Lok Sabha Election 2024: जानें लोकसभा चुनाव के दौर में आखिर क्या कहती है मायावती की खामोशी
Mayawati Prepration Lok Sabha Chunav 2024: कहा जाता है कि मायावती भाजपा की बी टीम हैं। भाजपा के दबाव में वह राजनीति करती हैं। भाजपा के दबाव में वह फ़ैसले भी लेती हैं।
Mayawati Plan Lok Sabha Chunav: इन दिनों चारों ओर सियासत की चर्चा गर्म है। लोकसभा चुनाव बिल्कुल आप के क़रीब है। हर आदमी अपने अपने हिसाब से अंदाज लगा रहा है। अपने अपने हिसाब से परमनटेंशन कंबिनेशन बना रहा है। अपने अपने हिसाब से हर पॉलिटिकल पार्टी को अलग अलग रिकार्ड से नवाज़ रहा है। वैसे तो भारतीय जनता पार्टी ने अपनी एजेंडा चार सौ के पार रखा है। 370 भारतीय जनता पार्टी का अपना टार्गेट हैं। लेकिन इस के बीच कोई बड़ी पॉलिटिकल पार्टी एकदम खामोशी ओढ़े बैठी हुई हो। तो ज़रूर चिंता होनी चाहिए। सोचा जाना चाहिए कि यह पॉलिटिकल पार्टी क्यों खामोशी ओढ़े बैठी है। वो तूफ़ान के पहले की खामोशी है या तूफ़ान के बाद की खामोशी है। हम बात कर रहे हैं, मायावती की। एक ऐसे समय जब उत्तर प्रदेश में सभी पॉलिटिकल पार्टियाँ अपने अपने पत्ते खोल चुकी है। एक ऐसे समय जब सभी पॉलिटिकल पार्टियाँ सीटों पर उम्मीदवार घोषित कर चुकी है, मोटे तौर पर।
तब मायावती ख़ामोश बैठी हैं! वह भी वह मायावती जिनकी पॉलिटिकल पार्टी जब काशी राम जी थे, तब कहा करते थे सत्ता की चाभी होनी चाहिए। सत्ता की ज़रूरत नहीं होनी चाहिए। सत्ता की चाभी रखने वाली पॉलिटिकल पार्टी एकदम ख़ामोश है। वैसे उत्तर प्रदेश की सियासत में एक फ़ार्मूला बहुत काम करता है। हालाँकि वह फ़ार्मूला तो विज्ञान का है। पर उत्तर प्रदेश की राजनीति में उस फ़ार्मूले को फलीभूत होते देखा जा सकता है। सब ने देखा होगा।
फ़ार्मूला यह है कि जब कोई भी बड़ा पिंड छोटे पिंड के संपर्क में आता है तो बड़े पिंड की उष्मा अवशोषित कर लेता है। कभी मायावती और अखिलेश यादव छोटे पिंड थे।मायावती सपा, कांग्रेस और भाजपा के संपर्क में आईं। उनकी उष्मा को अवशोषित करके उन्होंने स्पष्ट बहुमत की सरकार बना ली। अखिलेश यादव की समाजवादी पार्टी ने भी कांग्रेस से उष्मा अवशोषित की और मायावती से भी उष्मा अवशोषित की। उसके बाद उन्होंने भी अपनी क्लीयर मेजार्टी की सरकार बना ली।
आज जब एक ऐस समय जब अखिलेश यादव ने सभी सीटों पर अपने उम्मीदवार घोषित नहीं किये हैं। तकरीबन चालीस फ़ीसदी से ज़्यादा सीटें, उनकी ख़ाली हैं। ऐसे समय जब कांग्रेस और अखिलेश यादव का गठबंधन हो गया है। ऐसे समय जब मायावती की पॉलिटिकल पार्टी पिछले चुनाव में महज़ दस सीटें इसलिए पा सकी थी। क्योंकि लोकसभा चुनाव में उसका सपा से गठबंधन था। विधानसभा चुनाव में वह अकेले लड़ी , उसे एक सीट मिली। इससे पहले 2014 के लोकसभा चुनाव में वह लड़ी य उसे शून्य सीट मिली। यानी अब ये कह सकते हैं कि मायावती की पॉलिटिकल पार्टी शून्य की तरफ़ जाती हुई दिख रही है।
यूपी में सपा और बसपा के गठबंधन के पन्ने की ज़रूरत है। 1993 में उत्तर प्रदेश में सपा और बसपा का गठबंधन हुआ। समाजवादी पार्टी 256 सीटों पर चुनाव लड़ी।109 पर उसने जीत दर्ज कराई। बसपा को 164 सीटें मिलीं। उसके 67 विधायक जीतने में कामयाब रहे। बसपा का वोट शेयर 11.12 फीसदी थी। सपा का वोट शेयर 17.94 फीसदी रहा।
इसके ठीक तीन साल बाद उत्तर प्रदेश में चुनाव हो जाते हैं। साल होता है - 1996 का। बसपा इस बार गठबंधन करती है कांग्रेस पार्टी के साथ।
कांग्रेस के साथ गठबंधन में बसपा को 300 सीटें मिलीं। और वो 67 सीटें जितने में कामयाबी हुई। 125 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारने वाली कांग्रेस को केवल 33 सीटें मिल पाई। बसपा को 19.64 फ़ीसदी वोट हासिल हुए। कांग्रेस का वोट शेयर 8.35 फीसदी था।
इसके बाद 2017 के विधानसभा चुनाव में अखिलेश यादव ने कांग्रेस पार्टी से गठबंधन किया। नतीजा अच्छा नहीं रहा। लेकिन 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा और सपा का एक बार फिर एलाएंस हुआ।
बसपा 38 सीटों पर और सपा 37 सीटों पर लड़ी। तीन सीटें राष्ट्रीय लोकल के लिए छोड़ी गईं। परिणाम यह रहा कि बसपा ने दस सीटें जीतीं। सपा के हाथ सिर्फ़ 5 सीट लगीं। रालोद शून्य पर रही। बसपा का वोट शेयर रहा 19.43 फीसदी रहा, सपा का वोट शेयर 18.11 फीसदी रहा। राष्ट्रीय लोकदल को केवल 1.69 फीसदी वोट मिले। इन तीनों पार्टियों का वोट शेयर 39.23 फीसदी ही रहा।
इस लिहाज़ से आप देख सकते हैं कि जो बसपा हर बार कोई न कोई चालें चलती थीं। हर बार चुनाव के पहले बसपा के लिए टिकटार्थियों की भीड़ लग जाती थी। सेंसेक्स में बसपा के टिकटों का रेट बहुत ज़्यादा हुआ करता था। वह बसपा ख़ामोश है। अंदाज लगाइये क्या हो सकता है। मायावती के सामने दो विकल्प हैं। पहला, वो अपनी पार्टी को एक बार फिर शून्य पर जाते हुए देखें। उन्होंने अभी हाल फ़िलहाल अपने जिस भतीजे को पॉलिटिक्स में उतारा है। उसके कैरियर का टेकऑफ होता हुआ न देख पायें। दूसरा मायावती अकेले लड़ें या गठबंधन में जायें।
कहा जाता है कि मायावती भाजपा की बी टीम हैं। भाजपा के दबाव में वह राजनीति करती हैं। भाजपा के दबाव में वह फ़ैसले भी लेती हैं। लेकिन अगर वो भाजपा के दवाओं में फ़ैसला लेकर के अकेले लड़ती हैं। तो नि: संदेह उनके शून्य का आँकड़ा फिर दोहराया जायेगा। जिस पार्टी के उन्होंने कांशी काम के साथ मिल कर खड़ा किया। उस पार्टी को शून्य पर देख कर उन्हें पछतावा होगा। दलित वोटों के खिसकने के प्रक्रिया की शुरुआत हो जायेगी। अब ऐसे में मायावती क्या फ़ैसला लेती हैं, यह कहना मुश्किल है। क्योंकि सियासत में न तो कोई स्थाई दोस्त होता है, न कोई स्थाई दुश्मन होता है। यह ज़रूर है कि सियासत दां अपने हर फ़ैसले के पीछे कोई कोई तर्क गढ़ लेते हैं। कोई न कोई ऐसी बात लाते हैं, जिससे जनता कंन्वींस होती है। देखना है मायावती फ़ैसला क्या लेती हैं? क्योंकि मायावती के फ़ैसले पर ही उत्तर प्रदेश की राजनीति का भविष्य टिका हुआ है। उत्तर प्रदेश में जंग पार्टी बड़ा स्कोर खड़ा करेगी। उस पार्टी के लिए ही दिल्ली के दरवाज़े आसानी से खुलेंगे।