लोकसभा चुनाव-2019: चौसर पर चालें, आखिर कौन बनेगा महाबली

Update:2019-03-15 12:48 IST

श्रीधर अग्निहोत्री

लखनऊ: फागुन के महीने में चुनावी बिगुल बजने के बाद प्रदेश का माहौल चुनावी रंग में सराबोर है। दलीय नेता और कार्यकर्ताओं के साथ इन दिनों समाज का हर वर्ग चुनावी मोड में दिख रहा है। सत्ता के वादे बनाम विपक्ष के आरोपों की लड़ाई का अंजाम क्या होगा, यह तो 23 मई को नतीजे घोषित होने के बाद ही पता चलेगा। यूपी में चूंकि सबसे ज्यादा लोकसभा सीटें हैं सो दिल्ली की सत्ता का रास्ता भी इसी प्रदेश से होकर जाता है। ऐसे में देखने वाली बात होगी कि ८० सांसदों में कौन-कौन इस बार महाबली या बाजीगर साबित होंगे। यह तय है कि 18वीं लोकसभा का चुनाव अपने आप में अनूठा होने जा रहा है।

2014 के लोकसभा चुनाव में चारों खाने चित हो चुका विपक्ष इस बार बेहद सोच समझकर रणनीति बना रहा है। उपचुनावों में मिली सफलता के बाद सपा-बसपा- रालोद गठबंधन से विपक्ष में उम्मीदों की किरण जगी है जबकि गठबंधन से अलग कांग्रेस अपने अतीत के गौरव के साथ चुनावी मैदान में उतरी है। दलित-पिछड़ा व मुस्लिम वोट बैंक के दम पर प्रदेश की राजनीति करने वाले दोनों दलों सपा-बसपा के साथ गठबंधन में रालोद भी शामिल हो गया है जिसका जाट वोट बैंक पर अच्छा खासा प्रभाव माना जाता है। उसके प्रभाव वाले क्षेत्रों बागपत, मथुरा, मुजफफरनगर, बिजनौर, हाथरस, अमरोहा, फतेहपुर सीकरी, नगीना, कैराना, मेरठ, बुलन्दशहर, गाजियाबाद, आगरा, मुरादाबाद, अलीगढ़, सहारनपुर, गौतमबुद्धनगर के अलावा संभल से गठबंधन को वोटों का लाभ मिल सकता है।

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लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की रणनीति ऐसे उम्मीदवारों को उतारने की है जो भाजपा के सवर्ण वोट बैंक को अपने पाले मे कर सके। जबकि सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के ओबीसी वोटों को अपने पाले में करने के लिए भाजपा ने सहयोगी दलों को निगमों और बोर्डों के अध्यक्ष पदों से नवाज कर लोकसभा चुनाव के ठीक पहले समाज के इस वर्ग को एक बेहतर संदेश देने का काम किया है।पिछले लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 सीटों में से भाजपा गठबंधन को 73 सीटें मिली थीं। सपा को पांच और कांग्रेस के खाते में दो सीट गई थी। जबकि बसपा का खाता भी नहीं खुला था। रणनीति के तहत ही सपा-बसपा अपने प्रत्याशियों की घोषणा में जल्दबाजी नहीं कर रही है। ‘पहले आप पहले आप’ की तर्ज पर सपा ने फिलहाल विश्वसनीय सीटों पर ही प्रत्याशियों के नामों का एलान किया है। उसे डर है कि चुनावी महाभारत में टिकट न मिलने पर उसके महारथी पाला बदल सकते हैं। यही हाल कमोबेश बसपा का भी है जबकि कांग्रेस ने अपने पुराने योद्धाओं पर ही विश्वास जताया है।

उपचुनावों विजय से मिली ताकत

प्रदेश में योगी सरकार के गठन के बाद हुए तीन उपचुनाव के बाद से सपा बसपा गठबंधन को लग रहा है कि उनकी यह रणनीति इस लोकसभा चुनाव में बेहद काम आने वाली है। यदि 2014 के लोकसभा चुनाव परिणाम पर गौर करें तो फूलपुर में सपा-बसपा और रालोद को 3,58,966 मत मिले थे जो 2018 के उपचुनाव में 3,42,922 हो गए।जबकि 2014 में यह सीट जीतने वाली भाजपा को तब 5,03,564 मत मिले थे जो 2018 के उपचुनाव में घटकर 2,63,462 पर सिमट गए।

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इसी तरह विपक्ष के इन तीन दलों को गोरखपुर में 2014 के चुनाव में 402756 मत मिले जो 2018 के उपचुनाव में बढक़र 456513 हो गए। वहीं भाजपा ने आम चुनाव में मोदी लहर का लाभ उठाते हुए 5,39,137 मत हासिल किए थे जो 2018 में केन्द्र और प्रदेश सरकार में सत्तासीन होने के बावजूद 4,34,632 पर सिमट गए। इसी तरह एक और उपचुनाव कैराना का हुआ जिसमें महागठबंधन ने 2014 में 4,89,275 वोट पाए थे और फिर उपचुनाव में तीनों दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा और इस सीट पर 4,81,182 मत पाकर यह सीट जीत ली। जबकि भाजपा के स्व.हुकुम सिंह ने 2014 में 5,65,071 मत पाकर सीट जीती थी मगर उपचुनाव में उनकी पुत्री मृगांका सिंह को सहानुभूमि लहर का लाभ नहीं मिल पाया और उन्हें 4,36,564 मतों से ही संतोष करना पड़ा।

कई मंत्रियों को उतार सकती है भाजपा

भाजपा की रणनीति का एक हिस्सा योगी सरकार में शामिल कुछ मंत्रियों को लोकसभा चुनाव में उतारने की है। फिरोजाबाद से पिछला चुनाव सपा नेता प्रो.रामगोपाल यादव के पुत्र अक्षय यादव से हार चुके कैबिनेट मंत्री एसपी सिंह बघेल को फिर से चुनाव मैदान में उतारने की तैयारी है। वहीं उन्नाव से बृजेश पाठक, कानुपर से सतीश महाना, इलाहाबाद से सिद्धार्थनाथ सिंह अथवा डा.रीता बहुगुणा जोशी, आजमगढ़ से दारा सिंह चौहान, मैनपुरी से स्वामी प्रसाद मौर्या की पुत्री संघमित्र मौर्या, मथुरा से श्रीकांत शर्मा, मुरादाबाद से चेतन चौहान को चुनाव लड़ाया जा सकता है।

कमियों बनाम उपलब्धियों की लड़ाई

चुनावी समर में जहां विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ उनकी पांच साल की कमियों को गिनाने का काम करेगा वहीं भाजपा मोदी सरकार की उपलब्ध्यिों को बताने में कोई कोर कसर नहीं छोड़ेगी। अगले साठ दिनों में एयर स्ट्राइक,किसानों की आय, राममंदिर, आरक्षण, बेरोजगारी, गंगा की सफाई और न जाने कितने मुद्दे चुनावी समर के केन्द्र में होंगे। इन तमाम बातों के बीच प्रदेश के 14 करोड़ 40 लाख मतदाता यह फैसला लेंगे कि वे किसके साथ हैं।

सपा का 2004 व बसपा का 2009 में बेहतर प्रदर्शन

यदि पिछले लोकसभा चुनावों की बात की जाए तो बसपा को सबसे ज्यादा सीटें 2009 के लोकसभा चुनाव में मिली थीं। उस चुनाव में बसपा को 27.20 फीसदी वोटों के साथ 20 सीटें मिली थीं। यह बसपा की राजनीति में सबसे बेहतर परिणाम था। वहीं सपा को 23.26 फीसदी वोटों के साथ 23 सीटें और कांग्रेस 11. 65 फीसदी वोटों के साथ 21 सीटें जीतने में सफल रही थी। जबकि रालोद को पांच सीटें मिली थीं। सपा के सबसे ज्यादा सांसद 2004 के लोकसभा चुनाव में जीतकर संसद पहुंचे थे। सपा को उस चुनाव में 26.74 फीसदी वोट के साथ 35 सीटें, बसपा को 24.67 फीसदी वोट के साथ 19 सीटें और कांग्रेस को 12.04 फीसदी वोट के साथ 9 सीटें मिली थीं। जबकि 2014 के चुनाव में सपा को 22.35 प्रतिशत तथा बसपा को 19.77 प्रतिशत और कांग्रेस को 7.3 मत हासिल हुए थे। सपा-बसपा-रालोद का एक हिस्सा रालोद भी 0.86 मत पाया था। वहीं भाजपा ने 42.63 प्रतिशत हथियाकर 71 सीटें हासिल की थीं।

भाजपा में कटेंगे कई सांसदों के टिकट

लोकसभा चुनाव में प्रत्याशियों को लेकर लोगों के मन में जिज्ञासाएं उफान पर हैं। जहां तक भाजपा की बात है तो पार्टी गुजरात फार्मूले पर कई सांसदों के टिकट काटने के मूड में दिख रही है। उम्रदराज सांसदों के टिकट बदले जाने के साथ ही बेहतर परफॉर्म न करने वाले सांसदों के टिकट काटने में हाईकमान कोई गुरेज करने के मूड में नहीं दिख रहा है। चर्चा है कि चौ.बाबूलाल (फतेहपुर सीकरी), देवेन्द्र सिंह भोले (अकबरपुर), डा.मुरली मनोहर जोशी (कानपुर), ब्रजभूषण सिंह (कैसरगंज), रेखा वर्मा (धौरहरा),राजेश पाण्डेय (कुशीनगर),संजीव बालियान (मुजफ्फरनगर),राजेश वर्मा (सीतापुर), उमाभारती (झांसी),कलराज मिश्र (देवरिया), हरीश द्विवेदी(बस्ती),नैपाल सिंह (रामपुर),साक्षी महाराज (उन्नाव), भैरव प्रसाद मिश्र (बांदा),श्यामाचरण गुप्ता (इलाहाबाद), शरद त्रिपाठी (संतकबीर नगर), निरजंन ज्योति (फतेहपुर), अशोक दोहरे (इटावा), प्रियंका रावत (बाराबंकी), हरिनारायण राजभर (घोसी)तथा रामशंकर कठेरिया के टिकट कट सकते हैं।

कैराना में पार्टी के कद्दावर नेता रहे हुकुम सिंह के निधन के बाद हुए चुनाव में यह सीट गंवाने के बाद पार्टी अब उनकी बेटी मृगांका सिंह पर एक बार फिर दांव लगाने के मूड में नहीं दिख रही है। वहीं गोरखपुर (पूर्व सांसद योगी आदित्यनाथ) फूलपुर(पूर्व सांसद केशव प्रसाद मौर्या) के सरकार में शामिल होने के कारण नए प्रत्याशियों पर दांव लगाना बेहद चुनौतीपूर्ण काम होगा। वहीं निवर्तमान सांसदों राघव लखनपाल (सहारनपुर),भरत सिंह (बलिया),संतोष गंगवार (बरेली), कीर्तिवर्धन सिंह (गोंडा), मेनका गांधी (पीलीभीत), कृष्णा राज (शाहजहांपुर),कौशल किशोर (मोहनलालगंज), लल्लू सिंह (फैजाबाद), कमलेश पासवान (बांसगांव), पंकज चौधरी (महराजगंज),मनोज सिन्हा (गाजीपुर) महेश शर्मा (गौतमबुद्धनगर),महेन्द्र नाथ पांडेय (चंदौली) का टिकट पक्का माना जा रहा है। कांग्रेस को पुराने चेहरों व दलबदलुओं पर भरोसा कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों के लिए दूसरी सूची में यूपी के 16 प्रत्याशियों के नामों की घोषित किए है। पार्टी ने पुराने चेहरों और दलबदलुओं को पर दांव लगाया है।

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प्रदेश अध्यक्ष राजबब्बर को पार्टी ने मुरादाबाद से उतारा है। इससे पहले वह फिरोजाबाद से भी सांसद रह चुके हैं। पिछले चुनाव में कांग्रेस ने मुरादाबाद सीट पर मो. अजहरूददीन की जगह बेगम नूरबानो को उतारा था, लेकिन उन्हे भाजपा के कुंवर सर्वेश सिंह के हाथों हार मिली थी। कांग्रेस ने सुल्तानपुर से डा.संजय सिंह को व कानपुर से पूर्व केन्द्रीय मंत्री श्रीप्रकाश जायसवाल को उतारा है। इसके अलावा कांग्रेस ने दलबदलुओं को टिकट देने में कोताही नहीं बरती है। भाजपा का दामन छोडऩे वाली सावित्री बाई फूले को बहराइच से टिकट दिया गया है। सपा से कांग्रेस में आए राकेश सचान को फतेहपुर से प्रत्याशी बनाया गया है। 2009 में राकेश सचान सपा से सांसद रह चुके हैं। बसपा की पूर्व सांसद कैसर जहां को सीतापुर से प्रत्याशी बनाया गया है।

नगीना (सु) से मायावती के चुनाव लडऩे की संभावना को देखते हुए दलित ओमवती देवी जाटव को कांग्रेस ने उतारकर बड़ा दांव खेला है। सपा की पूर्व सांसद ओमवती सेवानिवृत्त प्रशासनिक अधिकारी आरके सिंह की पत्नी है। खीरी से जफर अली नकवी को फिर उतारा गया है। वह 2009 में इस सीट से सांसद रह चुके है। मिश्रिख (सु) मंजरी राही को उतारा गया है। मंजरी पूर्व केन्द्रीय मंत्री रामलाल राही की पुत्रवधू है। मोहनलालगंज (सु) से रमाशंकर को उतारा गया है। प्रतापगढ़ से पूर्व सांसद रत्ना सिंह, संतकबीर नगर से परवेज खान, बांसगांव (सु) से कुश सौरभ, लालगंज (सु) पंकज मोहन सोनकर, मिर्जापुर से ललितेश त्रिपाठी को टिकट दिया गया है। ललितेश पूर्व केन्द्रीय मंत्री स्व.पं.कमलापति त्रिपाठी के प्रपौत्र हैं। राबट्र्सगंज (सु) से भगवती प्रसाद चौधरी को प्रत्याशी बनाया गया है। रमाशंकर भार्गव सपा से कांग्रेस में आए है।

जातिवाद सब पर भारी

चुनावों में जातिवाद को निर्णायक फैक्टर माना जा सकता है। समाज का बहुत बड़ा तबका ज्वलंत मुद्दों, सत्तारूढ़ दल की उपलब्धियों और कमियों को दरकिनार कर जातिगत आधार पर अपना प्रतिनिधि चुनता है। इसीलिए जाति का फैक्टर सब दलों में बहुत मायने रखता है। जाति की राजनीति के अतीत को देखें तो पता चलता है कि बसपा संस्थापक स्व.कांशीराम ने बामसेफ के जरिये दलित उभार की कोशिश की थी। अकले दलित उभार के राजनीतिक इस्तेमाल के प्रयोग के बावजूद जब बसपा का उत्तर प्रदेश विधानसभा में सीटों का आंकड़ा 60-65 से ऊपर नहीं पहुंच पाया तो पार्टी ने कांग्रेस की राह पर आगे बढ़ते हुए 1993 के चुनाव में पहली बार कुछ ब्राह्मणों को भी उम्मीदवार बनाया।

कांशीराम के इस प्रयोग को मायावती ने आगे बढ़ाया और 2007 के चुनाव से पहले उन्होंने बसपा के बैनर तले जातियों के सम्मेलन शुरू किए। इससे पहले राजनीतिक दल पार्टियों के नाम पर तो जातियों की जुटान करते थे लेकिन जातियों के नाम पर राजनीतिक जुटान का कोई उदाहरण नहीं याद आता। इसकी शुरुआत बसपा व मायावती के खाते में ही जाती है। सिर्फ कांशीराम ही नहीं, राममंदिर आंदोलन के कारण 1990 में जब जनता दल व भाजपा का गठजोड़ टूटा, जनता दल में नेतृत्व का संघर्ष शुरू हुआ तो मुलायम सिंह यादव ने भी अपनी राजनीतिक ताकत को बढ़ाने के लिए मुस्लिम हितैषी के साथ-साथ यादव नेता के रंग को भी अपने ऊपर चढ़ाने की कोशिश की। वर्ष 1993 में अलग-अलग जातियों के समीकरण से मुलायम व कांशीराम की विधानसभा चुनाव मैदान में सफलता हासिल करना और मिलकर यूपी की सत्ता पर कब्जा करना भी जातीय राजनीति की ताकत की पुष्टि करता है।

भाजपा ने भी खेला जातीय दांव

इधर एक बार फिर लोकसभा चुनाव के पहले भाजपा यादवों को अपने पाले में लाने की उधेड़बुन में लग गई है। अतिपिछड़ों के साथ पिछड़ों में यादवों को रिझाने की गरज से संगठन में कुछ लोगों को अहम जिम्मेदारी देने और यादवों का सम्मेलन आयोजित कर भाजपा का प्रयास यह साबित करने का है कि यादवों पर केवल सपा का ही एकाधिकार नहीं है। इसीलिए उसने यादवों का सम्मेलन आयोजित कर सपा की नींदहराम कर दी। सत्तारूढ़ भाजपा ने पिछले दिनों पिछड़ों-दलितों को साथ लाने की गरज से नाइयों, हलवाई, कश्यप, लोधी, चौरसिया समाज के सम्मेलन आयोजित किए। पार्टी ने इसके अलावा यादवों और जायसवाल समाज का सम्मेलन आयोजित कर एक बड़ा दांव खेला।

चुनावी समर में एससी-एसटी एक्ट में संशोधन से नाराज सामान्य वर्ग के लिए दस फीसदी आरक्षण की व्यवस्था केंद्र सरकार ने की। भाजपा इसे एक उपलब्धि के तौर पर जनता के बीच रखने का काम करेगी। भाजपा की कोशिश होगी इसके सहारे सवर्ण वोटरों को अपने पाले में कैसे किया जाए। एससी-एसटी एक्ट में मुकदमा दर्ज होते ही गिरफ्तारी पर रोक लगाने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले के बाद सरकार ने एक्ट में संशोधन कर दिया था। भाजपा ने इससे यह संदेश देने की कोशिश की कि वह दलितों की हिमायती है।विश्वविद्यालयों में नौकरी के लिए आए 13 पॉइंट रोस्टर पर बढ़ती नाराजगी को देखते हुए केंद्र सरकार ने इसे वापस ले लिया और फिर से 200 पॉइंट रोस्टर लागू कर दिया। इससे भाजपा ने विपक्ष के हाथ आते इस मुद्दे को खत्म कर दिया।

सपा-बसपा को सता रहा बगावत का डर

वहीं सपा-बसपा-रालोद गठबंधन के बीच सीटों के बंटवारे के बाद अब इन दलों के लिए सबसे बड़ी समस्या पिछले चुनाव में हारे पार्टी के प्रत्याशी को लेकर है क्योंकि दोनों ही दलों में कई प्रत्याशी ऐसे हैं जो 2014 के चुनाव में दूसरे अथवा तीसरे नम्बर पर रहे थे, लेकिन गठबंधन के चलते वह सीट दूसरी पार्टी के हिस्से में चले जाने से उनके मन में विद्रोह का भाव पैदा हो सकता है। पिछले लोकसभा चुनाव में बसपा 34 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही थी। वहीं सपा 31 सीटों पर दूसरे और पांच सीटों पर पहले नंबर की पार्टी बनी थी। दो उपचुनावों फूलपुर और गोरखपुर में भी सपा जीती। इस लिहाज से सपा 38 सीटों पर भारी थी, लेकिन सीट बंटवारे में उसे एक सीट कम मिली है तो बसपा को पिछले प्रदर्शन के मुकाबले चार सीट ज्यादा मिली है।

पिछले चुनाव नतीजों में 13 सीटें ऐसी हैं जहां बसपा पहले या दूसरे स्थान पर नहीं थी, लेकिन उसे वह सीटें मिली हैं। ये सीटें सहारनपुर, बिजनौर, नगीना, अमरोहा, मेरठ, गौतमबुद्ध नगर, आंवला, फर्रुखाबाद, हमीरपुर, कैसरगंज, श्रावस्ती, बस्ती तथा लालगंज हैं। अब यहां पर पिछले चुनाव में हारे प्रत्याशियों को संभालना एक बड़ी चुनौती होगी। सपा को 15 ऐसी सीटें मिली हैं जहां वह पहले या दूसरे स्थान पर नहीं थी। ये सीटें हैं कैराना, गाजियाबाद, हाथरस, खीरी, हरदोई, लखनऊ, कानपुर, बांदा, फूलपुर, फैजाबाद, कौशांबी, महाराजगंज, चंदौली, मिर्जापुर, राबट्र्सगंज। ऐसी सीटों पर बसपा के पिछले चुनाव में हारे प्रत्याशियों का मन जरूर इस बार आहत होगा।

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