UP में मोदी की योजनाओं का बेड़ागर्क, तीन हजार करोड़ खर्च, सिर्फ एक जिला ओडीएफ

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाओं को नौकरशाही किस तरह पलीता लगाती है, इसकी जीती-जागती नजीर उत्तर प्रदेश में देखने को मिलती है।

Update: 2017-08-25 07:41 GMT

योगेश मिश्र

लखनऊ/बनारस/शामली: प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की महत्वाकांक्षी योजनाओं को नौकरशाही किस तरह पलीता लगाती है, इसकी जीती-जागती नजीर उत्तर प्रदेश में देखने को मिलती है। स्वच्छता को लेकर चलाए जा रहे प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के अभियान को उत्तर प्रदेश की नौकरशाही ने उनके संसदीय क्षेत्र बनारस और सूबे के इकलौते खुले में शौच से मुक्त (ओडीएफ) वाले जिले शामली में खूब पलीता लगाया गया। दिलचस्प यह है कि इन दोनों जिलों में ओडीएफ का काम विश्व बैंक के हवाले था। देश के 677 जिलों में से 141 जिले ओडीएफ घोषित हुए हैं।

उत्तर प्रदेश में इस कोटि में अकेला शामली जिला आता है, लेकिन इस जिले की भी ओडीएफ की कहानी बेहद पेचीदा है। बीते 11 मार्च को सूबे में विधानसभा की मतगणना थी। 10 मार्च को रात 8 बजे शामली को ओडीएफ घोषित कर दिया गया। ऐसा महज इसलिए किया गया क्योंकि मुख्यमंत्री सचिवालय में तैनात आईएएस अफसर अमित गुप्ता और मिशन डायरेक्टर विजय किरण आनंद के सिर इस उपलब्धि का तमगा बांधा जा सके,लेकिन इस ओडीएफ घोषित जिले की पड़ताल करने जब अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञ गांवों में गए तो उनके होश फाख्ता हो गए। इस टीम के आठ लोगों ने आठ अलग-अलग गांवों में रात बिताई। 55 -60 फीसदी घरों में शौचालय बने मिले। तकरीबन 40 फीसदी घरों में स्वच्छ भारत का यह मिशन सिर्फ कागजी था।

पैसा न मिलने से लोग भरने लगे गड्ढे

‘न्यूजट्रैक’ और ‘अपना भारत’ की टीम ने भी कुछ गांवों का दौरा किया तो यही हकीकत पुष्ट हुई। शामली के जलालाबाद और कांधला गांव के लोग अभी भी खुले में शौच के लिए अभिशप्त हैं। जिन घरों में शौचालय के गड्ढे खुदवाए गए थे, धनराशि न मिलने की वजह से अब लोगों ने गड्ढों को बंद करना शुरू कर दिया है। शहर के मोहल्ला रामरत्न मंडी और सहागाजीपुरा में भी कमोबेश ऐसी ही स्थिति है। नगर पंचायत ने लोगों से यह कहकर गड्ढे खुदवाए थे कि शौचालयों के निर्माण कराए जाएंगे। दो किश्तों में पैसे मिलेंगे,लेकिन गरीब परिवारों को इस मद में अभी तक कोई धनराशि प्राप्त नहीं हुई। गड्ढों में बच्चे गिरने लगे हैं, लोगों को चोट लगने लगी है। शौचालय न होने से लोग खुले में घर के बाहर शौच जाते हैं।

गड्ढा खुदवाने पर बोले -योजना बंद हो गई

जिंदाना गांव के गुलाब सिंह की मानें तो 30 से 35 फीसदी लोग खुले में शौच करते हैं। लतीफगाड गांव के शतपाल बताते हैं कि प्रधान और सेक्रेटरी ने 60 शौचालय पास किया था। उन्होंने आश्वासन दिया था कि गड्ढे खुदवाइम के पांच हजार रुपए मिलेंगे। पूरा करने के बाद पांच हजार रुपए और मिलेंगे। उन्होंने अपने लोगों को पैसा दिया। हमने फोन करके पूछा तो उन्होंने कहा कि सरकार की योजना बंद हो गई है।

गांव की सविता बताती हैं कि पैसे नहीं मिले तो शौचालय बने कैसे। लतीफगढ़ की सविता का शौचालय अधूरा है। वह बताती हैं कि सेक्रेटरी ने कहा कि गड्ढा तैयार कर लो, बाद में पैसा मिलेगा, लेकिन अब कहते हैं कि योजना खत्म हो गई।

कंडला नई बस्ती के वकील की मानें तो वह दो महीने से शौचालय बनवाने के लिए नगरपालिका में चक्कर काट रहे हैं। नामित सभासद रवींद्र कश्यप इस बात को तस्दीक करते हैं कि नगर पंचायत स्वच्छ भारत मिशन के अंतर्गत ओडीएफ प्रमाण पत्र लेने की तैयारी तो कर रही है, पर वार्ड में कई दर्जन परिवारों के यहां शौचालय नहीं बने हैं।

बनारस में विश्व बैंक को सौंप दिया काम

बनारस की कहानी भी कम दिलचस्प नहीं है। विजय किरण आनंद जब वहां जिलाधिकारी थे तब अंतरराष्ट्रीय एजेंसी वाटर सप्लाई एंड सेनिटेशन कोलोबरेटिव कौंसिल (डब्ल्यूएसएससीसी) ने बनारस को ओडीएफ करने का प्रस्ताव दिया। डब्ल्यूएसएससीसी के लोगों ने जिलाधिकारी को बताया कि वे शुरुआती दौर में पांच करोड़ रुपए की धनराशि खर्च करेंगे, लेकिन जिलाधिकारी ने इस एजेंसी की जगह विश्व बैंक को यह काम थमा दिया। डब्ल्यूएसएससीसी को बताया गया कि यूएन से भी फोटोग्राफर आया था।

एक फिल्म बनाई जाएगी। निराश डब्ल्यूएसएससीसी के लोगों ने सहारनपुर के जिलाधिकारी से संपर्क साधा और उस जिले में ओडीएफ का काम किया। यह फिल्म यूएन में दिखाई गई। विजय किरण आनंद ने बनारस के 202 गांव ओडीएफ करवाया, लेकिन जब नए जिलाधिकारी योगेश्वर राम ने इसकी पड़ताल कराई तो उनके होश फाख्ता हो गए। उन्हें यकीन ही नहीं हुआ कि प्रधानमंत्री के संसदीय क्षेत्र में भी ऐसा हो सकता है।

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पानी की कमी से शोपीस बने शौचालय

वाराणसी के 702 गांवों में से जिन 202 गांवों को खुले में शौचमुक्त किया गया है। हमारी टीम ने उनमे से होलापुर, नियारडीह, मंगोलेपुर गांवों की पड़ताल की। जिला मुख्यालय से आठ किमी की दूरी पर बसे होलापुर गांव की आबादी 1854 है। अनुसूचित जाति बाहुल्य इस गांव के हर घर में शौचालय तो बन गया हैं। लोग शौचालय का इस्तेमाल भी करने लगे हैं। लोगों में यह आदत डालने के लिए गांव की पंचायत को अर्थदंड का भी प्रावधान करना पड़ा। कई लोगों के राशन रोकने पड़े, लेकिन यहां पानी को लेकर दिक्कत आ रही है। पानी की कोई व्यवस्था नहीं है। नतीजतन शौचालय शोपीस बनकर रह गए हैं।

गांव की शकुंतला देवी बताती हैं, ‘पूरी दलित बस्ती में सिर्फ दो हैंडपंप लगे हैं। पीने के अलावा नहाने के लिए हैंडपंप पर भीड़ जुटी रहती है। ऐसे में शौचालय के लिए पानी लेना मुश्किल होता है। अगर सरकार पानी की व्यवस्था नहीं करती है तो शौचालय का कोई मतलब नहीं है।’

गांव के प्रधान संजय कुमार बताते हैं कि130 शौचालय बनवाए जा चुके हैं। शुरुआती दिनों में लोगों ने रुचि नहीं दिखाई, नतीजतन निगरानी समिति बनानी पड़ी।

छह महीने में ही टूटने लगे शौचालय

ओडीएफ गांवों में शादी या अन्य किसी समारोह के अवसर पर खुले में शौच करना लोगों की मजबूरी हो गई है। होलापुर गांव के निगरानी समिति के सदस्य ने बताया कि पिछले महीने एक शादी समारोह के दौरान हमारी अपील पर जिला प्रशासन ने मोबाइल टॉयलेट की व्यवस्था कराई पर यह अल्पकालीन व्यवस्था है। सरकार को इस ओर ध्यान देना चाहिए।

जिला समन्वयक अधिकारी अनामिका त्रिपाठी कहतीं हैं, ‘लोगों की मानसिकता बदल गई है। लोग शौचालय का इस्तेमाल कर रहे हैं। पर अभी कुछ बुनियादी दिक्कतें हैं, इन्हें जल्द ही दूर कर लिया जाएगा। अभियान फिलहाल शुरुआती दौर में है, अभियान के दूसरे हिस्से में पानी और सामुदायिक शौचालय पर फोकस किया जाएगा।’ छह महीने भी नहीं बीते हैं कि कई गांवों में शौचालय टूटने लगे हैं। कुछ में दरवाजे नहीं हैं तो कुछ में सेप्टिक टैंक खराब है। शौचालय बनवाने के लिए सरकार की ओर से बारह हजार रुपए जारी किए जाते हैं। कमीशन के चक्कर में अधिकांश लोगों को गुणवत्ता से समझौता करना पड़ता है। बनारस में दर्जनों गांव ऐसे हैं जहां कागजों पर शौचालयों की संख्या कुछ और है और धरातल पर कुछ और।

नियारडीह में 450 और मंगोलेपुर में 111 शौचालयों का निर्माण दिखाया गया है। कागजों पर गांव ओडीएफ हो गया है, लेकिन अभी भी लोग खुले में शौच जाते देखे जा सकते हैं। इन दोनों गांवों में धरातल पर शौचालयों की संख्या इससे काफी कम है। अधूरे शौचालयों की संख्या भी कम नहीं है। अब डब्ल्यूएसएससीसी को बनारस में ओडीएफ की जिम्मेदारी देने के लिए कवायद तेज हो गई है। जब डब्ल्यूएसएससीसी को बनारस का काम नहीं मिला तो उसने सहारनपुर की ओर रुख किया। बीते बकरीद के दिन सहारनपुर में स्वच्छता की शुरू हुई। इस एजेंसी ने सहारनपुर के दो सौ गांवों को ओडीएफ किया।

तीन हजार करोड़ खर्च, सिर्फ एक जिला ओडीएफ

दिलचस्प बात यह है कि यूएन सैनिटेशन कैंपेन के लिए अनुदान देता है, जबकि डब्ल्यूएसएससीसी अपना पैसा लगाती है जिसे वापस नहीं करना होता है। बावजूद इसके उत्तर प्रदेश के नौकरशाहों के लिए पहला विकल्प यूएन होता है। गौरतलब है 2014 से यूपी में यह अभियान चल रहा है। अबतक तकरीबन तीन हजार करोड़ रुपए खर्च हो चुके हैं, लेकिन केवल एक ही जिला ओडीएफ किए जाने का दावा है।

तीन साल में देश के 131 जिले ओडीएफ हुए हैं, जिसमें सिक्किम के 4, केरल के 6, छत्तीसगढ़ के 14, गुजरात के 18 जिले शामिल हैं। डब्ल्यूएसएससीसी की कोशिशों से उत्तराखंड शत-प्रतिशत ओडीएफ होने के मुहाने पर खड़ा है। बिहार में नीतीश कुमार ने ओडीएफ घोषित जिलों का भौतिक सत्यापन कराया तो तमाम कमियां मिलीं।

नतीजतन उन्होंने कागजी घोषणाओं से बचने और इस दिशा में सही काम करने की बात कही मगर उत्तर प्रदेश के इकलौते जिले के ओडीएफ की घोषणा में इतनी अनियमितताओं के बाद भी कोई पूछनहार नहीं है। यह भी कम हैरतअंगेज नहीं है कि बनारस में जिलाधिकारी रहे विजय किरण आनंद इन दिनों इस अभियान के मिशन डायरेक्टर हैं।

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