इलाहाबादः ये रेस जिसने नहीं देखी वह इसका रोमांच नहीं समझ सकता। कल्पना कीजिए कि भीड़भाड़ वाली सड़क है। उसी के बीच अचानक घोड़ों की टापों की आवाज गूंजने लगती है। और गाड़ियों के अगल-बगल से निकलने लगते हैं रेस लगाते इक्के और तांगे। ये है गहरेबाजी। तांगों और इक्कों की ये दौड़ सावन के हर सोमवार को होती है। पुरानी परंपरा है इस वजह से ट्रैफिक पुलिस इस रेस को नहीं रोकती। कई बार इक्के-तांगे पलटते भी हैं, लेकिन रोमांच का ये तमाशा साल दर साल इलाहाबाद के पॉश महात्मा गांधी मार्ग पर जारी रहता है।
आयोजकों के मुताबिक ये संगम नगरी की परंपरा है। जिसे गहरेबाजी नाम दिया गया है। इक्कों और तांगों के पीछे शोर मचाते बाइक सवारों का काफिला भी होता है। शोर इसलिए मचाया जाता है कि रेस में हिस्सा ले रहा घोड़ा जोश में रहे। लेकिन कभी-कभी घोड़े विचलित भी होते हैं और बाइक और स्कूटर सवारों के साथ इस रेस को देखने वाले सड़क किनारे खड़े लोग चोटिल भी हो जाते हैं।
इस रेस में रफ्तार की जगह घोड़े के लयबद्ध अनुशासित चाल को पैमाना माना जाता है। तांगे का पहिया कालचक्र का प्रतीक होता है। इस रेस के जरिए लोग सावन में शिव को याद करते हैं। राजे-रजवाड़ों के वक्त से चली आ रही गहरेबाजी की इस दौड़ में सिर्फ पंडों यानी तीर्थ पुरोहितों के ही तांगे शामिल होते हैं। पहले ये दौड़ किसी खेत या बड़े मैदान पर हुआ करती थी, लेकिन शहर के बीच में अब होने लगी है। इस दौरान ट्रैफिक भी नहीं रोका जाता। पिछले सालों में कई बार इस रेस से हादसे भी हो चुके हैं।
दौड़ के आयोजक और इसमें हिस्सा लेने वाले भी मानते हैं कि तांगों की ये रेस काफी खतरनाक है। उनका कहना है कि कई बार प्रशासन से कह चुके हैं कि रेस के वक्त ट्रैफिक रुकवा दिया जाए, लेकिन आज तक ऐसा नहीं हुआ। दौड़ के वक्त ट्रैफिक पुलिस के सिपाही तो रहते हैं, लेकिन वे भी रेस के रोमांच से बंध जाते हैं। ट्रैफिक से जुड़े अफसरों से इस बारे में बात करने की कोशिश की गई, लेकिन कोई इस पर कुछ कहने को तैयार नहीं है।