अनुराग शुक्ला की स्पेशल रिपोर्ट
लखनऊ। आर्ट आफ लिविंग के प्रमुख श्री श्री रविशंकर इन दिनों अयोध्या के रामजन्मभूमि विवाद का हल खोजने में लगे हैं। लेकिन इस कवायद का हासिल पिछली दस बार की कवायद जैसा ही होने की आशंका है। दरअसल इस कवायद की शुरुआत ने ही इसका नतीजा जाहिर कर दिया है। बंगलुरू, दिल्ली, लखनऊ और अयोध्या में श्री श्री ने अपनी कोशिशें जारी रखीं। उनकी नीयत को लेकर तो किसी तरह का कोई शक नहीं पर जिन लोगों से वह यह कोशिश कर रहे हैं उनका विवाद से कोई नाता नहीं है।
श्री श्री ने जिन लोगों से बात की है उनमें एक भी इस विवाद के पक्षकार नहीं हैं। वसीम रिवजी जो कि मंदिर के पैरोकार के तौर पर मुस्लिम पक्ष का चेहरा बने हैं, वो सेंट्रल शिया पर्सनल बोर्ड के अध्यक्ष हैं। ये बोर्ड इस मामले में पक्षकार नहीं है। बजरंग दल के जो नेता श्री श्री से मिले हैं उनमें भी विनय कटियार को छोडक़र कोई मुकदमे में पक्षकार नहीं है। विनय कटियार भी इस मामले के आपराधिक केस में आरोपी हैं पर टाइटिल सूट में उनका कोई योगदान नहीं है।
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अमरजीत मिश्र जो रामजन्मभूमि मंदिर निर्माण न्यास अयोध्या के राष्ट्रीय महासचिव और वार्ता के प्रभारी बताए जाते हैें वह भी किसी तरह से मुकदमे से संबंधित नहीं हैं। इस मामले में वैसे तो खुद श्री श्री रविशंकर कह चुके हैं कि उनके पास फिलहाल कोई फार्मूला नहीं है बल्कि वह प्रारंभिक बात कर रहे हैं। पर इस विवाद से जुड़े पक्षकारों के रुख तो अभी से ही यह तय कर रहे हैं कि वह किसी फार्मूले के लिए तैयार ही नहीं है।
सबसे पहले सुलह की कोशिश की गयी पच्चीस साल पहले यानी 1985 में। ये कोशिश थी तो स्थानीय स्तर पर पर इसको तत्कालीन गृहमंत्री बूटा सिंह का भी समर्थन मिला था। बाबरी मस्जिद रामजन्मभूमि समस्या समाधान समिति बनाकर स्थानीय लोगों ने इस कोशिश को अंजाम दिया था। ये कोशिश काफी हद तक परवान भी चढ़ी। इस कोशिश का तर्क ये था - कई इस्लामिक देशों में विकास के लिये मस्जिदों को कुछ दूर स्थानांतरित किया जाता है। उसी तर्ज पर मस्जिद को उस जगह से हटाकर महज कुछ दूर परिक्रमा मार्ग पर स्थापित किया जाए। इसके लिये देश भर के मुस्लिम विद्वानों की सहमति भी हासिल हो गयी थी।
सूडान पाकिस्तान और मिस्र के उलेमा ने इसके लिये फतवा भी जारी कर दिया। इराक और ईरान के इस्लामिक विद्वानों से भी बात कर ली गयी। एक प्रतिनिधिमंडल बनाया गया। प्रिंस अंजुम कदर भी इस प्रतिनिधिमंडल के हिस्सा बने। लेकिन सारी प्रगति धरी की धरी रह गयी जब इसे अखबारों की सुॢखयों में जगह मिली। दोनों पक्षों और आम लोगों के गुस्से को देखते हुए इसे तुरंत ठंडे बस्ते में डाल दिया गया।
1986 में ये कोशिश भी अयोध्या फैजाबाद के लोगों ने ही की। हालांकि यह तत्कालीन कंाग्रेसी मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह की सरपरस्ती में की गयी। अयोध्या गौरव समिति नाम के ट्रस्ट के बैनर तले ये कोशिश की गयी जिसका अध्यक्ष बनाया गया महंत नृत्य गोपाल दास को। महामंत्री बने फैजाबाद के वरिष्ठ पत्रकार शीतला सिंह और कोषाध्यक्ष बने श्यामनारायण बंसल।
फैजाबाद के सांसद निर्मल खत्री, अयोध्या के राजपरिवार के वंशज विमलेंद्र मोहन मिश्र और अयोध्या के सभी बड़े साधुओं को सदस्य बनाया गया। लेकिन रामविलास वेदांती शामिल नहीं हुए। दिल्ली में सांसद शहाबुद्दीन के आवास पर बैठक भी की गयी जिसमें केरल मुस्लिम लीग के नेता मोहम्मद कोया, आंध्र प्रदेश के कंाग्रेसी नेता उवैसी समेत कई बड़े मुस्लिम नेता मौजूद थे। सभी ने माना कि राम मंदिर बने तो दरियादिली दिखाकर मुस्लिम राष्ट्रीय राजनीति की मुख्यधारा में आ सकते हैं।
इस बातचीत के बाद अयोध्या के दिगंबर अखाड़े में विहिप के 13 बड़े नेताओं की सहमति ली गयी। सहमति के अनुसार तय ये किया गया कि विवादित मस्जिद को चारों तरफ से घेर दिया जायेगा और राममंदिर की शुरुआत रामचबूतरे से की जायेगी। आरएसएस के मुखपत्र आर्गनाइजर और पांचजन्य में 26 दिसंबर 1986 को ये समाचार छप भी गया।
आरएसएस के उपप्रमुख भाउराव देवरस से इस फार्मूले पर उनकी सहमति भी ले ली गयी। इसके गवाह दिल्ली की नेता निर्मला देश पांडे, शीतला सिंह, अयोध्या के साकेत महाविद्यालय के हिंदी प्रवक्ता रमाशंकर त्रिपाठी थे। ये प्रतिनिधि मंडल बाद में तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी से भी मिला और मुस्लिम धाॢमक स्थल संरक्षण कानून बनाने का आग्रह किया। बाद में ये सुलह की कोशिश अपनी दिशा से भटक कर खो गयी।
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20 अक्टूबर 1990 को आध्यात्मिक गुरुओं की बातचीत भी हुई। इसके पीछे पूर्व उपराष्ट्रपति $कृष्णकंात, बिहार के पूर्व राज्यपाल यूनुस सलीम, स्वामी चिन्मयानंद और अब्दुल करीम पारिख का बड़ा योगदान था। इस बैठक में हिंदू पक्ष की तरफ से 14 और मु्स्लिम पक्ष से 12 विद्वानों ने भाग लिया। इसके बाद आठ लोगों की एक समिति बनायी गयी। इसमें स्वामी चिनमयानंद, मौलाना कल्बे सादिक, स्वामी सत्यमित्र, मौलाना मुफ्ती, स्वामी जगदीश मुनि, अशरफ अली मौलाना सलीम और मौलाना अब्दुल करीम पारिख शामिल थे।
इस समझौते में कुछ हल तो निकल कर नहीं आया पर इतना जरूर हुआ कि केंद्र सरकार ने इसके बाद 1990 में रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद क्षेत्र का अध्यादेश जारी कर दिया। इस समिति की कोशिश थी कि वार्ता जारी रखी जाए लेकिन बाद में कारसेवा के दौर में हुई घटनाओं ने इस वार्ता पर भी ब्रेक लगा दिया। 01 दिसंबर 1990 को एक और पहल की गयी। इसमें विहिप और बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने सीधी बातचीत की कोशिश की। इसमें विहिप के विष्णु हरि डालमिया आचार्य गिरिराज किशोर, श्रीशचंद्र दीक्षित समेत कई बडे नेता शामिल हुए। 14 दिसंबर को दूसरी बैठक में तत्कालीन गृहराज्य मंत्री, यूपी, महाराष्ट्र दिल्ली और राजस्थान के सीएम शामिल थे।
बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी ने साफ कहा कि इस बात के कोई सुबूत नहीं हैं कि मंदिर तोड़ कर बाबरी मस्जिद बनायी गयी है। राजस्थान के तत्कालीन सीएम भैरोंसिंह शेखावत ने दोनों पक्षों को सुबूत पेश करने को कहा। इसके बाद 10 जनवरी 1991 को एक बैठक हुई जिसमें मुस्लिम पक्ष ने डॉ ए अख्तर, डॉ आर एस शर्मा, डॉ एन झा और सूरजभान को विशेषज्ञ के तौर पर पेश किया।
वहीं विहिप ने जस्टिस जी एम लोढ़ा, देवकी नंदन अग्रवाल, डी पी सहगल समेत कई विशेषज्ञ पेश किये। बैठक में इतिहासकार प्रो बी बी लाल की रिपोर्ट का शामिल न होना विवाद का विषय बना। समिति ने अपना निष्कर्ष दिया कि बाबरी मस्जिद का निर्माण किसी मंदिर को गिराकर हुआ इसका साक्ष्य नहीं है।
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12 जनवरी 1991 को शिया कांफ्रेंस ने दिल्ली के अशोका होटल में एक सम्मेलन किया। इस मकसद अयोध्या विवाद का हल और सांप्रदायिक सौहार्द की बहाली था। इसमें सैय्यद शहाबुद्दीन, जी एन बनातवाला, मौलाना कल्बे सादिक समेत 10 बड़े मुस्लिम नेताओं और महंत अवैद्यनाथ, श्रीशचंद्र दीक्षित, दाउदयाल खन्ना समेत नौ हिंदू नेताओं ने हिस्सा लिया। इस सम्मेलन के माध्यम से हल तो कुछ नहीं निकला पर केंद्र सरकार से अपील की कि सरकार पता लगाए कि बाबरी मस्जिद की जगह पर कोई मंदिर था। और मुकदमे की जल्द से जल्द सुनवाई खत्म की जाय।
3 जनवरी 1993 को केंद्र सरकार ने विवादित स्थल और उसके आस पास की 67 एकड़ भूमि को अधिग्रहीत करने का काम शुरू किया। इसके बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री पी वी नरसिम्हाराव ने रामालय ट्रस्ट बनाकर इस भूमि में मंदिर मस्जिद पुस्ताकालय-संग्रहालय बनाने की घोषणा की। इसमें स्वामी शंकराचार्य, स्वामी स्वरूपानंद, चार अन्य शंकराचार्य व सीताराम शरण, कौशल किशोर फलाहारी, स्वामी पुरुषोत्माचार्य और स्वामी युगल किशोर शास्त्री को शामिल किया गया। मस्जिद ट्रस्ट भी बनाने की भी घोषणा की गयी। जिसमें दिल्ली वक्फ बोर्ड के तत्कालीन सभापति मौलाना जमील इलयासी को शामिल किया जाना था।
मौलाना वहीउद्दीन ने ये भी राय दी कि मुस्लिमों को मस्जिद का दावा खुद ही छोड़ देना चाहिये। इस बात से मुस्लिम समुदाय खासा नाराज हुआ और दोनोन ही ट्रस्ट अस्तित्व में नहीं आ सके। आठ मार्च 2002 और 16 जून 2003 को कंाची कामकोटि के शंकराचार्य और मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड में दो बार बातचीत हुई। दोनों ही बार मामला कोर्ट से सुलझाने की बात पर सहमति बन पायी।
शंकराचार्य ने एक अपील भी की कि विवादित परिसर और गैरविवादित भूमि को अलग कर रामजन्मभूमि न्यास को गैरविवादित भूमि पर मंदिर बनाने दिया जाए। बाबरी मस्जिद एक्शन कमेटी के वादी हाशिम अंसारी समेत आधा दर्जन से ज्यादा मुस्लिम नेताओं ने प्रधानमंत्री को चिट्ठी लिखी कि उन्हें ये मंजूर नहीं है। उनके मुताबिक वार्ता का अधिकार मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को है।
दसवीं कोशिश के तहत 2003 में और जामा मस्जिद ट्रस्ट बनाकर समझौता करने की कोशिश की गयी पर ये कामयाब नहीं हो सकी। छह दिसंबर 2003 को मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने एक सम्मेलन बुलाकर ये कोशिश की पर कोई समाधान नहीं निकल सका।
इतनी कोशिशों के बाद भी सुलह न होने की एक वजह ये भी है कि मुस्लिम पक्ष में तो वार्ता का अधिकार फिलहाल मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड को है पर हिंदू पक्ष में वार्ता करेगा कौन। पक्षकारों का मानना है कि अगर कोई वार्ताकार बनता है तो भहदू पक्ष के करीब 30 पक्षकार क्या उसकी बात मानेंगे। ऐसे में एक बार फिर सुलह के लिये कोशिश करना ज्यादातर पक्षकारों को रास नहीं आ रहा।
दस बार नाकाम रही है सुलह की कोशिश
रामजन्मभूमि बाबरी मस्जिद के मुद्दे का हल सुलह समझौते से करना सबका सपना रहा है। इस बार की कोशिश कोई नयी नहीं है। इससे पहले भी दस बार दोनों पक्षों ने इस मुद्दे का हल निकालने की कोशिश की। इन कोशिशों में कई बार सरकार और कई सरकारों के नुमाइंदे भी बैठे। बात काफी हद तक बढ़ी पर कभी सियासतदां तो कभी किसी एक पक्ष ने ऐन वक्त पर सुलह को ठेंगा दिखा दिया।
वार्ता में वादी न प्रतिवादी
रामजन्मभूमि न्यास और हिंदू पक्ष की वकील और मुकदमे में वादी रंजना अग्निहोत्री कहती हैं, न तो वार्ता में वादी है न प्रतिवादी तो किस तरह की समझौता वार्ता है ये। जो लोग वार्ता कर रहे हैं उन्हें न मामले की पूरी जानकारी है न ही केस की कानून समझ। मध्यस्थता का तो कोई सवाल ही नहीं उठ रहा है। हम लोग हाईकोर्ट में केस जीत चुके हैं एक तिहाई भाग के लिए सुप्रीम कोर्ट में अपील की गयी है। तो अब समझौते की जरूरत क्या है। वैसे भी हम सुप्रीम कोर्ट का फैसला मानने को तैयार हैं।
इस मामले की पैरवी कर रहे आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड के एक्जीक्यूटिव मेंम्बर मौलाना खालिद रशीद फिरंगी महली कहते हैं, ‘रविशंकर जी हिंदू धर्मगुरु हैं,हमारे शहर आए हैं, उनका स्वागत है पर इस मसले पर कहीं बात करने उनसे मिलने जाने का प्रश्न नहीं है। हम पहले ही बोल चुके हैं कि इस मसले पर आल इंडिया मुस्लिम पर्सनल ला बोर्ड को सुप्रीम कोर्ट का फैसला ही मंजूर है।’ इस मामले की सबसे बड़ी बात है कि अयोध्या का मामला टाइटिल सूट है इसमें कोई अपने आप से पक्षकार बन ही नहीं सकता। इसको शामिल करने की प्रक्रिया है। ऐसे में इस कवायद का हश्र इसके आगाज से ही दिख रहा है।