सोनभद्र: सरकार की ई-टेंडरिंग नीति से खनन व्यवसायी नाखुश
कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि जिस प्रदेश में आज भी विद्यालय में बच्चों को बैठने के लिए टाट पट्टी ही है अस्पतालों में दवाओं नहीं डॉक्टर और अध्यापकों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं ऐसी तमाम चीजें हैं और उस प्रदेश में हजारों करोड़ रुपए धर्म के नाम पर खर्च कर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है।
सोनभद्र: खनन व्यवसाय से जुड़े जनपद सोनभद्र में अधिकांशत मजदूर है| मजदूरों से इतर ऐसे भी लोग हैं जो अपरोक्ष या परोक्ष रूप से इस खनन व्यवसाय से जुड़कर जीविकोपार्जन करते हैं। सरकार की नई ई-टेंडरिंग नीत सरकार के लिए भले लाभप्रद सिद्ध हो रही हो किंतु यहां उससे जुड़े व्यापारी या मजदूर वर्ग या फिर यूं कहें कि यहां के आम आदमी ने खोया ही है पाया कुछ भी नहीं।
पिछली सरकारों में ई टेंडरिंग के आधार पर कार्य नहीं हुए यह सत्य है, रिश्वतखोरी के आरोप चरम पर रहे लेकिन चौंकाने वाली बात इसमें यह है कि बड़े पैमाने पर रिश्वतखोरी के बावजूद भी आम आदमी से जुड़े गिट्टी और बालू के दाम कभी उनकी पकड़ से बाहर नहीं रहे। लोगों का मानना है कि ₹500 में एक ट्राली बालू खरीद कर गरीब अपना मकान बनाने की सोच सकता था किंतु नई ईमानदार सरकार की टेंडरिंग नीति के बाद उसकी कीमत सीधे 10 गुनी होकर उसके पकड़ से बाहर हो गई।
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इतना ही नहीं इन उत्पादों के दाम पर अंकुश लगाने की बात सरकार ने किया तो हमेशा, लेकिन कभी उस में सफल नहीं रहे। नतीजा यह रहा उससे जुड़े बड़े व्यवसाई और सरकार तो मालामाल होते गए और गरीबों के हाथ से न सिर्फ रोजगार छूटता गया बल्कि सस्ता गिट्टी बालू उपलब्ध कराने का सरकार का दावा भी खोकला ही साबित हुआ। रोज कुआं खोदकर पानी पीने वाले आम मजदूर को इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि देश में कितनी बड़ी परियोजनाएं काम कर रही हैं और उससे कितना लाभ हो रहा है, जीडीपी क्या है या उस जीडीपी का उसको क्या लाभ है उससे तो रोजमर्रा की जिंदगी में आसानी से उपलब्ध हो जाने वाले संसाधन ही मायने रखते हैं।
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जहां तक सरकार की योजनाओं का सवाल है यहां 50000 तनख्वाह पाने वाले सरकारी कर्मचार का भी ₹2 किलो गेहूं का धड़ल्ले से राशन कार्ड है और आयकर दाता का भी आयुष्मान योजना का लाभ कार्ड बना हुआ है। सरकार इन मामलों में बहुत बेहतरीन काम करती दिखाई नहीं पड़ती। साफ तौर पर कहे तो बहुत साफ सुथरी सरकार बना कर चलने वाले मौजूदा सरकार में निरंकुशता ज्यों की त्यों है और यही कारण है कि आम आदमी तक पहुंचने वाली योजनाएं उससे कोसों दूर है। गृहणियों का मानना है कि रसोई उसकी महंगी हुई है घरेलू गैस की कीमत बेतहासा बढ़ी है जिससे उनके बजट पर एक बड़ा बोझ बढ़ा है।
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कुछ लोगों का तो यह भी मानना है कि जिस प्रदेश में आज भी विद्यालय में बच्चों को बैठने के लिए टाट पट्टी ही है अस्पतालों में दवाओं नहीं डॉक्टर और अध्यापकों को वेतन देने के लिए पैसे नहीं ऐसी तमाम चीजें हैं और उस प्रदेश में हजारों करोड़ रुपए धर्म के नाम पर खर्च कर सरकार अपनी पीठ थपथपा रही है। प्रधानमंत्री आवास भी ऐसे ही लोगों को मिली जिनके पास पहले से आवाज मौजूद थे अब सवाल यह उठता है कि आखिर इन की जांच कौन करेगा।