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महातबाही फिर से! उत्तराखंड के ग्लेशियरों में 1266 झीलें, भयानक प्रलय का खतरा

उत्तराखंड में 21481 वर्ग किमी क्षेत्र में 1474 ग्लेशियरों में 1266 झीलें हैं। इनमें ग्लेशियर बॉडी में बनने वाली झीलों सुप्रा ग्लेशियल की संख्या 809 है।

Shivani Awasthi
Published on: 7 Feb 2021 10:22 AM GMT
महातबाही फिर से! उत्तराखंड के ग्लेशियरों में 1266 झीलें, भयानक प्रलय का खतरा
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रामकृष्ण वाजपेयी

जोशीमठ के पास ग्लेशियर फटने से चमोली में आई तबाही आसन्न बड़ी तबाही की सिर्फ एक छोटी से कड़ी है। इसकी आशंका काफी पहले ही जता दी गई थी। एक अध्ययन के मुताबिक हिमाचल में ग्लेशियरों की संख्या उत्तराखंड से दोगुना से अधिक है, लेकिन ग्लेशियर झीलों की संख्या उत्तराखंड में तीन गुना से भी ज्यादा है। यानी इस नजरिये से उत्तराखंड अधिक संवेदनशील है। 2013 में केदारनाथ प्राकृतिक आपदा की घटना के बाद यह जरूरत महसूस की गई कि ग्लेशियर क्षेत्रों की झीलों का मानचित्रण किया जाए।

ग्लेशियर फटने से चमोली में तबाही

उत्तराखंड में 21481 वर्ग किमी क्षेत्र में 1474 ग्लेशियरों में 1266 झीलें हैं। इनमें ग्लेशियर बॉडी में बनने वाली झीलों सुप्रा ग्लेशियल की संख्या 809 है। लेकिन हिमाचल के 3199 वर्ग किमी क्षेत्र में 3273 ग्लेशियर है, लेकिन कुल झीलों की संख्या 958 है और सुप्रा ग्लेशियल झीलों की संख्या सिर्फ 228 है।

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वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान के विज्ञानियों ने ग्लेशियर झीलों पर ये रिपोर्ट तैयार की थी ताकि झीलों के संबंध में वस्तुस्थिति का पता रहे और समय रहते उपाय किए जा सकें।

Uttrakhand Flood Glacier Burst 1266 glacial lakes Tiking Time Bomb Threaten Major Catastrophe

गढ़वाल ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर

अध्ययन में यह तथ्य उजागर हुआ था कि हिमालयी क्षेत्र में गढ़वाल ग्लेशियरों पर जलवायु परिवर्तन का सबसे बुरा असर पड़ रहा है। इससे इनमें सबसे अधिक सुप्रा ग्लेशियर झीलें बन रही हैं। पर्यावरणविदों की चिंता का मूल कारण भी यही है कि देवभूमि में नदियों पर अंधाधुंध तरीके से बन रहे बांधों और जंगलों के कटान से बड़ी आपदा कभी भी आ सकती है।

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अध्ययन में पाया गया कि ग्लेशियर या बादल फटने के बाद आपदा की तबाही पर नियंत्रण करना मुश्किल हो जाता है। और इससे नदी के काफी बड़े क्षेत्र के किनारे बसा जनजीवन प्रभावित होता है।

उत्तराखंड की सभी झीलों का मानचित्रण तैयार

वाडिया हिमालय भू विज्ञान संस्थान के विज्ञानियों ने पहले चरण में उत्तराखंड की सभी झीलों का मानचित्रण तैयार किया। इसके बाद दूसरे चरण में हिमाचल प्रदेश के ग्लेशियर झीलों के मानचित्रण का कार्य पूरा किया। यह संस्थान के जर्नल हिमालयन जियोलोजी में प्रकाशित भी हुआ लेकिन इस पर सरकारों ने ध्यान नहीं दिया।

यह बड़ा काम भू विज्ञान संस्थान के वरिष्ठ विज्ञानी डॉ. राकेश भांबरी, डॉ. अंशुमान मिश्र, डॉ. अमित कुमार, डॉ. अनिल के. गुप्ता, डॉ. अक्षय वर्मा और डॉ. समीर कुमार तिवारी ने किया था।

flood haridwar

उत्तराखंड के ग्लेशियरों में 1266 झीलें

बताया गया कि गढ़वाल ग्लेशियर के निम्न अक्षांशों पर होने की वजह से यहां सोलर रेडिएशन अधिक है। इसके साथ ही जलवायु परिवर्तन की वजह से यहां बर्फबारी के बजाए बारिश होती है। इससे ग्लेशियरों में गलन अधिक है। इस क्षेत्र में मानसून अधिक प्रभावित हुआ है। इससे आने वाले समय में यहां जलस्रोतों में दिक्कत आएगी। पर्यावरणविदों की राय है बारिश बहुलता के चलते इस क्षेत्र में वनों का होना आवश्यक है।

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पर्यावरणविद अनिल कुमार लोहनी का कहना है कि देश में ग्लेशियर पानी के बड़े स्रोतों के रूप में स्थित है। इन्हीं ग्लेशियरों के पिघलने से कई जगह ग्लेशियर झीलें बनी हुई हैं। इनमें से बहुत सी झीलें नदियों के मुहाने पर स्थित हैं।

पहाड़ों पर ग्लेशियर के पिघलने से बन रही ग्लेशियर झीलें

वैज्ञानिक रिपोर्ट में कहा गया है कि पहाड़ों पर ग्लेशियर के पिघलने से ही ग्लेशियर झीलें बन रही हैं। हिमालय के अत्यधिक ऊँचाई वाले क्षेत्रों के हिमखंड पिघलने के बाद बर्फ और चट्टानों के इन अस्थायी बांधों के पीछे बड़ी झीलों का निर्माण हो जाता है। प्रायः जब इन झीलों का आकार बढ़ता जाता है तो उन पर पड़ने वाले जल का दबाव भी बढ़ता जाता है और एक ऐसी स्थिति पैदा होती है जब यह प्राकृतिक ग्लेशियर झीलें पानी के बढ़ते दबाव को सहन नहीं कर पाती और फट जाती हैं। यदि नदी पर कोई बांध अथवा जल-विद्युत परियोजना है, तो ग्लेशियर झील टूटने से अचानक आयी बाढ़ उनके लिये खतरनाक साबित हो सकती है।

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वैज्ञानिक अध्ययनों से पहाड़ी क्षेत्र पर बनने वाली इन ग्लेशियर झीलों की स्थिति, क्षेत्रफल तथा मुख्य नदियों से दूरी आदि का पता सुदूर संवेदी आंकड़ों और भूगोलीय सूचना तंत्र की सहायता से किया जा सकता है।

ग्लेशियर झीलें भविष्य में टूटने की अत्यधिक संभावना

ऐसी ग्लेशियर झीलें जिनके निकट भविष्य में टूटने की अत्यधिक संभावना होती है उनके वैज्ञानिक अध्ययन से यह ज्ञात करने का प्रयास किया जाता है कि यदि यह झीलें एकाएक टूटती हैं, तो नदी में कब और कितना बाढ़ का पानी आयेगा।

साथ ही यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि इस बाढ़ के पानी की तीव्रता और अधिकतम प्रवाह कितना होगा। इन अध्ययनों का सबसे अधिक लाभ यह है कि भविष्य में पहाड़ी क्षेत्रों में बनने वाले बांधो और जलविद्युत परियोजनाओं के डिज़ाइन में ग्लेशियर झीलों के टूटने से होने वाले खतरों का समायोजन कर बाढ़ से होने वाले नुकसान को कम किया जा सकता है।

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राष्ट्रीय जल विज्ञान संस्थान ने इस दिशा में पहल कर नव विकसित कई परियोजनाओं के ऊपरी क्षेत्रों का सुदूर संवेदी आंकड़ों द्वारा विश्लेषण कर ग्लेशियर झीलों का चित्रण किया है।

झील टूटने से परियोजना स्थल तक बाढ़

साथ ही इन क्षेत्रों की संभावित टूटने वाली झीलों का अध्ययन कर झील टूटने की स्थिति में परियोजना स्थल पर आने वाले बाढ़ के पानी का प्रवाह तथा झील से परियोजना स्थल तक बाढ़ के आने वाले समय का जलविज्ञानीय गणितीय मॉडलों द्वारा पूर्वानुमान लगाने का प्रयास किया गया है।

इन अध्ययनों से प्राप्त परिणामों को नदी परियोजनाओं के डिज़ायन में ‘फ्लड’ समायोजित कर पहाड़ी क्षेत्रों में बनने वाली विभिन्नस परियोजनाओं की सुरक्षा बढ़ाई जा सकती है।

इस प्रकार के अध्ययनों से भविष्य में बनने वाले बांध जल एवं जल-विद्युत परियोजनाओं को ग्लेशियर झील टूटने से होने वाले खतरों से बचाया जा सकता है और साथ ही जान-माल के नुकसान को कम किया जा सकता है।

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