Meerut News: 2022 चुनाव में हरित प्रदेश के बंटवारे का मुद्दा उठने के नहीं आसार, राष्ट्रीय लोक दल ने अख्तियार की खामोशी

उत्तर प्रदेश में 2022 में विधानसभा चुनाव में हरित प्रदेश का मुद्दा उठने के आसार नहीं दिख रहे हैं। वजह, इस मुद्दे को हवा देने वाले राष्ट्रीय लोक दल ने इस मुद्दे पर पूरी तरह खामोशी अख्तियार कर रखी है।

Report :  Sushil Kumar
Published By :  Deepak Kumar
Update:2021-12-12 21:14 IST

Meerut: उत्तर प्रदेश में 2022 में विधानसभा चुनाव (UP Election 2022) होने वाले हैं। इस चुनाव में हरित प्रदेश का मुद्दा उठने के आसार नहीं दिख रहे हैं। वजह, इस मुद्दे को हवा देने वाले राष्ट्रीय लोक दल (Rashtriya Lok Dal) ने इस मुद्दे पर पूरी तरह खामोशी अख्तियार कर रखी है। राजनीतिक सूत्रों की मानें तो इसके पीछे सबसे बड़ा कारण सपा (SP) के साथ राष्ट्रीय लोकदल (Rashtriya Lok Dal) का गठबंधन भी है, क्योंकि समाजवादी पार्टी (Samajwadi Party) हरित प्रदेश की मांग को लेकर अपना विरोध दर्ज कराती रही है। जहां तक पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western Uttar Pradesh) की राजनीतिक हैसियत की बात है तो देश आजाद होने के बाद से अब तक यूपी में 20 सीएम बने हैं। इनमें से चौधरी चरण सिंह, बनारसी दास गुप्त, राम प्रकाश गुप्ता, कल्याण सिंह और मायावती पश्चिमी उत्तर प्रदेश से रहे हैं।

वैसे, अजित सिंह (Chaudhary Ajit Singh) के जीवित रहते ही हरित प्रदेश की मांग का मुद्दा ठंडा पड़ने लगा था। दरअसल, सत्ता पक्ष में रहकर चौधरी अजित सिंह (Chaudhary Ajit Singh) हरित प्रदेश की लडाई लड़ते रहे। वह चाहते थे कि अगर पश्चिम को हरित प्रदेश बना दिया जाता है तो उनको सत्ता से कोई नहीं हटा सकता। एक तो यह क्षेत्र जाट बहुल क्षेत्र था, दूसरा इस क्षेत्र को आरएलडी (RLD) का गढ़ कहा जाता था, लेकिन मुजफ्फरनगर (Muzaffarnagar) के दंगों ने यहां की राजनीति के समीकरण बदल दिए। 2014 लोकसभा चुनाव में बागपत से अजित सिंह (Chaudhary Ajit Singh) को दूसरी बार हार झेलनी पड़ी। 2019 में उन्होंने मुजफ्फरनगर (Muzaffarnagar) सीट चुनी लेकिन यहां भी उन्हें शिकस्त मिली। इसके बाद से राष्ट्रीय लोकदल (Rashtriya Lok Dal) फिर कभी इस मुद्दे को लेकर सक्रिय नहीं दिखा।

भाजपा हरित प्रदेश का करती रही विरोध

भाजपा (BJP) लगातार हरित प्रदेश का विरोध करती रही है। पार्टी के कुछ नेताओं का मानना है कि इस राज्य का नाम हरित प्रदेश होकर बल्कि मुस्लिम प्रदेश होना चाहिए, क्योंकि इस क्षेत्र में अधिकतर मुसलमान समाज के लोग ही शामिल है। कांग्रेस फिलहाल बुंदेलखंड और पूर्वांचल की मांग का तो समर्थन करती है, लेकिन हरित प्रदेश के मामले में वह चुप्पी साध लेती है। राज्य के पुनर्गठन का विरोध करने वाले नेताओं का कहना है कि राज्य पुनर्गठन से राज्य सरकार की आय पर फर्क पड़ता है।

कृषि प्रधान क्षेत्र के साथ औद्योगिक प्रधान भी पश्चिमी उत्तर प्रदेश

उधर, पश्चिमी उप्र (Western Uttar Pradesh) के लोगों का कहना है कि इस क्षेत्र के विकास पर कभी भी ध्यान नहीं दिया। क्षेत्र में हाईकोर्ट की बेंच की मांग लगातार उठती रही है। अजित सिंह (Chaudhary Ajit Singh) अक्सर वकीलों के बीच कहा करते थे कि अगर हरित प्रदेश बन गया तो फिर हाई कोर्ट की बेंच नहीं बल्कि हाई कोर्ट ही मिल जाएगी। आंकड़ों पर नजर डालें तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western Uttar Pradesh) का इलाका हर दृष्टि से प्रदेश के अन्य हिस्सों से आगे है। कृषि प्रधान क्षेत्र होने के अलावा औद्योगिक प्रधान भी है। यहां कुल 7,265 औद्योगिक इकाइयां हैं, वहीं कृषि उत्पादन भी 25.2 मीट्रिक टन प्रति हेक्टेयर है। प्रति व्यक्ति सालाना आय 17,083 रुपये है। यह आंकड़ा प्रदेश के बाकी क्षेत्रों के मुकाबले सबसे ज्यादा है। प्रदेश में यह सर्वाधिक खुशहाल इलाका माना जाता है।

सत्तर के दशक से ही शुरू हो गई थी अलग राज्य बनाने की मांग

इस इलाके को अलग राज्य बनाने की मांग सत्तर के दशक से ही शुरू हो गई थी। तब से अलग-अलग समय पर अलग राज्य की मांग को लेकर आंदोलन होते रहे हैं। कभी पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western Uttar Pradesh) और कभी हरित प्रदेश के नाम से लोगों ने संघर्ष किया है, पर आज तक मांग नहीं सुनी गई। 90 के दशक में कांग्रेस नेता निर्भय पाल शर्मा (Congress leader Nirbhay Pal Sharma) व इम्तियाज खां (Imtiaz Khan) ने हरित प्रदेश का नाम देकर आंदोलन शुरू किया। आगरा, मथुरा, मेरठ, सहारनपुर, मुरादाबाद तथा बरेली मंडलों को मिलाकर प्रदेश बनाने की मांग की गई। 1991 में विधान परिषद सदस्य जयदीप सिंह बरार और चौधरी अजित सिंह ने हरित प्रदेश की मांग को हवा दी। कल्याण सिंह की सरकार में हरित प्रदेश की मांग उठी, लेकिन उन्होंने भी मामले को लटकाए रखा। चौधरी अजित सिंह इस मामले को संसद तक ले गए, लेकिन वे आंदोलन को सड़कों तक नहीं ला सके।

9 नवंबर 2000 को उत्तराखंड को अलग किए जाने के बाद यह मांग और ज्यादा मुखर हुई थी। 2002 के विधानसभा चुनाव के दौरान जब अजित सिंह (Chaudhary Ajit Singh) ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा तो उन्होंने हरित प्रदेश को एक बार फिर प्रमुख मुद्दा बनाया, लेकिन इस दौरान रालोद विधानसभा के अंदर और बाहर दूसरे दलों का समर्थन नहीं हासिल कर पाया। इसके बाद 2003 में हरित प्रदेश के धुर विरोधी मुलायम सिंह यादव (Mulayam Singh Yadav) के नेतृत्व में बनी सरकार में जैसे ही अजित सिंह (Chaudhary Ajit Singh) शामिल हुए आंदोलन की हवा निकल गई। विधानसभा में रालोद विधायक केवल संकल्प ही प्रस्तुत करते रहे।

बीएसपी प्रमुख और यूपी की तत्कालीन मुख्यमंत्री मायावती (BSP chief Mayawati) ने 2012 के विधानसभा चुनाव (2012 assembly elections) से ठीक पहले 21 नवंबर 2011 को विधानसभा में बिना चर्चा यह प्रस्ताव पारित करवा दिया था कि यूपी का चार राज्यों अवध प्रदेश, बुंदेलखंड, पूर्वांचल और पश्चिम प्रदेश में बंटवारा होना चाहिए। मायावती खुद पश्चिमी यूपी से ही आती हैं। मायावती सरकार (Mayawati Government) ने यह प्रस्ताव केंद्र (यूपीए सरकार) को भेज दिया था। जिसे 19 दिसंबर 2011 को यूपीए सरकार में गृह सचिव रहे आरके सिंह (home Secretary RK Singh) ने कई स्पष्टीकरण मांगते हुए राज्य सरकार को वापस भिजवा दिया था। इससे पहले वो 15 मार्च 2008 को तत्कालीन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह (Former PM Manmohan Singh) को एक पत्र लिखकर यूपी को चार हिस्सों में बांटने की मांग उठा चुकी थीं। हालांकि, प्रदेश में समाजवादी पार्टी की सरकार (Samajwadi Party government) बनने के बाद यह मामला ठंडे बस्ते में चला गया था।

हरित प्रदेश के मुद्देपर राष्ट्रीय लोकदल मौन

15 सितंबर 2020 को संसद के मानसून सत्र में बिजनौर से बसपा सांसद मलूक नागर (Bijnor BSP MP Malook Nagar) ने पश्चिमी उत्तर प्रदेश (Western Uttar Pradesh) को अलग राज्य बनाने का मुद्दा उठाते हुए छोटे राज्य के फायदे बताए। बहरहाल, ऐसा लगता नहीं है कि आगामी चुनाव में हरित प्रदेश का मुद्दा उभरने वाला है। वजह साफ है। इस मुद्दे को हवा देने वाला राष्ट्रीय लोकदल (Rashtriya Lok Dal) अब इस मसले पर मौन है। अब इसके पीछे राजनीतिक कारण चाहे जो लेकिन पिछले कई चुनावों में राष्ट्रीय लोकदल हरित प्रदेश की मांग को लेकर खूब चुनावी लाभ उठाता रहा है।


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