सलाम: 'मदद मजहब नहीं पूछती' इसी सोच से श्रेया ने की बाढ़ पीड़ितों की मदद

Update:2017-08-31 16:58 IST

संध्या यादव

लखनऊ: हर साल की तरह जब उन्होंने बादलों को उमड़ते-घुमड़ते देखा, तो उनकी आंखें ख़ुशी से चमक उठीं थी। जिस बारिश के लिए वो साल भर से इंतजार कर रहे थे, आखिर वह आ गई। पर उन मासूमों को क्या पता था कि बारिश उन्हें तबाह करने वाली होगी।

जी हां, हाल ही में जब बिहार में बाढ़ आई, तो जाने कितने ही आशियानों को उजाड़ दिया। ना जाने कितने ही घरौदों को बहा ले गई और करीब 400 जिंदगियों को अपने आगोश में ले लिया। पर उन बाढ़ पीड़ितों में जिंदगी को जीने की जद्दोजहद अभी भी बाकी है। उन बेचारों को नहीं पता है कि उन्हें अपने घर की रोटी कब नसीब होगी? जिधर देखो लोग बेबस और बेचारी आंखों से मदद की गुहार ही लगाते नजर आते।

बाढ़ के बाद पीड़ितों के पास न तो खाने के लिए दाना बचा और ना ही तन को ढंकने के लिए कपड़ा। उन्होंने अपने घर का एक-एक तिनका अपनी आंखों के सामने बहते देखा। ऐसे में वह अपनी तरफ मदद का हाथ बढाने वाले को किसी खुदा से कम नहीं समझते हैं। ऐसी ही मदद के लिए जब श्रेया ने उनकी तरफ अपना हाथ बढ़ाया, तो ना जाने कितनों के ही चेहरे पर मुस्कान बिखर गई।

बाढ़ के बाद कई नेताओं ने वहां का जायजा भी लिया, पर जिस अपनेपन की उन बेबसों को तलाश थी, उसे शायद श्रेया मजूमदार ने महसूस किया। छोटे स्तर पर भले ही लेकिन उन बाढ़ पीड़ितों की मदद का जो छोटा सा कदम श्रेया ने उठाया, वह वाकई काबिल-ए-तारीफ़ है।

जिस उम्र में लोग अपने करियर में आगे बढ़ने की जद्दोजहद में लगे होते हैं, वहीं पर श्रेया दूसरों के लिए भी वक्त निकाल रही हैं। जी हां, मिलवाते हैं आपको लखनऊ की एक ऐसी लड़की से, जिसने बिहार बाढ़ पीड़ितों की मदद कर एक सराहनीय काम किया है।

कौन हैं यह श्रेया मजूमदार

26 साल की श्रेया मजूमदार एक डाक्यूमेंट्री फिल्ममेकर हैं और फिलहाल वह नूरजहां मूविंग इमेज प्रोडक्शन हाउस के साथ एक लेखिका के रूप में काम कर रही हैं। उन्होंने पत्रकारिता की पढ़ाई की है।

इसके अलावा वह भारत और पाकिस्तान के लोगों के बीच कम्युनिकेशन को प्रोत्साहित करने के लिए 'पाक बंधु' नामक एक ऑनलाइन फोरम चलाती हैं। उनका कहना है कि उनके इस प्रयास से भारत-पाकिस्तान के लोगों के बीच की खाइयों को कम करने में हेल्प मिलेगी।

कब आया बिहार बाढ़ पीड़ितों की मदद का आइडिया

जब बाढ़ ने बिहार और पूर्वी उत्तर प्रदेश में अपना विकराल रूप दिखाया और सब-कुछ तहस-नहस कर दिया, तो उन्हें एहसास हुआ कि उन्हें उनके लिए कुछ करना चाहिए। श्रेया का कहना है कि वह इस तरह की चीजों के बारे में काफी जानकार नहीं थी। पर उनके दिल की जिद की कि वह उन पीड़ितों की मदद करें। वह कहती हैं कि पैसों से मदद इसलिए नहीं करना चाहती थी क्योंकि इसे पीड़ितों तक सही से नहीं पहुंचाया जा सकता था।

इसलिए उन्होंने मदद के लिए दूसरा रास्ता अपनाया और इसके लिए उन्होंने सामान इकठ्ठा करना शुरू किया। बाढ़ से प्रभावित लोगों के लिए श्रेया ने कपड़े, दवाएं, भोजन और अन्य आवश्यकताएं जैसे माचिस, मोमबत्तियां, वॉशिंग पाउडर, चप्पल इत्यादि चीजें जुटानी शुरू कीं।

पुरुष मित्रों ने अवलेबल करवाए सैनिटरी पैड्स

श्रेया का कहना था कि जब उनके दिमाग में हेल्प का आइडिया आया। उन्हें इस बात की चिंता हुई कि महिलाओं को सबसे ज्यादा दिक्कत हो रही होगी क्योंकि उन्हें हर महीने पीरियड आते हैं। ऐसे में बिहार और यूपी में महिलाओं के लिए सैनिटरी पैड भेजना उनकी सबसे पहली चिंता बन गई। ख़ास बात यह रही कि इसमें सबसे ज्यादा ज्यादा सैनिटरी पैड उनके पुरुष मित्रों ने अवलेबल करवाए। वह कहती हैं कि मैंने खुद जाकर कपड़े, दवाइयां, खाद्य पदार्थों और सैनिटरी पैड के बंडल कलेक्ट किए।

मिला सबका सहयोग

बाढ़ पीड़ितों की मदद के लिए सामान कलेक्ट करने में उन्हें आस-पड़ोस और दोस्तों का भी पूरा सहयोग मिला। इसके लिए लोगों ने दिल्ली, बॉम्बे, कोलकाता, हैदराबाद और बेंगलुरू से भी राहत सामग्री भेजी। सामान इकठ्ठा करने के बाद उन्होंने दवाइयों, सैनिटरी पैड और डिब्बाबंद खाद्य पदार्थों का ऑनलाइन आदेश दिया और उन्हें बाढ़ पीड़ितों में बंटवाया और अभी भी वह मदद मुहैया करवाने के विचार में लगी रहती हैं।

मदद महजब नहीं पूछती

श्रेया मजूमदार कहती है कि मैं उन लोगों को एक संदेश भेजना चाहती हूं, जिन्होंने इस पूरी मदद में शामिल होने से अंत तक में योगदान दिया। वह कहती हैं कि किसी की मदद का फैसला कभी धार्मिक या जातिवाद पर नहीं होना चाहिए। मदद करने वाले लोगों ने एकता और दयालुता की मिसाल पेश की है। इस समय, जब देश विभिन्न जातियों, पंथ, धर्म आदि से लोगों के प्रति असहिष्णुता से पीड़ित हो रहा है, तो यह एक दूसरे में मानव का सम्मान करना और शांति से एक साथ रहना बहुत महत्वपूर्ण होता है।

एक सामान्य व्यक्ति क्या कर सकता है? यह आज उन्हें समझ आ गया। वह कहती हैं कि भले ही वह सबकी मदद नहीं कर पाई, पर जिनकी भी की, उनके चेहरे का सुकून देखकर उन्हें काफी ख़ुशी मिली। इस लिए उन्होंने राहत सामग्री के डिब्बों पर भी यही लिखवाया था कि 'मदद मजहब नहीं पूछती।'

 

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