अमेरिका में ट्रम्प और बिडेन की टक्कर- न तुम जीते, न हम हारे
अमेरिकी चुनाव अब अदालतों में लड़ा जाएगा। बीस साल पहले भी ऐसी ही कांटे की टक्कर सुप्रीम कोर्ट तक पहुँची थी और पांच हफ़्तों की अदालती लड़ाई के बाद जॉर्ज बुश विजय घोषित हुए और अल गोर हार गए थे।
नील मणि लाल
अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव् का नतीजा चाहे जो आये लेकिन इस चुनाव ने कई बातें साबित कर दीं हैं। सबसे बड़ी बात तो ये कि डोनाल्ड ट्रम्प को अमेरिकी नागरिकों ने कतई खारिज नहीं किया है। बल्कि वे और भी लोकप्रिय नेता साबित हुए हैं। दूसरी बात ये भी साबित हुई कि कि सोशलिज्म के दखल के बावजूद अमेरिका अब भी पूंजीवादी और दक्षिणपंथी देश है। तीसरी बात ये कि अमेरिका के बहुत से लोग कोरोना से ज्यादा आर्थिक दुश्वारियों से परेशान हैं और उनके लिए काम धंधा-रोजगार और आर्थिक उन्नति ज्यादा महत्वपूर्ण है।
इस बार का मतदान सिस्टम भी जिम्मेदार
अमेरिकी चुनाव अब अदालतों में लड़ा जाएगा। बीस साल पहले भी ऐसी ही कांटे की टक्कर सुप्रीम कोर्ट तक पहुँची थी और पांच हफ़्तों की अदालती लड़ाई के बाद जॉर्ज बुश विजय घोषित हुए और अल गोर हार गए थे। ये तो समय बताएगा कि बिडेन और ट्रम्प के बारे में अदालतें क्या फैसला करतीं हैं लेकिन इतना जरूर है कि डोनाल्ड ट्रम्प की लोकप्रियता के बारे में देश-दुनिया में जो दावे किये जा रहे थे उसको बिडेन की उपस्थिति ने कुछ पलीता तो लगाया ही है। किसी को ये उम्मीद नहीं थी कि बिडेन इतनी करीबी टक्कर दे पाएंगे। वैसे इस स्थिति के लिए इस बार का मतदान सिस्टम भी जिम्मेदार है।
ट्रम्प की लोकप्रियता
राष्ट्रपति चुनाव की शुरुआत से ही डेमोक्रेटिक खेमे और मीडिया के एक बहुत बड़े वर्ग द्वारा ऐसा बखान किया जा रहा था मानो अमेरिकी जनता डोनाल्ड ट्रम्प और उनके प्रशासन से बुरी तरह ऊब चुकी है और इस बार डेमोक्रेट्स पूरा मैदान भारी बहुमत से मार लेगा। लेकिन ये सब गलत साबित हुआ है। नतीजों में निकल कर आया है कि बड़ा जनसमूह डोनाल्ड ट्रम्प को पसंद करता है और यही वजह है कि उनको करीब 50 फीसदी पॉपुलर वोट मिले हैं। ट्रम्प को 2016 में जितने पॉपुलर वोट मिले थे उससे कहीं ज्यादा इस बार मिले हैं।
भारतवंशियों का सपोर्ट भी पिछली बार के 18 फीसदी से बढ़ कर इस बार 30 फीसदी तक पहुंच गया। अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव कुछ अजीब तरीके से भी होता है जिसमें ज्यादा ‘पॉपुलर वोट’ पाने वाला भी हार जाता है। पिछली बार हिलरी क्लिंटन के साथ भी ऐसा ही हुआ था। हिलरी को ट्रम्प के मुकाबले 29 लाख ज्यादा पॉपुलर वोट मिले थे लेकिन फिर भी वो हार गयीं।
डोनाल्ड ट्रम्प ने दिखा दिया
बहरहाल, डोनाल्ड ट्रम्प ने दिखा दिया है कि वो आज भी उतने ही लोकप्रिय हैं जितना चार साल पहले थे। 2020 के चुनाव में ट्रम्प ने उन सभी राज्यों पर कब्जा बरकरार रखा है जो 2016 में उनके पक्ष में गए थे। इससे साबित होता है कि वो सब दावे और प्रचार झूठे साबित हुए जिनमें ये कहा जा रहा था कि पूरे अमेरिका में लोग ट्रम्प को नापसंद करते हैं और उनकी लोकप्रियता सबसे निचले स्तर पर पहुँच गयी है। नतीजों में इतना करीबी मामला हों ये बता रहा है कि अमेरिका का एक ख़ास वर्ग-श्वेत, कामगार, व्यापारी और वृद्ध-ट्रम्प के पक्ष में है।
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इकॉनमी की फ़िक्र ज्यादा
चुनावी नतीजों से ये भी साबित हुआ है कि बहुत से लोग कोरोना से निपटने में ट्रम्प को असफल नहीं मानते हैं। अमेरिका के मीडिया द्वारा ये बताया जा रहा था कि पूरे देश के लोग ट्रम्प को कोरोना से निपटने में फेल मानते हैं। लेकिन ये प्रचार झूठा साबित हुआ। नतीजों के ट्रेंड से साफ़ हो गया कि अमेरिकी लोग चाहते हैं कि अर्थव्यवस्था जल्द से जल्द पटरी पर लौट आये, रोजगार और काम धंधा चलने लगे। कोरोना शायद उतना बड़ा मुद्दा नहीं रहा जितना बताया जा रहा था। कोरोना से पहले ट्रम्प का इकॉनमी से सम्बंधित रिकार्ड बहुत अच्छा रहा था और यह उनके पक्ष में गया है। लेकिन कोरोना ने अर्थव्यवस्था की छलांग को रोका दिया।
नहीं चाहिए दंगा फसाद
अमेरिका में अश्वेतों का विरोध प्रदर्शन ज्यादातर जगहों पर दंगे और फसाद में बदल गया। पुलिस पर हमले किये गए और पुलिस को फंडिंग न करने की मांग उठाई जाने लगी। अमेरिकी जनता को ये कतई पसंद नहीं आया है। काफी लोग इस मामले में ट्रम्प की नीतियों के समर्थन में आये हैं और ये मतदान के ट्रेंड से साफ़ झलकता है। लोग चाहते हैं कि विरोध अपनी जगह है लेकिन किसी तरह की अराजकता नहीं फैलनी चाहिए।
मामला अदालत की चौखट पर
अमेरिकी चुनाव के परिणाम कुछ ऐसी निकल के आ रहे हैं जिनसे साफ़ लगता है कि वहां लोग साफ़ साफ़ दो विचारधाराओं में बंटे हुए हैं। इस कारण कोई स्पष्ट विजेता नहीं है। जितने लोग बिडेन के समर्थन में उतने ही ट्रम्प के साथ खड़े हैं। एक मसला है चुनाव में धांधली का। कोरोनोवायरस महामारी की वजह से मतदान को सुरक्षित बनाने के तरीकों की तलाश की गयी और पाया गया कि लोग मतदान केंद्र में आये बगैर वोटिंग के अधिकार का इस्तेमाल करें।
पहले मतदान केंद्र में आये बगैर वोट डालने का अधिकार सैनिकों समेत कुछ ख़ास वर्गों को ही मिला हुआ था लेकिन राज्यों ने, खासकर जहाँ डेमोक्रेट शासन था, पोस्टल बैलट का दायरा बढ़ा कर आम जनता को भी इसमें शामिल कर लिया।
अब करोड़ों की संख्या में पोस्टल बैलट पड़े हैं। ट्रम्प ने शुरू से ही पोस्टल मतदान का विरोध किया था और इसमें डेमोक्रेट्स और अन्य विरोधियों की धांधली की पूरी गुंजाइश बताई थी। ट्रम्प अब पोस्टल बैलट की गिनती के खिलाफ अदालत की शरण में चले गए हैं। अनुपस्थित मतदान यानी अब्सेंटी बैलट के दायरे को बढ़ाने के खिलाफ डोनाल्ड ट्रम्प की रिपब्लिकन पार्टी और निजी तौर पर स्वयं ट्रम्प विभिन्न राज्यों की अदालतों में पहले ही केस दायर कर चुके हैं। एक बात ये भी जानना जरूरी है कि पोस्टल बैलट रिसीव करने की समय सीमा को लेकर भी विवाद है और कुछ राज्यों की अदालतों में इस बारे में भी केस चल रहे हैं।
महत्वपूर्ण है कि राज्य की अदालतों में चुनावी चुनौतियां कोई नयी बात नहीं है। ज्यादातर मामलों में ऐसे मुकदमे विफल हो जाते हैं हालांकि, एक महत्वपूर्ण अपवाद 2000 का चुनाव था जब फ्लोरिडा में दोषपूर्ण मतदान प्रक्रियाओं पर ढेरों मुकदमों और अदालती लड़ाई के बाद जॉर्ज डब्ल्यू बुश विजयी घोषित हुए थे और डेमोक्रेट प्रत्याशी अल गोर हार गए थे।
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40 से ज्यादा मुकदमे
चुनावी प्रक्रिया के खिलाफ रिपब्लिकन सदस्यों चुनाव से पहले ही 40 से ज्यादा मुकदमे ठोंके जा चुके हैं और ट्रम्प तर्क यह है कि महामारी के बीच मतदान को आसान और सुरक्षित बनाने का कोई भी उपाय असंवैधानिक है और उसमें धोखाधड़ी की पूरी गुंजाईश है। ट्रम्प और रिपब्लिकन्स के आरोप से साफ़ है कि उनकी रणनीति अंततः सर्वोच्च न्यायालय से रूलिंग लेने की है।
एक दूसरा तर्क जो कई बार सामने लाया गया है वह यह है कि आसान मतदान सुनिश्चित करने के तमाम फैसले राज्यों के गवर्नर जैसे अधिकारियों द्वारा किए गए हैं। जबकि ये फैसले राज्य विधानसभाओं द्वारा लिए जाने चाहिए थे। ये आरोप एक तर्कसंगत संवैधानिक चुनौती है। अब ऐसे मामलों में आम तौर सबसे आम परिदृश्य ये होता है कि वकील स्थानीय स्तर पर चुनाव प्रक्रिया को अदलत में चुनौती दे कर वोटों को खारिज करने की मांग करते हैं।
पेंसिल्वेनिया जैसे प्रमुख राज्य में, यही हुआ है। लेकिन मुकदमे के पक्ष में ढेर सारे सबूत भी देने होते हैं जिनसे ये साफ़ हो सके कि चुनाव में गड़बड़ी हुई थी। पेंसिल्वेनिया इस संबंध में पहले से ही सर्वोच्च न्यायालय के रडार पर है। इस राज्य के कोर्ट ने राज्य के अधिकारियों को चुनाव के तीन दिन बाद तक प्राप्त हुए पोस्टल बैलट गिनने का देश दिया था। इसके पीछे पेन्सिलवानिया के संविधान की व्याख्या की गयी थी। कोर्ट के आदेश के खिलाफ रिपब्लिकन्स ने अपील की हुई है। अमेरिका की सर्वोच्च अदालत ने चुनाव से पहले इस मामले की सुनवाई टाल दी थी।
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जॉर्ज बुश और अल गोर का मामला
इलेक्टोरल कॉलेज में जितना करीबी मुकाबला होता है उतना ही संकट बढ़ जाता है। 2000 के राष्ट्रपति चुनाव में यही हुआ था। उस साल रिपब्लिकन प्रत्याशी जॉर्ज डब्लू बुश को कुल 538 में से 271 इलेक्टोरल वोट मिले थे। फ्लोरिडा में बुश 500 से कम वोटों से ही जीत पाए। डेमोक्रेट प्रत्याशी अल गोर ने स्थानीय कोर्ट की शरण ली और दोबारा काउंटिंग शुरू करा दी। मामला सुप्रीम कोर्ट तक पहुँच गया और 35 दिन तक अदालती रस्सा कशी चलती रही। अंततः शीर्ष अदालत ने मतों की दुबारा गिनती को रोक दिया। इसके चलते बुश राष्ट्रपति बन गए थे। हालाँकि 2000 के चुनाव में अल गोर को बुश से कहीं ज्यादा पॉपुलर वोट मिले थे लेकिन इलेक्टोरल कॉलेज की वजह से वो हार गए।
बुश 1888 के बाद से पहले ऐसे रिपब्लिकन राष्ट्रपति थे जिन्होंने पॉपुलर वोट खोने के बावजूद जीत हासिल की थी।
बीते 28 साल में सभी बने हैं दोबारा प्रेसिडेंट
पिछले 28 साल में सभी प्रेसिडेंट दोबारा चुने गए हैं। इससे पहले आखिरी बार 1992 में जॉर्ज एचडब्ल्यू बुश दोबारा राष्ट्रपति बनने का चुनाव हारे थे। वहीं पिछले 100 साल की बात करें तो केवल चार राष्ट्रपति ऐसे रहे हैं जो राष्ट्रपति के तौर पर लगातार दूसरा कार्यकाल जीतने में नाकामयाब रहे हैं।
1992 के राष्ट्रपति चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रहे बुश की चुनाव से पहले अप्रूवल रेटिंग 89 प्रतिशत थी और उनका दोबारा राष्ट्रपति बनना लगभग तय माना जा रहा था। हालांकि डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार बिल क्लिंटन ने उनकी उम्मीदों को धाराशाई कर दिया और 43 प्रतिशत पॉपुलर वोट के साथ 370 इलेक्टोरल वोट जीतने में कामयाब रहे। बुश के खाते में मात्र 37.3 प्रतिशत वोट और 168 इलेक्टोरल वोट आए।
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1980 में जिमी कार्टर के हाथ लगी थी निराशा
बुश से पहले 1980 में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार जिमी कार्टर दोबारा व्हाइट पहुंचने में नाकाम रहे थे। उन्होंने रिपब्लिकन पार्टी के उम्मीदवार रोनाल्ड रीगन ने भारी अंतर से हराया था। 69 वर्षीय रीगन के खाते में 50.7 प्रतिशत वोट आए थे और वे तब पहली बार राष्ट्रपति बनने वाले सबसे उम्रदराज शख्स थे। उनके रिकॉर्ड को ट्रंप ने तोड़ा था।
1976 में कार्टर ने रोका था फोर्ड का रास्ता
1980 में खुद रीगन के हाथों हारने से पहले कार्टर ने 1976 में रिपब्लिकन पार्टी गैराल्ड फोर्ड के दोबारा राष्ट्रपति बनने के सपने को तोड़ा था। हालांकि फोर्ड राष्ट्रपति चुनाव पहली बार ही लड़ रहे थे और वह पहली बार वाटरगेट स्कैंडल में रिचर्ड निक्सन के इस्तीफे के बाद राष्ट्रपति बने थे। निक्सन ने 1974 में इस्तीफा दे दिया था और इसके बाद तब उपराष्ट्रपति रहे फोर्ड राष्ट्रपति बने थे।
1932 में रूजवेल्ट ने रोका था हर्बर्ट हूवर को
रिपब्लिकन पार्टी के हर्बर्ट हूवर पिछले 100 साल में राष्ट्रपति पद पर रहते हुए दोबारा चुनाव जीतने में असफल रहने वाले चौथे और अंतिम राष्ट्रपति हैं। उन्हें 1932 में डेमोक्रेटिक पार्टी के उम्मीदवार फ्रैंकलिन डी रूजवेल्ट ने हराया था। दुनियाभर में छाई महामंदी के बीच हुए इस चुनाव में रूजवेल्ट ने रिकॉर्ड जीत दर्ज की थी। इसके बाद 1936 और 1940 में भी वे राष्ट्रपति बने थे और तीन बार राष्ट्रपति बनने वाले एकमात्र अमेरिकी हैं।
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