HERITAGE DAY: ये इमारत कभी बनी भुखमरी में मददगार, आज है लखनऊ की शान

Update: 2016-04-18 06:35 GMT

लखनऊ: इतिहास और ऐतिहासिक इमारतों के साथ कुछ-ना-कुछ रोचक तथ्य अवश्य जुड़े होते है। ऐसी ही एक इमारत है लखनऊ की भूलभुलैया, जो बड़े इमामबाड़े के नाम से जानी जाती है। वर्ल्ड हेरिटेज डे पर इस इमारत से जुड़े तथ्यों पर एक नजर डालते है। इस इमारत को बनाने के लिए देश में सबसे पहले काम के बदले अनाज योजना शुरू हुई थी। समय बीतने के साथ इसी काम के बदले अनाज योजना ने देश में केंद्र सरकार की सबसे महत्वाकांक्षी योजना महात्मा गांधी नेशनल रूरल एम्प्लॉयमेंट गारंटी स्कीम (मनरेगा) का रूप लिया।

गरीब-अमीर दोनों का रहमदाता रही है ये इमारत

जब अवध क्षेत्र में सूखे के कारण आकाल पड़ गया तो उस वक्त गरीब और अमीर दोनों लोगों की माली हालत खराब हो गई थी। उस वक्त अवध पर आसिफ-ऊ-दौला का राज था। आसिफ-उ-दौला एक रहमदिल शासक माना जाता था। उससे अपने रियासत के लोगों की ऐसी हालत देखी न गई। रियासत के कई ऐसे अमीर लोग थे जो अकाल के कारण भुखमरी तो झेल रहे थे, लेकिन सबके सामने मेहनत कर पैसे कमाने में उन्हें शर्म भी आती थी।

वहीं गरीबों का भी तबका था जो भुखमरी की कगार पर पहुंचा था और जिन्दा रहने के लिए कुछ भी करने को तैयार था। ये देखकर आसिफ ऊ दौला ने बीच का रास्ता निकाला। उसने एक इमामबाड़ा बनवाने का निश्चय किया। इस इमामबाड़े को बनवाते वक्त दिन में गरीब मजदूरों से ये इमारत बनवाई जाती तो रात के अंधेरे में अमीर तबके के लोग इसे गिराने का काम करते। इससे इमारत का काम अधूरा रह जाता।

काम के बदले अनाज योजना की शुरुआत

बड़ा इमामबाड़ा और रूमी दरवाजे का निर्माण नवाब आसफउद्दौला ने अकाल राहत के लिए करवाया था। ताकि लोगों को रोजगार और खाना मिल सके। ये देश की पहली काम के बदले अनाज की योजना मानी जाती है। इसी के आधार पर आज की मनरेगा का स्वरुप तैयार हुआ। इस दरवाजे को टर्किश गेटवे भी कहा जाता है। यहां काम करने वालों को बनाने और गिराने का काम करने के लिए नवाब मुआवजा देता था। जैसे-जैसे हालात सुधरते गए ईमारत को गिराने का काम बंद कर दिया गया। बाद में यह इमामबाड़ा 1784 में बनकर तैयार हो गया।

दीवारों के भी कान होते हैं

कहते हैं कि यदि इमामबाड़ा न होता तो दुनिया को यह कहावत कभी न मिलती कि दीवारों के भी कान होते हैं। भूलभुलैया के अन्दर ऐसी दीवारें बनाई गई है जिनमें एक सिरे पर मुंह लगाकर कुछ बोला जाए तो दूसरे सिरे पर खड़ा व्यक्ति कान लगाकर उसे साफ-साफ सुन सकता है। इस इमामबाड़े के निर्माण के समय उरद की दाल, बड़ियां, चावल की लुगदी, बेल का गूदा, सरेस, शीरा बुझा हुआ चूना और लखनऊ के पास के कंकरखेड़ा गांव के महीन कंकरों का प्रयोग हुआ था।

इमारत की विशेषता

इमामबाड़े के केंद्रीय भवन में तीन विशाल कक्ष हैं। एक चाईनीज प्लेट डिजाईन का है, दूसरा पर्शियन स्टाइल में और तीसरा भारतीय खरबूजा पैटर्न का बना हुआ है। हॉल की लम्बाई लगभग 163 फीट और चौड़ाई 60 फीट है। इस हॉल में कोई खंभा नहीं है। खंभे के बिना बने इस हॉल की छत 15 मीटर से अधिक ऊंची है। ये हॉल लकड़ी, लोहे या पत्‍थर के बीम के बाहरी सहारे के बिना खड़ी विश्‍व की अपने आप में सबसे बड़ी रचना है। इसकी छत को किसी बीम या गर्डर के उपयोग के बिना ईंटों को आपस में जोड़ कर खड़ा किया गया है। इसकी छत पर पहुंचने के लिए 80 सीढ़ियां हैं।

इसकी छत की दीवारों के बीच छुपे हुए लंबे गलियारे हैं, जो लगभग 20 फीट मोटी हैं। इन दीवारों के बीच 215 फीट चौड़े 1000 गलियारे बने हैं, यही घने, गहरे गलियारों की संरचना भूलभुलैया कहलाती है। कहा जाता है कि इनके अंदर जाने की हिमाकत तभी करें जब आपका दिल मजबूत हो नहीं तो थोड़ी देर बाद इन गलियारों में फंस कर आप घबराने लगेंगे। इमामबाड़े के परिसर के अन्दर आसिफी मस्जिद भी स्थित है, इसका विशाल आकार देखकर आप मंत्रमुग्ध रह जाएंगे। इमामबाड़े की एक और सुंदर संरचना मौजूद है जो कि 5 मंजिला बाउली या सीढ़ीदार कुंआ है। शाही हमाम नाम की यह बाउली गोमती नदी से जुड़ी है। इसमें पानी से ऊपर केवल दो मंज़िले हैं, बाकी हिस्सा पानी के अंदर डूबा रहता है।

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