Maliana Massacre: यहां ईद की खुशियों से नहीं बदलती चेहरे की रंगत, 35 साल बाद भी आंखों से झलकता है दर्द

Maliana Massacre: मलियाना गांव में 35 साल पहले हुई दिल दहलाने वाली घटना के जख्म आज भी पीड़ित परिवारों के जेहन में ताजा हैं।

Update:2023-04-20 17:59 IST
मेरठ के  मलियाना कांड के दरम्यान की फाइल फोटो ।  Source: Social media.

Maliana Massacre: वर्ष 1987 में पूरे देश को झकझोंरकर रख देने वाले मेरठ के मलियाना कांड के पीड़ित आज भी इंसाफ को तरस रहे हैं। सांप्रदायिक हिंसा के मामले में कोर्ट की ओर से अभियुक्तों को बरी करने वाले फ़ैसले के बाद से पीड़ित और उनके परिवार के लोग गहरे को सदमे में हैं। ‘ऊपर वाले के घर में देर है, अंधेर नहीं!’ यह बात कम से कम मेरठ के मलियाना कांड के पीड़ितों को आज घटना किसी गहरे तीर की तरह चुभ रही है।

‘न्यूजट्रैक’ से बातचीत में सुनाई उस दिन की खौफनाक दास्तां

मलियाना गांव में 35 साल पहले हुई दिल दहलाने वाली घटना के जख्म आज भी पीड़ित परिवारों के जेहन में ताजा हैं। परिवारों के लिए मीडिया से बात करना केवल ‘अन्यायपूर्ण’ व्यवस्था के खिलाफ अपना गुस्सा ज़ाहिर करने भर का ज़रिया बन रहा। ‘न्यूजट्रैक’ से बातचीत में पीड़ित सवालिया लहजे में मलियाना मामले में दिए गए अदालत के फैसले पर कहते हैं- ‘यह देर के साथ अंधेर नहीं तो और क्या है’?

अदालत के फैसले में दर्ज हैं मलियाना हिंसा के दिल दहलाने वाले ब्योरे

मलियाना हिंसा मामले में अदालत के 26 पेज के फ़ैसले में हिंसा के दिल दहलाने वाले ब्योरे दर्ज हैं। जिनमें ‘एक युवक की मौत गले में गोली लगने से हो गई।’ ‘एक पिता को तलवार से टुकड़े-टुकड़े कर दिया गया और पांच साल के एक बच्चे को आग में झोंक दिया गया।’ जैसी तमाम घटनाओं का जिक्र है। लेकिन हिंसा की ऐसी दिल दहलाने वाली घटनाओं के बावजूद अदालत की ओर से अभियुक्तों को बरी करने वाला फ़ैसला पीड़ितों को हजम नहीं हो पा रहा है। पीड़ितों का यह भी कहना है कि इससे अच्छा होता कोर्ट फैसला ही नहीं देती तब कम से कम इंसाफ पाने की एक उम्मीद की छोटी सी किरण तो रोशन रहती। अब तो वो भी नहीं रही है। मलियाना के दंगो ने जिन मुस्लिम परिवारों से उनके सदस्य छीन लिए, ईद की खुशियां भी उनके चेहरे की रंगत नहीं बदल पा रही हैं। इन लोगों का कहना है कि ‘ईद का हमारे लिए कोई मतलब नहीं रह गया है।’

पीड़ितों ने अपनी जुबां से बताया नरसंहार का दर्द

मलियाना नरसंहारे के पीड़ितों से बात करने से पहले ही उनके चेहरे और आंखों से झांकती बेबसी उनके दिल का दर्द बयान कर देती है। 63 वर्षीय इस्माइल खान ने मलियाना दंगे में अपने दादा-दादी, माता-पिता और छोटे भाई-बहन सहित परिवार के 11 सदस्यों को एक साथ खो दिया था। अपनी नम आंखों को मलते हुए खान इतना ही कहते है- ‘हादसे ने मेरा सब कुछ छीन लिया। बाकी दिन तो फिर भी लेकिन,ईद के दिन तो उनको भुलाना नामुमकिन सा हो जाता है। सच कहूं तो अब ईद पर वो पहले जैसी खुशी नहीं मिलती।’

घटना के वक्त उम्र में काफी छोटे थे मृतकों के रिश्तेदार

40 वर्षीय महताब कहते हैं दंगे के दौरान मेरे पिता अशरफ की गोली मार कर हत्या कर दी गई थी। आज भी बचपन का वो मंजर याद आता है तो दिल सिहर जाता है। अफजाल सैफी (44) के पिता यासीन की उस समय गोली मार कर हत्या कर दी गई थी, जब वह बाहर से घर की ओर लौट रहे थे। मलियाना निवासी 48 वर्षीय इस्तेखार ने बताया कि उनके पिता गुलजार की हत्या कर दी गई थी। यह तीनों घटना के समय बहुत छोटे थे।

‘पुलिस के सामने जिंदा जला दिया’

इलाके के लोगों का कहना है कि मोहम्मद यामीन के पिता अकबर को दंगाइयों ने पुलिस और पीएसी के सामने ही मार डाला था। वहीं नवाबुद्दीन के पिता अब्दुल रशीद और मां इदो की बेरहमी से दंगाइयों ने हत्या कर दी। यही नहीं, दंगाइयों ने महमूद के परिवार के छह लोगों को जिंदा जला दिया था। आरोप है कि उस वक्त पुलिस और पीएसी उस इलाके में तैनात थी, लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया।

‘भारतीय लोकतंत्र पर धब्बा’ करार दिया गया था मलियाना कांड

बता दें कि यूपी के मेरठ शहर के बाहरी इलाके में बसे मलियाना गांव में 23 मई 1987 को दर्जनों मुसलमानों को मार डाला गया था। आरोप था कि उनकी हत्या स्थानीय हिंदुओं और राज्य के सशस्त्र पुलिस के जवानों ने मिलकर की थी। इस घटना को ’भारतीय लोकतंत्र पर धब्बा’ के अलावा और भी ना जाने क्या-क्या कहा गया था। घटना की एफआइआर वादी याकूब अली पुत्र नजीर निवासी मलियाना ने 93 आरोपियों के खिलाफ लिखाई थी। खास बात यह भी कि इस हत्याकांड की एफआइआर-प्राथमिकी में पीएसीकर्मियों का कोई जिक्र नहीं है। जो गवाह हैं उनमें से कुछ का देहांत हो गया और कुछ शहर छोड़ कर चले गए तो कुछ अपनी गवाही से ही मुकर गए। आरोप था कि याकूब के सामने पुलिस ने मतदाता सूची रख फर्जी नामजदगी की थी, जिसके चलते कोर्ट ने सबूतों के अभाव में आरोपियों को बरी कर दिया।

मलियाना नरसंहार मामले में दिये गए फैसले में कोर्ट की टिप्पणी थी कि सिर्फ भीड़ में मौजूद होने से कोई आरोपी नहीं हो जाता है। कोर्ट के 26 पेज के फैसले में लिखा है कि घटना में आरोपियों के शामिल होने के साक्ष्यों का अभाव रहा, जो साक्ष्य थे वे अपर्याप्त थे। पुलिस पक्ष की पैरवी भी लचर रही। पीड़ित पक्ष ने विरोधाभासी बयान दिए। किस-किस हथियार का इस्तेमाल किया गया, यह भी साबित नहीं हो सका। मृतकों की पोस्टमार्टम और घायलों को मेडिकल रिपोर्ट भी आरोपियों का अपराध सिद्ध नहीं कर सकी। सुप्रीम कोर्ट के आदेश का हवाला देते हुए लिखा गया कि सिर्फ भीड़ में मौजूदगी से आरोप नहीं बन जाता है, जब तक कि विधि विरुद्ध जमाव का कोई उद्देश्य न हो। चोटिल होने से संबंधित मेडिकल रिपोर्ट भी सिद्ध नहीं हुई। किस आरोपी द्वारा किसकी हत्या की गई यह भी साबित नहीं हुआ।

आरोपियों में कई नाम ऐसे थे जो घटना से पहले ही मर चुके थे

कोर्ट ने अपने निर्णय में उल्लेख किया कि पत्रावली पर ऐसा कोई साक्ष्य उपलब्ध नहीं है, जिससे स्पष्ट हो कि किस अभियुक्त द्वारा कौन सा अपराध किया गया और किस अभियुक्त ने किस हथियार से वादी पक्ष पर हमला किया। न्यायालय ने घटना के तथ्यों, परिस्थितियों, पत्रावली में मौजूद मौखिक एवं लिखित साक्ष्य से घटना सिद्ध होना नहीं पाया। कोर्ट ने अपने निर्णय में यह भी लिखा कि लूट की संपत्तियां और हथियार आरोपियों से बरामद नहीं हुए हैं, न ही हथियारों की बरामदगी आरोपियों से दर्शाई गई है। अभियोजन द्वारा पत्रावली पर किसी भी मृतक की पोस्टमार्टम रिपोर्ट अथवा किसी भी चोटिल की मेडिकल रिपोर्ट साक्ष्य में विधि के अनुसार प्रस्तुत नहीं की गई। आरोपियों में कई नाम ऐसे थे जो घटना से पहले ही मर चुके थे।

ठंडे बस्ते में गई न्यायिक जांच की रिपोर्ट

बता दें कि 27 मई 1987 को तत्कालीन मुख्यमंत्री ने मलियाना हत्याकांड की न्यायिक जांच की घोषणा की थी। न्यायिक जांच की घोषणा के बाद जांच आयोग अधिनियम, 1952 के तहत इलाहाबाद हाईकोर्ट के सेवानिवृत्त न्यायाधीश जस्टिस जीएल श्रीवास्तव की अध्यक्षता में आयोग ने अपनी शुरुआत की। तीन महीने बाद 27 अगस्त 1987 को कार्यवाही शुरू हुई। हालांकि मलियाना में पीएसी की निरंतर उपस्थिति से मलियाना के गवाहों से पूछताछ में बाधा उत्पन्न हुई। अंततः जनवरी 1988 में आयोग ने सरकार को पीएसी को हटाने का आदेश दिया। सूत्रों के अनुसार आयोग द्वारा कुल मिलाकर 84 सार्वजनिक गवाहों, 70 मुसलमानों और 14 हिंदुओं से पूछताछ की गई। साथ ही पांच आधिकारिक गवाहों से भी पूछताछ के बाद न्यायिक आयोग ने 31 जुलाई 1989 को सरकार को अपनी जांच रिपोर्ट सौंप दी थी और ठंडे बस्ते में चली गई यह रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं हुई। हालांकि इसके कुछ अंश रिपोर्टों में प्रकाशित हुए थे, जिसमें पुलिस और पीएसी की कार्यप्रणाली पर सवाल उठाए गए थे। आरोपी पक्ष के अधिवक्ता छोटे लाल बंसल बताते हैं कि पुलिस ने एफआईआर दर्ज कराने में ही खेल किया था।

मतदाता सूची सामने रख लिखाई एफआइआर!

मेरठ के मलियाना कांड के बारे में जानकारी रखने वाले स्थानीय निवासी छोटे लाल बंसल बताते हैं कि जिन 93 लोगों के खिलाफ रिपोर्ट दर्ज कराई थी, उनमें से दो की मौत दंगे से सात साल पहले, तो दो की मौत 10 साल पहले हो गई थी। पूरी एफआईआर तत्कालीन थानेदार ने अपने हिसाब से लिखाई थी। उसने मतदाता सूची ली और उसमें से 50 परिवारों के लोगों के नाम लिखा दिए, यह भी नहीं देखा कि जिनके नाम हैं, वह सभी जीवित भी हैं या नहीं। उन्होंने बताया कि कोर्ट में केस के न टिकने की यह भी बड़ी वजह रही कि जो वादी बनाए गए, उन तक को नहीं पता था कि किस-किस के नाम लिखे गए हैं, एफआईआर तत्कालीन एसओ ने अपने हिसाब से लिखवाई थी। इसके अलावा जो गवाह पेश किए गए, उनमें से भी छह लोगों ने यह गवाही दी कि नामजद किए गए लोग गोली चलाने वाले नहीं हैं, बल्कि गोली तो तत्कालीन प्रशासन के कहने पर पीएसी और पुलिसवालों ने चलाई थी, जिनसे लोगों की मौत हुई। जांच आयोग ने इन सब मामलों को संज्ञान में लिया था।

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