Joshimath Sinking Video: 84 साल पहले ही जोशीमठ के बारे में दी गई थी चेतावनी

Video Joshimath Sinking Warning Bell: 1939 के दौर में कुछ विदेशी वैज्ञानिकों ने यह बताया था कि जोशीमठ एक ऐसी पहाड़ी पर बसाया जा रहा है जो भूस्खलन के लिहाज़ से अति संवेदनशील है।

Report :  Yogesh Mishra
Update:2023-01-14 14:26 IST

Joshimath Sinking Video: जोशीमठ तेजी से डूब रहा है। पर यह अचानक नहीं है। इस संभावित तबाही की चेतावनी कई दशकों पहले आई थी। 1939 के दौर में कुछ विदेशी वैज्ञानिकों ने यह बताया था कि जोशीमठ एक ऐसी पहाड़ी पर बसाया जा रहा है जो भूस्खलन के लिहाज़ से अति संवेदनशील है। पूरा जोशीमठ शहर एक अति प्राचीन भूस्खलन जोखिम वाले ढलान पर बनाया गया है। जोशीमठ में 60 से 70 डिग्री का ढलान है। यह चेतावनी दी गई थी कि ढलान के तल पर खुदाई एक बड़ी तबाही होगी।तब भी तपोवन विष्णुगढ़ जल विद्युत परियोजना को यहाँ मंज़ूरी दी गयी। इसी परियोजना की टनल यानी सुरंग के कारण जोशीमठ में जमीन धंस रही है।

इतने भूकंपीय क्षेत्र में स्थित है जोशीमठ

जोशीमठ भूकंपीय क्षेत्र पांच में स्थित है । दो क्षेत्रीय दबावों से घिरा है। उत्तर में वैकृता और दक्षिण में मुनस्यारी। 1991 और 1999 के भूकंपों ने साबित कर दिया था कि यह क्षेत्र भूकंप के लिए अतिसंवेदनशील है। ये सभी तथ्य रेखांकित करते हैं कि जोशीमठ की नींव हमेशा से बहुत कमजोर रही है। चिंता की बात यह है कि जोशीमठ , बद्रीनाथ और केदारनाथ का प्रवेश द्वार कहा जाता है। पर फिर भी विकास के दावों के चलते इन सब की अनदेखी की गई।

उत्तराखंड के पहाड़ी कस्बों में जमीन धंसने या डूबने के मामले लगातार बढ़ रहे हैं। जोशीमठ की घटनाओं के बाद कर्णप्रयाग में भी इसी तरह के मामले सामने आने से लोग बुरी तरह डरे हुए हैं।

1985 में पद्म भूषण चंडी प्रसाद भट्ट, फिजिकल रिसर्च लेबोरेटरी, अहमदाबाद के पूर्व वैज्ञानिक डॉ. नवीन जुयाल और एचएआरसी नामक एक एनजीओ के संस्थापक एमएस कुंवर ने "विष्णु प्रयाग प्रोजेक्ट: ए रिस्की वेंचर इन हायर हिमालया" नाम से एक लेख लिखा था। प्रसिद्ध पर्यावरणविद प्रोफेसर जेएस सिंह द्वारा संपादित एक पुस्तक में प्रकाशित इस निबंध में उल्लेख किया गया है कि कैसे जोशीमठ के तथाकथित विकास के लिए सड़कों और घरों के निर्माण सहित बुनियादी ढांचे के विकास के दौरान, डायनामाइट का उपयोग करके भारी मात्रा में मिट्टी और बोल्डर हटा दिए गए। सत्तर के दशक में निर्माण में इस्तेमाल होने वाली लकड़ी के लिए भी जंगल साफ कर दिए गए। अनियमित जल निकासी ने ढलान को कटाव के प्रति संवेदनशील बना दिया। नतीजतन, शहर के कई हिस्से डूब गए थे।

जोशीमठ क्यों डूब रहा है इसे पता करने के लिए 1976 में बनी मिश्रा समिति के कुछ सुझाओं पर भी आज गौर करना ज़रूरी हो जाता है -

  • इन सुझावों में कहा गया था कि स्लिप जोन में कोई नया निर्माण नहीं किया जाना चाहिए। साइट की स्थिरता का आकलन हो जाने के बाद ही निर्माण की अनुमति दी जानी चाहिए। घरों के निर्माण के लिए ढलानों की खुदाई, उनकी पिचिंग, जल निकासी और उचित मलबा निपटान, सभी कुछ प्रतिबंधों के अधीन होना चाहिए।
  • भूस्खलन जोखिम वाले स्थलों के भीतर कोई भी पेड़ नहीं काटा जाना चाहिए। न ही सड़कों की मरम्मत या किसी अन्य निर्माण गतिविधि को करने के लिए खुदाई या विस्फोट से पत्थरों को हटाया जाना चाहिए।
  • हाल की घटना के दौरान सबसे अधिक प्रभावित मारवारी और जोशीमठ रिजर्व फॉरेस्ट के नीचे और छावनी के बीच के क्षेत्र में व्यापक रोपण किया जाना चाहिए। ढलानों पर जो भी दरारें बढ़ी हैं उन्हें भरने की जरूरत है।
  • तलहटी पर लटके या पड़े हुए शिलाखंडों को उनकी वर्तमान स्थिति में छोड़े जाने के बजाय उचित रूप से सहारा देना चाहिए। इस बात पर भी प्रकाश डाला गया कि जोशीमठ बस्ती के 3 से 5 किलोमीटर के दायरे में निर्माण सामग्री एकत्र करने पर पूर्ण प्रतिबंध होना चाहिए।
  • जोशीमठ बाईपास को दुर्भाग्यपूर्ण करार दिया गया था । क्योंकि इसका निर्माण जोशीमठ भूस्खलन के पास किया गया था। यह बाईपास हेलोंग और मारवारी को सीधे जोड़ता है।

वैज्ञानिकों ने पहले ही किया था आगाह

कई अन्य वैज्ञानिकों ने भी बताया है कि हिमालय में ऊंचे क्षेत्रों में जलविद्युत परियोजनाएं निर्माण के लिए उपयुक्त नहीं हैं। सुझाव दिया गया कि बिजली पैदा करने के लिए उपयुक्त स्थानों पर छोटी परियोजनाएँ बनाई जानी चाहिए। दिवंगत पद्म विभूषण प्रोफेसर केएस वल्दिया ने अपने शोध प्रकाशनों के माध्यम से नीति निर्माताओं को आगाह किया था । कहा था कि हिमालय की ढलानों पर काम करते समय अत्यधिक सावधानी बरतनी चाहिए । क्योंकि ढलानें नाजुक होती हैं।

एक्सपर्ट्स ने चिंता जताई है कि उत्तराखंड बनने के बाद अलकनंदा नदी के किनारे निर्माण क्षेत्र में काफी वृद्धि हुई है। श्रीनगर, देवप्रयाग, रुद्रप्रयाग, कर्णप्रयाग, नंदप्रयाग और जोशीमठ के आसपास के क्षेत्रों में निर्माण में भारी उछाल आया है। पहले इन कस्बों में सुरक्षित आवास ढलान हमेशा कम और दूर-दूर थे। अधिकांश गाँव और छोटी बस्तियाँ भूस्खलन-प्रवण क्षेत्र पर स्थित हैं। स्थिति यह है कि उत्तराखंड में और भी कई जोशीमठ होने का इंतजार है।

जोशीमठ ही नहीं, कर्णप्रयाग में 50 से अधिक घरों में दरारें आ गई हैं। यहां भी 'लैंड सिंकिंग' की घटनाएं सामने आई हैं। कर्णप्रयाग के बहुगुणानगर, सीएमपी बैंड और सब्जी मंडी के ऊपरी हिस्से में रहने वाले 50 से अधिक परिवार दहशत में हैं। यहां घरों की दीवारों और आंगनों में दरारें और घरों की लटकती छत आपदा की पीड़ा कह रही है।

वैज्ञानिकों की टीम ने जोशीमठ के मनोहर बाग, सिंगधार, जेपी, मारवाड़ी, सुनील गांव, विष्णु प्रयाग, रविग्राम, गांधीनगर आदि प्रभावित क्षेत्रों में घर-घर जाकर सर्वे किया है। उन्होंने तपोवन का भी दौरा किया है। एनटीपीसी सुरंग के अंदर और बाहर किए जा रहे कार्यों का जायजा लिया है। लगभग 50,000 की आबादी के साथ, कर्णप्रयाग समुद्र तल से 860 मीटर की ऊंचाई पर है, जबकि जोशीमठ 1,890 मीटर की ऊंचाई पर है। कर्णप्रयाग जोशीमठ से 80 किमी की दूरी है।

केंद्र सरकार ने जोशीमठ में भू-धंसाव का तेजी से अध्ययन करने के लिए एक पैनल का गठन कर दिया है। पैनल में पर्यावरण और वन मंत्रालय, केंद्रीय जल आयोग, भारतीय भूवैज्ञानिक सर्वेक्षण और स्वच्छ गंगा के लिए राष्ट्रीय मिशन के प्रतिनिधि शामिल हैं। ये पैनल स्थिति का अध्ययन करके अपनी रिपोर्ट देगा कि धंसाव क्यों हो रहा है।

उत्तराखंड के चमोली जिले में लगभग 25,000 लोग जोशीमठ में लोग गुस्साए हुए हैं। सड़कों पर प्रदर्शन कर रहे हैं। वजह है इस इलाके की जमीन का लगातार धँसते जाना। लोग सुरक्षा के साथ साथ निर्माण प्रोजेट्स बन्द करने की मांग कर रहे हैं।

लोग सड़कों पर हैं। और ज़िला प्रशासन उन्हें मनाने की लगातार कोशिश कर रहा है। लोगों की सिर्फ़ इतनी सी डिमांड है कि ज़िला प्रशासन उन्हें लिख कर के दे दें कि यह जो सुरंग बन रही है, यह जो टनल बन रही है।और यह जो विद्युत निर्माण के लिए नये ढंग की परियोजना पर काम हो रहा है। उसे बंद करने का लिखित आश्वासन दे दें। परंतु ज़िला प्रशासन लिखित तौर पर यह देने को तैयार नहीं है। इसी से ज़िला प्रशासन और सरकार की मंशा को समझा जा सकता है। इसी से समझा जा सकता है कि यह लोग जोशीमठ की आपदा को हल करने के लिए कितने संवेदनशील हैं। अब तो जोशीमठ , कर्ण प्रयाग और आस पास के लोगों को अपनी दिक़्क़तों के लिए खुद उतर कर के ज़मीन पर लड़ाई लड़नी होगी। देखते हैं उनकी लड़ाई में कितने लोग काम आते हैं। 

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