Lucknow University: प्रो. आईबी सिंह ने शुरू किया रिसर्च कल्चर, विदेशों में भी पढ़ाई जाती हैं उनकी किताबें
Lucknow University: पृथ्वी विज्ञान में प्रो. आई.बी. सिंह के योगदान को नकार नहीं सकते। वर्ष 1972 में स्प्रिंगर-वेरलाग की ओर से प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘डिपोजिशन ऑफ सेडिमेंटरी एनवायरनमेंट’ भू-विज्ञान में बहुत लोकप्रिय पुस्तक है।
Lucknow University: पृथ्वी विज्ञान में प्रो. आई.बी. सिंह के योगदान को नकार नहीं सकते। वर्ष 1972 में स्प्रिंगर-वेरलाग की ओर से प्रकाशित उनकी पुस्तक ‘डिपोजिशन ऑफ सेडिमेंटरी एनवायरनमेंट’ भू-विज्ञान में बहुत लोकप्रिय पुस्तक है। जिसका चीनी और रूसी समेत कई भाषाओं में अनुवाद किया गया। यह बातें एलयू के भू-विज्ञान विभाग के विभागाध्यक्ष प्रो. ध्रुवसेन सिंह ने कही।
एलयू के भू-विज्ञान विभाग प्रमुख भी रहे
केपी विमल सभागार में आयोजित प्रो. आईबी सिंह स्मृति व्याख्यान को संबोधित करते हुए प्रो. सिंह ने बताया कि प्रो. आईबी सिंह एलयू के भू-विज्ञान विभाग के पूर्व विभाग-प्रमुख थे। उन्होंने भारत के हर हिस्से और कई युगों की सभी चट्टानों पर काम किया है। इन दिनों गंगा के मैदान के बारे में जो भी जानकारी हमारे पास है उसका श्रेय प्रो. आईबी सिंह को जाता है। बीएसआईपी की पूर्व निदेशक डॉ. वंदना प्रसाद ने ‘समुद्र स्तर के उतार-चढ़ाव को समझने में उथले समुद्री अनुक्रमों में तलछटी कार्बनिक पदार्थों की भूमिका’ पर बातचीत की। इस मौके पर भू-विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख प्रो. विभूति राय और प्रो. रामेश्वर बाली समेत बीएसआईपी, जीएसआई, आरएसएसी के वैज्ञानिक उपस्थित रहे।
रिसर्च कल्चर को एलयू में शुरू किया
भू-विज्ञान विभाग के पूर्व प्रमुख प्रो. एमपी सिंह ने बताया कि प्रो. आईबी सिंह ही वह व्यक्ति थे जिन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय के भूविज्ञान विभाग में अनुसंधान संस्कृति की शुरुआत की थी। वहीं लखनऊ के जी रिमोट सेंसिंग एंड एप्लीकेशन सेंटर के पूर्व वैज्ञानिक प्रो. एके टांगरी ने उनके साथ पीएचडी के दौरान अपने जुड़ाव के बारे में चर्चा की। उन्होंने कहा कि प्रो. सिंह अपने समय के बहुत ही सरल और दूरदर्शी व्यक्ति थे।
जिज्ञासा से भरे थे प्रो. सिंह
पंजाब विश्वविद्यालय के भूविज्ञान के पूर्व-प्रमुख प्रो. अशोक साहनी ने कहा कि प्रोफेसर सिंह बहुत कम उम्र में अपने समय के वैज्ञानिक समुदाय से बहुत ही अलग और तार्किक तरीके से सवाल करते थे। अपने समय में उल्टी-धारा के रूप में जाने जाते थे। जिसे बाद में भू-वैज्ञानिकों ने स्वीकार कर लिया।