कोर्ट, सरकार और धर्म सभा के बीच फंसे रामलला
रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण को लेकर विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा चलाए गए ताजा आंदोलन से आज अयोध्या में माहौल एक बार फिर गर्म है। अयोध्या में जुटाई जा रही दो लाख से अधिक लोगों की भीड़ के दावों के बीच 90 के दौर के रामजन्मभूमि आंदोलन का दृश्य एक बार फिर बार बार आँखों के सामने तैर रहा है।
अयोध्या: रामजन्मभूमि पर मंदिर निर्माण को लेकर विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा चलाए गए ताजा आंदोलन से आज अयोध्या में माहौल एक बार फिर गर्म है। अयोध्या में जुटाई जा रही दो लाख से अधिक लोगों की भीड़ के दावों के बीच 90 के दौर के रामजन्मभूमि आंदोलन का दृश्य एक बार फिर बार बार आँखों के सामने तैर रहा है। सभी की निगाहें यहां हो रही धर्म सभा की बैठक पर लगी हैं। क्या धर्म सभा कोई बड़ा एलान कर सकती है।
यह सारा आक्रोश देश की शीर्ष अदालत द्वारा इस मुद्दे पर सुनवाई जनवरी 2019 तक टालने के बाद शुरू हुई है। यह सुनवाई राम जन्मभूमि पर 2010 के इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले के खिलाफ दायर याचिकाओं पर होनी थी। इसके बाद अध्यादेश लाकर मंदिर बनाने के दबाव से शुरू हुई लड़ाई इस मुकाम तक पहुंच गई है।
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इस सबके बीच अगर कोई सबसे परेशान है तो वह हैं रामलला जो अपनी अयोध्या में रहने के लिए अपनी जमीन की लड़ाई लड़ रहे हैं। हालात के शिकार रामलला अदालत, सरकार और अब धर्म संसद का मुह निहार रहे हैं। अगर देखा जाए तो प्रजातंत्र में आखिरी आदमी की लड़ाई राम लला ही लड़ रहे हैं। नेता कह रहे हैं मंदिर वहीं बनाएंगे। अब उनका वहीं कहां है ये तो राम लला को भी नहीं पता। कोई कह सकता है मुद्दई सुस्त है कोई कहेगा गवाह चुस्त है।
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इससे पहले इस्माइल फारूकी बनाम भारतीय संघ, 1994 के मामले के खिलाफ पुनर्विचार याचिका पर तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश जस्टिस दीपक मिश्रा, जस्टिस अशोक भूषण और जस्टिस अब्दुल नजीर की तीन जज की बेंच के फैसले बाद, राम जन्मभूमि विवाद के मामले में पहली बार सुनवाई शुरू होने पर लोगों को उम्मीद बंधी थी कि शायद इस पर कोई फैसला आ जाए लेकिन लोगों को उस समय घोर निराशा हुई जब मामला तीन महीने तक के लिए टाल दिया गया।
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लोगों के आक्रोश का एक कारण और भी है कि अदालत गर्भगृह को रामजन्मस्थल मान चुकी है तब मंदिर बनाने में विलंब क्यों। इलाहाबाद हाई कोर्ट की तीन जज की बेंच ने 30 सितंबर, 2010 को 2:1 के बहुमत वाले फैसले में कहा था कि 2.77 एकड़ जमीन को तीनों पक्षों- सुन्नी वक्फ बोर्ड, निर्मोही अखाड़ा और राम लला में बराबर-बराबर बांट दिया जाए। तब इस फैसले को किसी भी पक्ष ने नहीं माना थी और फैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई थी जिस पर सुप्रीम कोर्ट ने 9 मई 2011 को इलाहाबाद हाई कोर्ट के इस फैसले पर रोक लगा दी थी।
आइए अयोध्या का विवाद को उपलब्ध साल दर साल के इतिहास के आलोक में समझने का प्रयास करते हैं। यह सही है कि 1528 में अयोध्या में बाबरी मस्जिद का निर्माण किया गया था। 1949 में बाबरी मस्जिद में भगवान राम की मूर्ति देखी गई थी। जिसके बाद दोनों पक्षों के प्रतिनिधि कोर्ट चले गए, और विवादित स्थल पर ताला लगा दिया गया। 1959 में निर्मोही अखाड़ा की ओर से विवादित स्थल के स्थानांतरण के लिए अर्जी दी गई। 1961 में यूपी सुन्नी सेंट्रल बोर्ड ने भी बाबरी मस्जिद स्थल के मालिकाना हक के लिए अपील दायर की थी।
इसके बाद काफी लंबे समय तक सन्नाटा रहा लोगों का ध्यान इस विवाद पर 1986 में तब गया जब विवादित स्थल को हिंदू श्रद्धालुओं के लिए खोला गया। यह हिंदुओं की सबसे बड़ी जीत थी। प्रतिक्रिया होनी थी और हुई भी इसलिए 1986 में ही बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी का गठन किया गया। 1989 में विश्व हिंदू परिषद ने राजीव गांधी सरकार की इजाजत के बाद बाबरी के पास राम मंदिर का शिलांयास किया।
प्रत्यक्ष तौर पर 1990 में लालकृष्ण आडवाणी की देशव्यापी रथयात्रा से भाजपा की इस आंदोलन में एंट्री हुई। और इसी के साथ हिंदुत्व को वोट बैंक मानने की शुरुआत हुई। 1991 में रथयात्रा की लहर से बीजेपी यूपी की सत्ता में आई। इसी साल मंदिर निर्माण के लिए देशभर के लिए इंटें भेजी गई।
6 दिसंबर, 1992 को अयोध्या में लाखों की संख्या में पहुंचे कार सेवकों ने बाबरी मस्जिद का विध्वंस कर दिया। इसके बाद कई स्थानों पर सांप्रदायिक दंगे हुए। पुलिस द्वारा लाठी चार्ज और फायरिंग में कई लोगों की मौत हो गई। जल्दबाजी में एक अस्थाई राम मंदिर बनाया गया। प्रधानमंत्री पी.वी. नरसिम्हा राव ने मस्जिद के पुनर्निर्माण का वादा किया।
16 दिसंबर, 1992 को बाबरी मस्जिद विध्वंस के लिए जिम्मेदार परिस्थितियों की जांच के लिए एमएस लिब्रहान आयोग का गठन किया गया। 1994 में इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ में बाबरी मस्जिद विध्वंस से संबंधित केस चलना शुरू हुआ। 4 मई, 2001 को स्पेशल जज एसके शुक्ला ने बीजेपी नेता लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी सहित 13 नेताओं से साजिश का आरोप हटा दिया।
1 जनवरी, 2002 को तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने अपने मंत्रिपरिषद में अयोध्या विभाग शुरू किया। इसका काम विवाद को सुलझाने के लिए हिंदुओं और मुसलमानों से बातचीत करना था। 1 अप्रैल 2002 को अयोध्या के विवादित स्थल पर मालिकाना हक को लेकर इलाहबाद हाई कोर्ट के तीन जजों की पीठ ने सुनवाई शुरू कर दी।
5 मार्च 2003 को इलाहबाद हाई कोर्ट ने भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण को अयोध्या में खुदाई का निर्देश दिया, ताकि मंदिर या मस्जिद का प्रमाण मिल सके। 22 अगस्त, 2003 को भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण ने अयोध्या में खुदाई के बाद इलाहाबाद हाई कोर्ट में रिपोर्ट पेश की। इसमें कहा गया कि मस्जिद के नीचे 10वीं सदी के मंदिर के अवशेष प्रमाण मिले हैं। इस रिपोर्ट को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने चैलेंज किया।
सितंबर 2003 को एक अदालत ने फैसला दिया कि मस्जिद के विध्वंस को उकसाने वाले सात हिंदू नेताओं को सुनवाई के लिए बुलाया जाए। जुलाई 2009 को लिब्रहान आयोग ने गठन के 17 साल बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को अपनी रिपोर्ट सौंपी। 26 जुलाई, 2010 को इस मामले की सुनवाई कर रही इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने फैसला सुरक्षित किया और सभी पक्षों को आपस में इसका हल निकाले की सलाह दी, लेकिन कोई आगे नहीं आया।
28 सितंबर 2010 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहबाद हाई कोर्ट को विवादित मामले में फैसला देने से रोकने वाली याचिका खारिज करते हुए फैसले का मार्ग प्रशस्त किया। 30 सितंबर 2010 को इलाहाबाद हाई कोर्ट की लखनऊ पीठ ने ऐतिहासिक फैसला सुनाया। इसके तहत विवादित जमीन को तीन हिस्सों में बांटा दिया गया।
इसमें एक हिस्सा राम मंदिर, दूसरा सुन्नी वक्फ बोर्ड और निर्मोही अखाड़े को मिला। 9 मई 2011 को सुप्रीम कोर्ट ने इलाहाबाद हाई कोर्ट के फैसले पर रोक लगा दी। 21 मार्च 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने आपसी सहमति से विवाद सुलझाने की बात कही। 19 अप्रैल 2017 को सुप्रीम कोर्ट ने बाबरी मस्जिद गिराए जाने के मामले में लालकृष्ण आडवाणी, मुरली मनोहर जोशी, उमा भारती सहित बीजेपी और आरएसएस के कई नेताओं के खिलाफ आपराधिक केस चलाने का आदेश दिया।
9 नवंबर 2017 को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मुलाकात के बाद शिया वक्फ बोर्ड के चेयरमैन वसीम रिजवी ने कहा कि अयोध्या में विवादित स्थल पर राम मंदिर बनना चाहिए, वहां से दूर हटके मस्जिद का निर्माण किया जाए।
16 नवंबर 2017 को आध्यात्मिक गुरु श्री श्री रविशंकर ने मामले को सुलझाने के लिए मध्यस्थता करने की कोशिश की, उन्होंने कई पक्षों से मुलाकात की। 5 दिसंबर 2017 को सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई हुई। कोर्ट ने 8 फरवरी तक सभी दस्तावेजों को पूरा करने के लिए कहा। 8 फरवरी 2018: सुन्नी वक्फ बोर्ड की तरफ से पक्ष रखते हुए वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने सुप्रीम कोर्ट से मामले पर नियमित सुनवाई करने की अपील की, लेकिन पीठ ने उनकी अपील खारिज कर दी।
14 मार्च 2018 को वरिष्ठ वकील राजीव धवन ने कोर्ट से मांग की कि साल 1994 के इस्माइल फारूकी बनाम भारतीय संघ के फैसले को पुर्नविचार के लिए बड़ी बेंच के पास भेजा जाए। 20 जुलाई 2018 को सुप्रीम कोर्ट ने राजीव धवन की अपील पर फैसला सुरक्षित रखा।
27 सितंबर 2018 को कोर्ट ने इस्माइल फारूकी बनाम भारतीय संघ के 1994 का फैसला, जिसमें कहा गया था कि 'मस्जिद इस्लाम का अनिवार्य अंग नहीं' को बड़ी बेंच को भेजने से इनकार करते हुए कहा था कि अयोध्या में राम जन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद में दीवानी वाद का निर्णय साक्ष्यों के आधार पर होगा और पूर्व का फैसला सिर्फ भूमि आधिग्रहण के केस में ही लागू होगा। इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने अयोध्या मामले की सुनवाई को जनवरी 2019 तक टाल दिया और अब धर्म सभा इस पर कोई फैसला लेने के लिए बुलाई गई है। जिसकी बैठक बस शुरू होने वाली है।