15 August 2021: स्वाधीनता आंदोलन से जालौन का गहरा नाता, जानें यहां के क्रांतिकारियों की अनसुनी कहानी

उत्तर प्रदेश का जालौन जिला देश के स्वाधीनता आंदोलन में बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण योगदान है। क्रांति में झांसी की रानी के संघर्ष तथा अन्य क्रांतिकारियों के बलिदान की गाथाएं हैं।

Report :  Afsar Haq
Published By :  Divyanshu Rao
Update: 2021-08-11 10:12 GMT
स्वाधीनता सेनानी और क्रांतिकारी भूमि की तस्वीर (डिजाइन फोटो:सोशल मीडिया)

उत्तर प्रदेश का जालौन जिला देश के स्वाधीनता आंदोलन में बुंदेलखंड का महत्वपूर्ण योगदान है। क्रांति में झांसी की रानी के संघर्ष तथा अन्य क्रांतिकारियों के बलिदान की गाथाएं हैं। किंतु यह कम ही लोग जानते हैं कि स्वाधीनता के लिए संघर्ष की नींव 1804 ई. में जालौन जिले के अमीटा गांव में पड़ी थी।

यहां पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ बगावत का झंडा वहां के वीर बुंदेलों ने उठाया था। 1802 ई. में बेसिन की संधि के बाद अंग्रेज बुंदेलखंड में शासक के रूप में आए। उन्होंने राजस्व वसूली के अपमानजनक तरीके अपनाए। इसे बुंदेलखंड के स्वाभिमानी जागीरदार ठाकुरों ने बर्दाश्त नहीं किया। इसके खिलाफ बुंदेला विद्रोह की आग अमीटा बिलायां के परमार ठाकुरों ने प्रज्जवलित की।

परमारवंश की बारहवीं पीढ़ी ने अमीटा तथा बिलायां को अपने राज्य का संचालन केंद्र बनाया

बता दें कि परमारवंश की बारहवीं पीढ़ी ने अमीटा तथा बिलायां को अपने राज्य का संचालन केंद्र बनाया। ये दोनों गांव एट रेलवे स्टेशन के निकट एक दूसरे से दो किलोमीटर की सीधी दूरी पर स्थित हैं। इस परिवार के दीवान जवाहर सिंह ने अंग्रेजों की राजस्व वसूली नीति के खिलाफ निकटवर्ती जमीदारों, जागीरदारों तथा अमीर खां पिंडारी को एक सूत्र में बांधा तथा अंग्रेजों को राजस्व देना बंद कर दिया।

अमीर खां पिडारा बिलायां के जंगल का नाम पिंडारी हो गया

अमीर खां पिंडारा का डेरा ग्राम बिलायां के निकट एक जंगल में था जिसका नाम बाद में पिंडारी ग्राम हो गया। अमीर खां अंग्रेजों के विरोधी थे। उनसे गठजोड़ करके इन बुंदेलों ने आंदोलन के नए समीकरण बनाए। अंग्रेजों ने इस विद्रोह को कुचलने तथा अमीटा-बिलायां की गढ़ी ध्वस्त करने के लिए नौगांव छावनी में नियुक्त सेनानायक फावसैट को समुचित निर्देश दिए। उसने सात कंपनियों तथा तोपखाने की एक टुकड़ी केसाथ 21 मई 1804 को अमीटा की गढ़ी को घेरकर आक्रमण कर दिया।

क्रांतिकारी भूमि की तस्वीर 

अमीटा के परमार इस अचानक हुई घेराबंदी से विस्मित रह गए। उन्होंने एक और अंग्रेजों को यह झांसा दिया कि वे उनसे संधि कराना चाहते हैं। दूसरी ओर अमीटा खां पिंडारी के पास संदेश भेजकर अंग्रेजों को सबक सिखाने की ठान ली। अमीर खां ने चारों ओर से अमीटा दुर्ग के बाहर पड़ी अंग्रेजी सेना को घेरकर लिया। 22 मई 1804 की सुबह होते होते अंग्रेजी सेना बीच में घिर गई। बाहरी परिधि में पिंडारी सेना तथा अंदर की ओर से परमार सेना ने ब्रिटिश नेता पर हमले कर दिए।

दोनों ओर से हुई भीषण गोलाबारी

दोनों ओर से भीषण गोलाबारी हुई। इसमें अंग्रेजी सेना परास्त हुई। दो दिन के इस युद्ध में अंग्रेजी सेना की भारी जन धन की क्षति हुई। उसकी भारतीय पद्धति सेना की दो कंपनियां तथा तोपखाना टुकड़ी के पचास गोरे सैनिक मौत के घाट उतार दिए गए। मृतक अंग्रेज अधिकारियों की समाधियां कोंच के सरोजनी नायडू पार्क तथा जल संस्थान के बीच पार्क में अभी भी बनी हैं। इस युद्ध में ब्रिटिश सेना की पराजय का दंड सेनानायक फावसैट को भुगतना पड़ा। उसे हटाकर इंग्लैंड वापस भेज दिया गया।

अमीटा बिलायां संघर्ष के दो विशेष प्रभाव हुए

अमीटा बिलायां संघर्ष के दो विशेष प्रभाव हुए। पहला-इस क्षेत्र में तैनात ब्रिटिश अधिकारियों का मनोबल टूट गया कि जाने कब क्या आफत आ जाए। उन्होंने इस परिवार की गतिविधियों पर निगरानी तेज कर दी। दूसरा यह कि अंग्रेजों की दमनकारी नीतियां से क्षुब्ध इस क्षेत्र के जमींदारों को एक सशक्त नेतृत्व मिल गया।

1857 आते-आते अमींटा के सूबाजी परमार तथा बिलायां के बरजोर सिंह के नेतृत्व में वे संगठित हो गए। यहां यह उल्लेख जरूरी है कि जालौन जिला गजेटियर में अमीटां, बिलायां को अमंता मलाया लिखा गया है जो संभवत: उच्चारण दोष के कारण है। यह भी संयोग ही है कि 22 मई 1804 को अंग्रेज बुंदेलखंड में पहली बार परास्त हुए तथा 22 मई 1858 को कालपी पर कब्जा करके अंग्रेजों ने इस अंचल में अपना परचम लहराया।

अमींटा बिलायां परिवार के दीवान बरजोर सिंह महान क्रांतिकारी रहे 

उक्त अमींटा बिलायां परिवार के दीवान बरजोर सिंह बुंदेलखंड के वह महान क्रांतिकारी रहे जिन्होंने सबसे लंबी अवधि तक अंग्रेजों से संघर्ष किया। उन्हें बारबार खदेड़ा, छकाया तथा 1859 के मध्य तक अंग्रेजी सेना की नाक में दम कर दिया। पहली अप्रैल 1858 को झांसी में पराजय के बाद जब झांसी की रानी ने कालपी की ओर प्रस्थान किया तब उन्होंने मार्ग में बरजोर सिंह से बिलायां में भेंट करना आवश्यक समझा।

बरजोर सिंह की तस्वीर 

उनसे भेंट के बाद वे कोंच गईं जहां 7 मई 1858 को भीषण संघर्ष हुआ। 22 मई को कालपी के संघर्ष में भी बरजोर सिंह की महत्वपूर्ण भूमिका रही। उन्होंने गांव गांव संपर्क करने, आर्थिक संसाधन जुटाने, नाना साहब के सेनापति तात्याटोपे तथा जालौन की रानी ताईबाई को मदद करने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

रानी तथा क्रांतिकारियों के कालपी से गोपालपुरा होकर ग्वालियर की ओर चले जाने के बाद क्रांति के संचालन का भार बरजोर सिंह पर आ गया था। 31 मई 1858 को उनकी बिलायां गढ़ी पर ब्रिटिश सेना ने हमला किया जिसका उन्होंने साहस पूर्वक मुकाबला किया।

विश्वासपात्र मोती गूजर को अपना अस्त्र तथा ध्वज देकर बेतवा की ओर खिसक लिए

वे अपने एक विश्वासपात्र मोती गूजर को अपना अस्त्र तथा ध्वज देकर बेतवा की ओर खिसक लिए। अंग्रेज पहले मोती गूजर को ही बरजोर समझ कर उससे युद्ध करते रहे। बाद में सच्चाई पता लगने पर 1804 मे बरजोर सिंह पर दो हजार रुपए का इनाम जिंदा या मुर्दा पकड़ने पर घोषित किया गया। दीवान बरजोर सिंह अपने कई हजार आश्वारोहियों के साथ चलते थे। पहले अपने शासकीय पक्षों में ब्रिटिश अधिकारी उन्हें विद्रोही लिखते थे। किंतु बाद में बरजोर सिंह को डाकू कहकर अंग्रेजों ने प्रचारित किया तथा करवाया।

उन पर अनेक बार सरकारी खजाने लूटने के मुकदमे दर्ज किए गए। गुरसरांय, मऊ, मिहौनी तथा सहाव में बरजोर सिंह तथा ब्रिटिश सेना के बीच अनेक झड़पों में लगभग चार सौ क्रांतिकारी शहीद हुए। प्रभारी कैप्टन बेली ने इंग्लैंड स्थित भारत सचिव को 4 जनवरी 1859 को पत्र लिखकर अनुरोध किया कि बरजोर सिंह को राजनीतिक विद्रोही के बजाय डाकू मान लिया जाए।

अंग्रेज बरजोर सिंह को पकड़ नहीं सके

अंग्रेज उन्हें पकड़ नहीं सके। सरकारी अभिलेखों में जून 1859 तक उनके जीवित रहने के साक्ष्य मिलते हैं। इस संबंध में अमीटा के उनके वंशजों ने बताया कि वे जून 1859 में पलेरा (टीकमगढ़) चले गए थे जहां लू लगने से उनकी मृत्यु हुई। इस प्रकार आजादी की यह दीपशिखा सबसे लंबी अवधि तक संघर्ष करके शांत हो गई। बाद में जालौन के जिलाधिकारी एमलाज के प्रयास से 15 अगस्त 1972 को बिलायां में उनका स्मारक चबूतरा बना जो उस वीर बरजोर सिंह की शौर्यगाथा कह रहा है।

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