अंग्रेजों के दांत खट्टे करने वाले बलभद्र सिंह की कब्र पर आज भी नहीं है एक ईंट
बाराबंकी: "तुम भूल न जाओ उनको इस लिए सुनो ये कहानी, जो शहीद हुए हैं उनकी, जरा याद करो कुर्बानी" कवि प्रदीप की लिखी यह पंक्तियां एक बार फिर हमें लिखनी पड़ रही हैं क्योंकि आज हम एक ऐसी शख्सियत से आपको रूबरू कराने जा रहे हैं, जिसे सिर्फ लोग ही नहीं भूले बल्कि सरकार में बैठे नुमाइन्दे भी उसे भूल चुके है। जो अकेला ही पूरी अंग्रेजी सेना पर भारी पड़ा था। जिसके बारे में कहा जाता है कि लड़ते-लड़ते जब उसका सिर अंग्रेजों ने धड़ से अलग कर दिया। तब भी उसका धड़ दोनों हाथों से तलवार चलाता हुआ काफी दूर तक अंग्रेजों के सिर उनके धड़ से अलग करता हुआ चला गया।
जिसके शहीद होने पर अंग्रेजों ने भी बड़े सम्मान के साथ कहा था कि बहादुर तो हिंदुस्तान में बहुत देखे मगर मां भारती का ऐसा वीर सपूत उन्होंने पहले कभी नहीं देखा। जिसके सम्मान में कवियों की कलम चलने लगी और जिसका अनुसरण आगे चलकर बाकी क्रांतिकारियों ने किया। जिसकी शौर्य गाथा आज भी गवैये बड़े शान से गाते हैं। वह महान योद्धा कोई और नहीं बल्कि मात्र अठारह वर्ष का नौजवान राजा बलभद्र सिंह चहलारी था। मगर आज ऐसे महान क्रांतिकारी की समाधि का जरा हाल देखिए, घने जंगल के बीच बनी कच्ची समाधि अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रही है। इस समाधि पर जंगली खर-पतवार देख कर सहज अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि हमारे देश में महान क्रांतिकारियों के भूलने की बीमारी को ध्यान में रख कर ही शायद कवि प्रदीप ने ऊपर लिखी पंक्तियां लिखी थी।
यह कहानी है सन 1858 की। जब पूरे हिन्दुस्तान में चारों ओर अंग्रेजी शासन का आतंक पूरे शबाब पर था और उसी समय अंग्रेजों के शासन का शिकार बनी थी। लखनऊ की बेगम हज़रत महल। अंग्रेज बेगम हज़रत महल को पागलों की तरह ढूंढ रहे थे। इसी दौरान बेगम हज़रत महल ने बाराबंकी के महादेवा में आस-पास के राजाओं की एक बैठक कर अंग्रेजों के विरुद्ध युद्ध छेड़ने की बात रखी। लगभग सभी राजा बेगम के पक्ष में थे। फिर बेगम ने सभी राजाओं से सेना का नेतृत्व कौन करेगा? यह प्रश्न किया। ऐसे में सभी राजा एक-दूसरे का मुंह देख रहे थे। कोई अंग्रेजो की शक्तिशाली सेना के खिलाफ नेतृत्व करने को तैयार नहीं था। उसी बैठक में आए बहराइच जनपद के 18 वर्षीय युवा चहलारी नरेश के नाम से विख्यात राजा बलभद्र सिंह चहलारी उठ खड़े हुए और बेगम हज़रत महल से कहा कि सेना का नेतृत्व वह खुद करेंगे। इस युवा का जोश देख कर बेगम ने उन्हें सेना के नेतृत्व की जिम्मेदारी दी।
एक तरफ लखनऊ से अत्याधुनिक हथियारों से सुसज्जित भारी-भरकम अंग्रेजी सेना बेगम हज़रत महल को मारने के लिए महादेवा की तरफ आगे बढ़ रही थी। तो दूसरी ओर राजा बलभद्र सिंह चहलारी महदेवा से लखनऊ की ओर मात्र छह सौ सैनिकों के साथ अंग्रेजों को सबक सिखाने के इरादे से आगे बढ़ रहे थे। बाराबंकी जनपद के मुख्यालय के पास राजा बलभद्र सिंह का सामना अंग्रेजों से हो गया। न अंग्रेज हार-मानने को तैयार थे न बलभद्र सिंह। दोनों में जमकर युद्ध हुआ और राजा बलभद्र सिंह ने अंग्रेजों की विशाल सेना को तब तक रोक कर रखा। जब तक बेगम हज़रत महल सुरक्षित नेपाल नहीं पहुंच गई।
अंग्रेजी सेना चहलारी नरेश से लड़ते-लड़ते पस्त हो गई क्योंकि चहलारी नरेश के सारे सैनिक मारे जा चुके थे और चहलारी नरेश अंग्रेजों से अकेले ही युद्ध करते हुए उन पर भारी पड़ रहे थे। तब अंग्रेजों ने घेर कर राजा बलभद्र सिंह चहलारी का सिर धड़ से अलग कर दिया। मगर लोग बताते हैं कि घोड़े पर दोनों हाथों से तलवार चलाता हुआ राजा बलभद्र सिंह चहलारी का सिर कटा धड़ काफी दूर तक अंग्रेजों को मौत के घाट उतारता चला गया।
जानकार लोगों की अगर माने तो जहां उनका धड़ गिरा वहीं पर उनकी समाधि बनाई गई। मगर 1858 के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के इस वीर योद्धा की समाधि पर डेढ़ सौ सालों बाद भी एक भी पक्की ईंट नहीं रखी जा सकी है। जनपद के सम्भ्रांत नागरिकों की इच्छा है कि इसके लिए सरकार आगे आए और राजा बलभद्र सिंह चहलारी की समाधि पक्का बनवा कर उसे एक रमणीय स्थान के रूप में विकसित करे। साथ ही साथ राजा बलभद्र सिंह चहलारी की शौर्य गाथा की पुस्तक छपवा कर लोगों में उनके प्रति जागरूकता पैदा करे क्योंकि जिसकी वीरता को देखकर अंग्रेज अफसर ने अपनी पुस्तक में लिखा हो कि लड़ाई तो उसने बहुत लड़ी मगर राजा बलभद्र सिंह चहलारी जैसा वीर योद्धा पूरी जीवन में उन्होंने नहीं देखा। ऐसे वीर योद्धा के प्रति रुखा रवैया रखने वाली सरकार के प्रति उनका आक्रोश साफ़-साफ़ दिखाई देता है।
कांग्रेस के दिग्गज नेता और राज्यसभा सांसद डॉक्टर पी.एल.पुनिया जरूर राजा बलभद्र सिंह चहलारी के जन्मदिवस पर साल में एक कार्यक्रम का आयोजन करते हैं। मगर समाधि अब तक सिर्फ मिटटी का टीला ही बनी हुई है। इसका कारण वह उस ज़मीन को मिलिट्री की जमीन होना बताते हैं।
पुनिया ने बताया कि उन्होंने अपनी यूपीए सरकार के रक्षा मंत्री तक को पत्र लिखकर इस समाधि के जीर्णोद्धार की गुहार लगाई। मगर नतीजा कुछ भी नहीं निकल पाया। पुनिया ने बताया कि वर्ष में एक बार सेना के अधिकारियों से अनुमति लेकर वहां जाते हैं और जंगल की साफ़-सफाई कर कच्चा रास्ता भी बनवाते हैं।
स्थानीय गांव वाले भी कभी-कभार इस सामाधि पर आते हैं और श्रद्धा सुमन अर्पित करते हैं। मगर उन्हें भी इंतज़ार है, एक ऐसे सरकारी आदेश का जो इस महापुरुष के बलिदान का सही मोल चुका सके। मगर शायद इसका इंतज़ार करते-करते न जाने कितनी पीढियां बीत गई और न जाने कितनी बीत जाएं। लोगों का मानना है कि अगर सरकार इसे विकसित कर इसे एक पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करे, तो राजा बलभद्र सिंह की शौर्य गाथा के बारे में ज्यादा से ज्यादा लोग जान सकेंगे और शायद यही इस महान योद्धा के लिए सच्ची श्रद्धांजलि होगी। किसी कवि ने लिखा था कि "शहीदों की चिताओ पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरने वालों का यही बाकी निशां होगा" मगर राजा बलभद्र सिंह चहलारी के समाधी पर आज तक कोई मेला भी नहीं लगा।