खतरनाक देशों में शीर्ष पर भारतः नहीं थम रहे रेप, बढ़ रही दहशत

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों में बताया गया है कि वर्ष 2019 के दौरान देश में रोजाना औसतन 88 महिलाओं के साथ रेप की घटनाएं हुईं।

Update: 2020-10-10 10:15 GMT
खतरनाक देशों में शीर्ष पर भारतः नहीं थम रहे रेप, बढ़ रही दहशत (social media)

लखनऊ: तमाम कानूनों के बावजूद महिलाओं के खिलाफ हिंसा के बर्बर मामलों पर अंकुश नहीं लग पा रहा है। मुश्किल यह है कि सरकारें या पुलिस प्रशासन ऐसे मामलों में कभी अपनी खामी कबूल नहीं करते। इसके अलावा इन घटनाओं के बाद होने वाली राजनीति और लीपापोती की कोशिशों से भी समस्या की मूल वजह हाशिए पर चली जाती है। यही वजह है कि कुछ दिनों बाद सब कुछ जस का तस हो जाता है। वर्ष 2018 में हुए थॉम्पसन रॉयटर्स फाउंडेशन के सर्वेक्षण के मुताबिक, लैंगिक हिंसा के भारी खतरे की वजह से भारत पूरे विश्व में महिलाओं के लिए सबसे खतरनाक देशों के मामले में पहले स्थान पर था।

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भयावह आंकड़े

नेशनल क्राइम रिकार्ड्स ब्यूरो के आंकड़ों में बताया गया है कि वर्ष 2019 के दौरान देश में रोजाना औसतन 88 महिलाओं के साथ रेप की घटनाएं हुईं। इनमें से 11 फीसदी दलित समुदाय की थीं। लेकिन खासकर ग्रामीण इलाकों में सामाजिक वर्जनाओं के चलते अब भी ज्यादातर मामले पुलिस तक नहीं पहुंचते। इसे स्थानीय स्तर पर ही निपटा दिया जाता है। ऐसे में जमीनी आंकड़े भयावह हो सकते हैं। ऐसे मामलों को दबाने या लीपापोती की कोशिशों से अपराधियों का मनोबल बढ़ता है और वह दोबारा ऐसे अपराधों में जुट जाता है। ऐसा नहीं है कि सरकारों या पुलिस प्रशासन को ऐसे अपराधों की वजहों की जानकारी नहीं है लेकिन समाजशास्त्रियों का कहना है कि राजनीतिक संरक्षण, लचर न्याय व्यवस्था और कानूनी पेचीदगियों की वजह से एकाध हाई प्रोफाइल मामलों के अलावा ज्यादातर मामलों में अपराधियों को सजा नहीं मिलती।

17 साल में दोगुने हो गए मामले

दो साल पहले एनसीआरबी की रिपोर्ट में कहा गया था कि 2001 से 2017 के बीच यानी 17 वर्षो में देश में रेप के मामले दोगुने से भी ज्यादा बढ़ गए हैं। वर्ष 2001 में देश में जहां ऐसे 16,075 मामले दर्ज किए गए थे वहीं वर्ष 2017 में यह तादाद बढ़ कर 32,559 तक पहुंच गई। इस दौरान 4.15 लाख से भी ज्यादा मामले सामने आए। अगर इनमें उन मामलों को भी जोड़ लें तो विभिन्न वजहों से पुलिस के पास नहीं पहुंच सके तो तस्वीर की भयावहता का अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है। गैर-सरकारी संगठनों का दावा है कि देश में अब भी रेप के ज्यादातर मामले पुलिस तक नहीं पहुंचते।

वजहें कई हैं

अब तक इस मुद्दे पर हुए तमाम शोधों से साफ है कि बलात्कार के बढ़ते हुए इन मामलों के पीछे कई वजहें हैं। ढीली न्यायिक प्रणाली, कम सजा दर, महिला पुलिस की कमी, फास्ट ट्रैक अदालतों का अभाव और दोषियों को सजा नहीं मिल पाना जैसी वजहें इसमें शामिल हैं। इन सबके बीच महिलाओं के प्रति सामाजिक नजरिया भी एक अहम वजह है। समाज में मौजूदा दौर में भी लड़कियों को लड़कों से कम समझा जाता है। विशेषज्ञों का कहना है कि देश में रेप महज कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है। समाज में पुरुषों को ज्यादा अहमियत दी जाती है और महिलाओं को दोयम दर्जे का नागरिक माना जाता है।

भारत में रेप गैर-जमानती अपराध है लेकिन ज्यादातर मामलों में सबूतों के अभाव में अपराधियों को जमानत मिल जाती है। ऐसे अपराधियों को राजनेताओं, पुलिस का संरक्षण भी मिला रहता है। न्यायाधीशों की कमी के चलते मामले सुनवाई तक पहुंच ही नहीं पाते। ज्यादातर मामलों में सबूतों के अभाव में अपराधी बहुत आसानी से छूट जाते हैं। इसके अलावा आज भी ऐसे अपराधों के बाद पीड़िता की तरफ उंगली उठती हैं। इससे अपराधियों का मनोबल बढ़ता है।

rape (social media)

पुलिस भी कम दोषी नहीं

अपराधों को कम कर दिखाने की पुलिसिया प्रवृत्ति भी काफी हद तक ऐसे मामलों के लिए जिम्मेदार है। हर जगह पुलिस में जवानों और अधिकारियों की भारी कमी है। ऐसे में पुलिस किसी भी मामले की समुचित जांच नहीं कर पाती। नतीजतन सबूतों के अभाव में अपराधी बेदाग छूट जाते हैं। पुलिस सुधारों की बात तो हर राजनीतिक दल करता है, लेकिन उसे लागू करने की इच्छाशक्ति किसी ने नहीं दिखाई है। नतीजतन अंग्रेजों के जमाने के नियम-कानून अब भी लागू हैं।

अवैध गर्भपात की वजह से पुरुषों और महिलाओं की आबादी के अनुपात में बढ़ता अंतर भी ऐसे मामलों में वृद्धि की प्रमुख वजह है। देश में 112 लड़कों पर महज सौ लड़कियां हैं। ऐसे में हरियाणा में रेप के बढ़ते मामलों से हैरत नहीं होती जहाँ आबादी के अनुपात में अंतर सबसे ज्यादा है।

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विशेषज्ञों का कहना है कि महिलाओं के साथ होने वाले रेप या यौन उत्पीड़न के ज्यादातर मामलों में पड़ोसियों या रिश्तेदारों का ही हाथ होता है। समाजशास्त्रियों का कहना है कि निर्भया कांड के बाद कानूनों में संशोधन के बावजूद अगर ऐसे मामले लगातार बढ़ रहे हैं तो इसके तमाम पहलुओं पर दोबारा विचार करना जरूरी है। महज कड़े कानून बनाने का फायदा तब तक नहीं होगा जब तक राजनीतिक दलों, सरकारों और पुलिस में उसे लागू करने की इच्छाशक्ति नहीं हो। इसके साथ ही सामाजिक सोच में बदलाव भी जरूरी है।

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