लखनऊ: कोई गीत, गजल या शेर यदि किसी आजादी के दीवाने की जुबान पर चढ़ जाए तो उसे अमर होते देर नहीं लगती। ऐसा ही हुआ सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है गजल के साथ। इसे सुनते ही आजादी के दीवाने राम प्रसाद बिस्मिल का नाम जुबान पर आता है।
इस शेर के प्रति बिस्मिल की दीवानगी कुछ इस हद तक थी कि 9 अगस्त 1925 को लखनऊ के नजदीक काकोरी में ट्रेन लूट की घटना के बाद जब उन्हें गोरखपुर जेल में 19 दिसंबर 1927 को फांसी दी गई तो फंदे को चूमते हुए भी ये उनकी जुबान पे था। गौरतलब है कि अजीमाबादी ने ये शेर 1921 में लिखा था।
11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में जन्मे राम प्रसाद बिस्मिल कोई शायर नहीं थे। उन्होंने कभी कुछ लिखा नहीं। हां, उन्हें शेर और गजलों का शौक जरूर था। जब भी कोई अच्छी गजल या शेर उन्हें मिलता वो उसे अपनी डायरी में नोट कर लिया करते और उसे गुनगुनाने लगते।
दरअसल ये शेर बिस्मिल अजीमाबादी का है।पाटलीपुत्र से पाटन और पटना तक पहुंचने की यात्रा में उस शहर का नाम कभी अजीमाबाद हुआ करता था। दरअसल, दोनों का उपनाम 'बिस्मिल' होने के कारण ये भ्रम हो गया कि इसे लिखने वाले राम प्रसाद बिस्मिल थे ।
इसकी जानकारी रखने में गुगल गुरू भी गच्चा खा गए थे। गुगल का सर्च ईंजन भी अब तक इसका लेखक राम प्रसाद बिस्मिल को ही बताता है। यहां तक कि विकिपिडिया में भी इसका जिक्र राम प्रसाद बिस्मिल के नाम से ही है।
बिस्मिल अजीमाबादी सिर्फ शायर ही नहीं थे। उन्होंने बहुत से लेख भी लिखे। उनका एक लेख परिंदों के शौकीन काफी मशहूर हुआ। उनकी शायरी की एक किताब हेकायत-ए-हस्ती बिहार ऊर्दू अकादमी से प्रकाशित हुई। सन 1997 में आजादी की 50वीं वर्षगांठ पर जब रेडियो और टेलीविजन से भी इस इस शेर के जिक्र में लेखक के तौर पर राम प्रसाद बिस्मिल का नाम लिया गया तो बिहार विधानसभा के पूर्व अध्यक्ष जाबिर हुसैन ने पत्रिका तरजुमान में इस पर नाराजगी जाहिर की। उन्होंने अपने लेख में इसके लेखक के तौर पर बिस्मिल अजीमाबादी का जिक्र किया।
ये शेर बिस्मिल अजीमाबादी का ही है। इसके लिए 'आजकल' पत्रिका के ऊर्दू संस्करण में प्रकाशित अली सरदार जाफरी के संस्मरण में भी इसे सबूत के तौर पर पेश किया गया। बिस्मिल अजीमाबादी के बेटे सैयद मुनव्वर हसन कहते हैं कि अब्बा की जिंदगी में ही ये साबित हो गया था कि ये शेर उनका है।
ये है वो शेर ...
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है
एक से करता नहीं क्यूँ दूसरा कुछ बातचीत,
देखता हूँ मैं जिसे वो चुप तेरी महफ़िल में है।
ऐ शहीद-ए-मुल्क-ओ-मिल्लत, मैं तेरे ऊपर निसार,
अब तेरी हिम्मत का चर्चा ग़ैर की महफ़िल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
वक़्त आने पर बता देंगे तुझे, ए आसमान,
हम अभी से क्या बताएँ क्या हमारे दिल में है।
खेँच कर लाई है सब को क़त्ल होने की उमीद,
आशिक़ोँ का आज जमघट कूचः-ए-क़ातिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
है लिए हथियार दुशमन ताक में बैठा उधर,
और हम तय्यार हैं सीना लिये अपना इधर.
ख़ून से खेलेंगे होली गर वतन मुश्किल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
हाथ, जिन में हो जुनून, कटते नही तलवार से,
सर जो उठ जाते हैं वो झुकते नहीं ललकार से
और भड़केगा जो शोलः सा हमारे दिल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
हम तो घर से ही थे निकले बाँधकर सर पर कफ़न,
जाँ हथेली पर लिये लो बढ चले हैं ये कदम।
जिन्दगी तो अपनी मॆहमाँ मौत की महफ़िल में है,
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है।
यूँ खड़ा मक़्तल में क़ातिल कह रहा है बार-बार,
क्या तमन्ना-ए-शहादत भी किसी के दिल में है?
दिल में तूफ़ानों की टोली और नसों में इन्क़िलाब,
होश दुश्मन के उड़ा देंगे हमें रोको न आज
दूर रह पाए जो हमसे दम कहाँ मंज़िल में है।
जिस्म भी क्या जिस्म है जिसमें न हो ख़ून-ए-जुनून
क्या लढ़े तूफ़ान से जो कश्ती-ए-साहिल में है
सरफ़रोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है
देखना है ज़ोर कितना बाज़ू-ए-क़ातिल में है।