड़ी’, ‘तीन पहाड़’ एवं ‘मित्रों मरजानी’ कहानी संग्रहों में कृष्णा सोबती ने नारी को अश्लीलता की कुंठित राष्ट्र को अभिभूत कर सकने में सक्षम अपसंस्कृति के बल-संबल के साथ ऐसा उभारा है कि साधारण पाठक हतप्रभ तक हो सकता है। ‘सिक्का बदल गया’, ‘बदली बरस गई’ जैसी कहानियां भी तेज़ी-तुर्शी में पीछे नहीं। उनकी हिम्मत की दाद देने वालों में अंग्रेज़ी की अश्लीलता के स्पर्श से उत्तेजित सामान्यजन पत्रकारिता एवं मांसलता से प्रतप्त त्वरित लेखन के आचार्य खुशवंत सिंह तक ने सराहा है।
पंजाबी कथाकार मूलस्थानों की परिस्थितियों के कारण संस्कारत: मुस्लिम-अभिभूत रहे हैं। दूसरे, हिंदू-निंदा नेहरू से अर्जुन सिंह तक बड़े-छोटे नेताओं को प्रभावित करने का लाभप्रद-फलप्रद उपादान भी रही है। नामवर सिंह ने, कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘डार से बिछुड़ी’ और ‘मित्रों मरजानी’ का उल्लेख मात्र किया है और सोबती को उन उपन्यासकारों की पंक्ति में गिनाया है, जिनकी रचनाओं में कहीं वैयक्तिक तो कहीं पारिवारिक-सामाजिक विषमताओं का प्रखर विरोध मिलता है।
इन सभी के बावजूद ऐसे समीक्षकों की भी कमी नहीं है, जिन्होंने ‘जिंदगीनामा’ की पर्याप्त प्रशंसा की है। डॉ. देवराज उपाध्याय के अनुसार-‘यदि किसी को पंजाब प्रदेश की संस्कृति, रहन-सहन, चाल-ढाल, रीति-रिवाज की जानकारी प्राप्त करनी हो, इतिहास की बात’ जाननी हो, वहां की दंत कथाओं, प्रचलित लोकोक्तियों तथा 18वीं, 19वीं शताब्दी की प्रवृत्तियों से अवगत होने की इच्छा हो, तो ‘जिंदगीनामा’ से अन्यत्र जाने की ज़रूरत नहीं। सूरजमुखी अंधेरे के, दिलोदानिश, ज़िंदगीनामा, ऐ लड़की, समय सरगम, मित्रों मरजानी, जैनी मेहरबान सिंह, हम हशमत, बादलों के घेरे ने कथा साहित्य को अप्रतिम ताजगी और स्फूर्ति प्रदान की है। हाल में प्रकाशित ‘बुद्ध का कमंडल लद्दाख’ और ‘गुजरात पाकिस्तान से गुजरात हिंदुस्तान’ भी उनके लेखन के उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
प्रमुख कृतियां
कृष्णा सोबती उपन्यासकार के अतिरिक्त एक कहानी लेखिका के रूप में भी प्रसिद्ध रही हैं। आठवें दशक के पूर्व से ही इनकी धूम रही है। इनके कुछ कहानी और उपन्यासों का संग्रह इस प्रकार से हैं-
'डार से बिछुड़ी'
'यारों के यार'
'तीन पहाड़'
'मित्रो मरजानी'
'सूरजमुखी अंधेरे के'
'जिंदगीनामा'
'दिलो-दानिश'
'समय सरगम'
'बादलों के घेरे'
'मेरी मां कहां'
'दादी अम्मा'
'सिक़्क़ा बदल गया'
पुरस्कार व सम्मान
1999 - 'कथा चूड़ामणि पुरस्कार'
1981 - 'साहित्य शिरोमणि पुरस्कार'
1982 - 'हिंदी अकादमी अवार्ड'
2000-2001 - 'शलाका सम्मान'
1980 - 'साहित्य अकादमी पुरस्कार'
1996 - 'साहित्य अकादमी फ़ेलोशिप'
इसके अतिरिक्त इन्हें 'मैथिलीशरण गुप्त पुरस्कार' भी प्राप्त हो चुका हैं। उनके उपन्यास जिंदगीनामा के लिए वर्ष 1980 का साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला था। उन्हें 1996 में अकादमी के उच्चतम सम्मान साहित्य अकादमी फेलोशिप से नवाजा गया था। इसके अलावा कृष्णा सोबती को पद्मभूषण, व्यास सम्मान, शलाका सम्मान से भी नवाजा जा चुका है। कृष्णा सोबती ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित होने वाली हिंदी की 11वीं रचनाकार हैं। इससे पहले हिंदी के 10 लेखकों को ज्ञानपीठ पुरस्कार मिल चुका है। इनमें सुमित्रानंदन पंत, रामधारी सिंह दिनकर, सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय, महादेवी वर्मा, कुंवर नारायण आदि शामिल हैं।