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आंसुओ से चमकी किस्मत: राकेश टिकैत से पहले रोए ये दिग्गज, पलटी थी पूरी बाजी

लालकिले की घटना के बाद दम तोड़ रहे किसान आंदोलन को राकेश टिकैत के आंसुओं ने एक बार फिर जिंदा कर दिया है। अपने आंसुओं के दम पर ही राकेश टिकैत सारे अन्य नेताओं को दरकिनार कर किसान आंदोलन के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे हैं।

Shivani Awasthi
Published on: 2 Feb 2021 6:46 AM GMT
आंसुओ से चमकी किस्मत: राकेश टिकैत से पहले रोए ये दिग्गज, पलटी थी पूरी बाजी
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अंशुमान तिवारी

नई दिल्ली। गणतंत्र दिवस के दिन हुए उपद्रव और लालकिले की घटना के बाद दम तोड़ रहे किसान आंदोलन को राकेश टिकैत के आंसुओं ने एक बार फिर जिंदा कर दिया है। अपने आंसुओं के दम पर ही राकेश टिकैत सारे अन्य नेताओं को दरकिनार कर किसान आंदोलन के सबसे बड़े नेता बनकर उभरे हैं।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश ही नहीं बल्कि देश के अन्य हिस्सों में भी उनकी आंखों में आंसू देख कर तीखी प्रतिक्रिया हुई है और किसान आंदोलन पहले से भी ज्यादा धारदार हो गया है। इस प्रकरण से समझा जा सकता है कि आंसुओं में कितनी ताकत होती है।

राकेश टिकैत के आंसुओं ने दिखाया बड़ा असर

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लोगों को वैसे भी आंखों में आंसू देखना बर्दाश्त नहीं है। यही कारण है कि राकेश टिकैत की आंखों में आंसू देखने के बाद मुजफ्फरनगर में किसानों की बड़ी पंचायत हुई और आंदोलन को और तेज करने का फैसला किया गया।

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पंचायत में पुराने सारे मतभेदों को भुलाकर सभी से एक मंच पर एकजुट होने का आह्वान किया गया और किसान आंदोलन को और धारदार बनाने का फैसला किया गया। यह पहला मौका नहीं है जब आंसुओं ने बाजी पलट दी है बल्कि इसके पहले भी कई ऐसे मौके आए जब आंखों में आए आंसुओं ने हाथ से निकलती बाजी अप्रत्याशित रूप से पलट दी।

चरण सिंह को करना पड़ा था विरोध का सामना

पश्चिमी उत्तर प्रदेश के पुराने लोगों को आज भी 1985 में बागपत जिले की छपरौली विधानसभा सीट पर हुआ चुनाव याद है। इस चुनाव में पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दमदार नेताओं में गिने जाने वाले चौधरी चरण सिंह ने अपनी बेटी सरोज वर्मा को टिकट देकर चुनाव मैदान में उतारा था। चौधरी साहब को भी अपने ही लोगों के विरोध की उम्मीद नहीं थी मगर उनके ही लोगों ने चौधरी साहब पर वंश परंपरा को आगे बढ़ाने का आरोप लगाते हुए सरोज वर्मा का विरोध शुरू कर दिया था।

चौधरी साहब के आंसुओं से जीत गई बेटी

चौधरी साहब के अपने ही लोगों के विरोध के कारण उनकी बेटी सरोज वर्मा की सीट संकट में फंस गई। वैसे तो चौधरी साहब प्रचार के लिए नहीं आते थे मगर बेटी का मोह उन्हें चुनाव प्रचार के लिए खींच लाया। अपने ही लोगों की ओर से किए जा रहे विरोध को देखकर वे थाने के सामने भावुक होकर बैठ गए और उनकी आंखें भींग गईं।

इस नजारे ने बिजली जैसा असर दिखाया और सारे चौधरी इकट्ठा होकर एक-दूसरे से यही बात कहने लगे कि हमारा चौधरी तो रोने लगा। चौधरी साहब की आंखों में आए आंसओं ने बाजी पलट दी और सरोज वर्मा के खिलाफ काफी मजबूत स्थिति में दिख रहे सोमपाल शास्त्री मामूली अंतर से चुनाव हार गए।

हार के बाद बागपत बना चौधरी साहब का गढ़

इसी तरह का दूसरा प्रकरण भी चौधरी साहब से ही जुड़ा हुआ है। 1971 के लोकसभा चुनावों में चौधरी साहब पहली बार मुजफ्फरनगर संसदीय सीट से किस्मत आजमाने के लिए चुनाव मैदान में उतरे। इस चुनाव में सीपीआई के विजयपाल ने चौधरी साहब को कड़ी चुनौती दी जिसका नतीजा यह हुआ कि चौधरी साहब पचास हजार वोटों से चुनाव हार गए।

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अपने गढ़ में हुई इस हार से चौधरी साहब को काफी धक्का लगा और उनके समर्थक भी चौधरी साहब की हार पर रोने लगे। हालांकि इसके बाद चौधरी साहब ने कभी मुजफ्फरनगर से किस्मत नहीं आजमाई मगर इस हार का इतना असर हुआ कि पास की ही सीट बागपत पर चौधरी साहब का एकछत्र राज कायम हो गया।

अजित सिंह की हार पर खूब रोए समर्थक

बागपत चौधरी साहब की परंपरागत सीट बन गई थी और इसलिए 1998 में इस सीट से किस्मत आजमाने के लिए उनके बेटे अजित सिंह चुनाव मैदान में उतरे। उनके खिलाफ भाजपा ने बागपत से सोमपाल शास्त्री को चुनाव मैदान में उतारा।

सोमपाल शास्त्री ने पूरी दमदार से यह चुनाव लड़ा जिसका नतीजा यह हुआ कि चौधरी अजित सिंह करीब 44000 मतों से शास्त्री से चुनाव हार गए। इस हार की किसी को उम्मीद नहीं थी और इस अप्रत्याशित हार पर लोग खूब रोए। चौधरी साहब के बेटे की इस हार पर बागपत के कई घरों में चूल्हे तक नहीं जले।

फ़ाइल फोटो

आंसुओं ने दिखाया दम और जीत गए अजित

1998 के लोकसभा चुनाव में ऐसी सियासी स्थितियां बनीं कि अगले साल फिर लोकसभा का चुनाव कराना पड़ा। 1999 के लोकसभा चुनाव में भी बागपत सीट पर वही पुराने चेहरे सोमपाल शास्त्री और अजित सिंह आमने-सामने टकरा गए।

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पिछले चुनाव में चौधरी की हार के बाद समर्थकों की आंखों से निकले आंसुओं ने ऐसा असर दिखाया कि अजित सिंह ने दोगुनी अंतर से चुनाव मैदान में सोमपाल शास्त्री को हरा दिया। बागपत के लोग आज भी उस चुनाव को याद करते हैं।

जब महेंद्र सिंह टिकैत की आंखों से निकले आंसू

राकेश टिकट के पिता और भारतीय किसान यूनियन के सबसे दमदार नेता रहे महेंद्र सिंह टिकैत के जीवन में भी कई ऐसे मौके आए जब वे भावुक हो गए और समर्थकों ने पूरे दमदार तरीके से उन्हें समर्थन दिया। 1988 के अक्टूबर महीने में बोर्ड क्लब पर विभिन्न राज्यों के लाखों किसानों के साथ टिकैट धरने पर बैठे हुए थे।

इस दौरान जब पुलिस की ओर से आंसू गैस के गोले छोड़े गए और लाठीचार्ज हुआ तो टिकैट की आंखों से आंसू बह निकले और उन्होंने कहा कि संघर्ष के लिए सड़कों पर उतरे किसानों के साथ ऐसा नहीं होने दिया जा सकता।

टिकैत को भावुक देख मजबूती से डटे समर्थक

किसानों के मुद्दों को लेकर आंदोलन करने में महेंद्र सिंह टिकैत का कोई सानी नहीं था। 1988 में 27 जनवरी को उन्होंने किसानों के साथ मेरठ कमिश्नरी का घेराव किया था और जब पुलिस ओर से कमिश्नरी को घेरा गया तो टिकैत किसानों के साथ रो पड़े थे।

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1988 में ही हुई मार्च महीने के दौरान रजबपुर में जेल भरो आंदोलन के दौरान ऐसा ही नजारा दिखा था और टिकैत अपने समर्थक किसानों के लिए भावुक हो गए थे। इन तीनों मौकों पर जब टिकैत भावुक हुए या उनकी आंखों में आंसू आए तो उनके समर्थक पूरी मजबूती के साथ उनके साथ डटे रहे।

rakesh tikait

गाजीपुर बॉर्डर पर भी दिखा ऐसा ही नजारा

ऐसा ही नजारा किसान आंदोलन के दौरान दिल्ली के गाजीपुर बॉर्डर पर दिखा है। गणतंत्र दिवस की घटना के बाद जब यूपी पुलिस और फोर्स ने गाजीपुर बॉर्डर पर राकेश टिकैत की चारों ओर से घेराबंदी कर ली और उनके सरेंडर करने की चर्चाएं तैरने लगीं तब आक्रोश जताते हुए टिकैत की आंखों से आंसू बह निकले।

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उनकी आंखों से आंसू बहने का वीडियो इलेक्ट्रॉनिक चैनलों और सोशल मीडिया के जरिए खूब वायरल हुआ और इन आंसुओं ने जबर्दस्त असर दिखाया। जिस आंदोलन के जल्दी टूट जाने की उम्मीद जताई जा रही थी उसे टिकैट के आंसुओं ने संजीवनी दे दी और यह आंदोलन फिर उठ खड़ा हुआ।

इन आंसुओं ने इतना असर दिखाया है कि किसान आंदोलन के अन्य सभी नेताओं को पीछे छोड़ते हुए राकेश टिकट अब सबसे बड़े नेता बनकर उभरे हैं।

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